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मोदी सरकार ने जिस दिन यह घोषणा की कि वर्तमान लॉकडॉउन को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा, तो नए सिरे से एक डर पैदा हुआ. देश ने रिकॉर्ड संख्या में नोवल कोरोना वायरस के मामले दर्ज किए और राजधानी दिल्ली के बीचों-बीच हॉटस्पॉट की पहचान हुई, जहां से विभिन्न राज्यों में कोरोना की बीमारी उन श्रद्धालुओं के जरिए पहुंची, जिन्होंने निजामुद्दीन मस्जिद में हुए धार्मिक आयोजन में हिस्सा लिया था.
लॉकडॉउन 14 अप्रैल को खत्म हो रहा है और उससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सलाहकारों को यह तय करना होगा कि इसे खत्म करना है या कि आगे बढ़ाना है. यह मुश्किल भरा फैसला होगा क्योंकि लोगों को, समाज को और आर्थिक व्यवस्था को दुनिया में अब तक के सबसे कठोर लॉकडॉउन की कीमत चुकानी पड़ रही है और यह स्वत: स्पष्ट होने लगा है. और, मोदी से बेहतर कोई नहीं जानता कि वो और उनकी टीम अगर गलती करते हैं, तो इसकी बड़ी राजनीतिक कीमत उन्हें चुकानी पड़ेगी.
लॉकडॉउन ने एक ऐसे पलायन को जन्म दिया है जो केवल युद्ध और अकाल के दौरान ही देखे जाते हैं. प्रवासी मजदूर रातोंरात बेरोजगार हो गए, शहरों और कस्बों की ओर भाग चले ताकि अपने-अपने गावों में पनाह ले सकें. मीडिया में दिलों को छू जाने वाले विजुअल, फोटोग्राफ और स्टोरी की भरमार हैं, जिनमें पुरुष और महिलाएं अपने बच्चों का हाथ थामे और बेहद जरूरी सामानों को ढोते हुए हाईवे पर सैकड़ों किलोमीटर घिसट रहे हैं, क्योंकि उस दिन आधी रात को ट्रेनें और बसें सड़क पर इकट्ठा हुई थीं.
सीएए विरोधी प्रदर्शनों और दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों के कारण हफ्तों की बदनामी के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तारीफ बटोरने के लिए मोदी ने ये सारी चीजें की थीं, लेकिन बगैर योजना और तैयारी के शुरू किए गए लॉकडॉउन के कारण मानवीय तकलीफों की लहरों में वह छवि धुल गई.
नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन की ओर से दिए गए एक असामान्य निर्देश से सरकार की बेचैनी का पता चलता है. टेलीविजन चैनलों से यह आग्रह किया गया कि वो भागते मजदूरों के विजुअल नहीं दिखलाएं, क्योंकि इससे दूसरे लोग भी उसी राह पर चलने को प्रेरित होते हैं. न केवल यह तर्क विचित्र है, बल्कि मीडिया में कई लोगों ने यह सवाल उठाया कि मोदी सरकार के लिए संभावित रूप से नुकसान पहुंचाने वाली खबरों पर सेंसरशिप लागू करने की यह कोशिश है.
जिस तरह से लॉकडॉउन के कारण लोगों को हुआ नुकसान अधिक समय तक छिपाया नहीं जा सकता, उसी तरह अर्थव्यवस्था को हुआ नुकसान भी प्रमाण है. इसमें असंगठित और छोटे स्तर के धंधे चौपट हुए हैं, जो आर्थिक गतिविधियों का बड़ा हिस्सा हैं.
निर्माण पूरी तरह से रुक चुका है. छोटे-मोटे खाने-पीने की दुकानें बंद हैं. स्वरोजगार की सेवा उपलब्ध कराने वाले बेरोजगार हैं.
हालांकि, विशेषज्ञ पहले से बेहाल अर्थव्यवस्था के बर्बाद हो जाने की चेतावनी देते हैं, लेकिन नुकसान कितना होगा यह तभी पता चलेगा जब स्वास्थ्य का संकट खत्म होगा. नीति आयोग के वाइस चेयरमैन राजीव कुमार ने एक गंभीर संकेत दिया, जब हाल ही में उन्होंने माना कि जीडीपी में विकास की दर शून्य के नीचे फिसल सकती है.
अब यह जोरशोर से कहा जा रहा है कि ऐसे कुचल डालने वाले लॉकडाउन की वजह सरकारी सर्किल में उस अफरातफरी का नतीजा है, जो जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी की स्टडी से आया. इसमें भारत में जारी कोरोना विपदा को लेकर चेताया गया था. इसके अन्य लेखकों में डॉ. रमन लक्ष्मी नारायणन भी थे. अध्ययन में यह अनुमान लगाया है कि इस वायरस से 30 से 40 करोड़ लोग संक्रमित होंगे. अध्ययन कहता है कि अप्रैल और मई में यह चरम पर होगा, जब कम से कम 10 करोड़ लोग इस बीमारी की चपेट में होंगे.
लक्ष्मी नारायणन वाशिंगटन स्थित सेंटर फॉर डिजीज डायनामिक्स, इकॉनोमिक्स एंड पॉलिसी के संस्थापक निदेशक हैं और वो प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में रिसर्च स्कॉलर और प्रॉफेसर हैं. वो पहले भारत में काम कर चुके हैं और स्वास्थ्य मंत्रालय के इम्युनाइजेशन प्रोग्राम्स एवं पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के साथ जुड़े रहे हैं, जहां वो वाइस प्रेसिडेंट थे.
तब से जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी ने इस पेपर से खुद को अलग कर लिया है. और बीजेपी के भक्त ‘विदेशी एजेंट’ आदि विशेषणों के साथ लक्ष्मी नारायण को ट्विटर पर खींच लाए हैं. आलोचकों में सबसे प्रमुख विजय चौथाईवाले हैं, जो भारतीय प्रवासियों में मोदी के प्वाइंट पर्सन हैं.
लॉकडॉउन के कुछ दिनों के भीतर जैसे ही इसका बुरा रूप सामने आया, इस बात को लेकर चिंता बढ़ने लगी कि सख्त मानदंडों से वायरस को फैलने से रोकने में मदद मिलेगी या नहीं. दूसरे नुकसानों की वजह से नतीजा कहीं ऐसा न हो कि धीरज टूट जाए और गलत कदम उठाना पड़े.
अंदर की जानकारी रखने वाले लोग बताते हैं अपनी टीम के सलाहकारों के साथ वीकेंड पर हुई एक रिव्यू मीटिंग में मोदी बहुत गुस्से में आ गए. लॉकडॉउन उस तरह से नहीं दिखा जैसा माना जा रहा था और फूलों का गुलदस्ता मिलने के बजाए रोड़े-पत्थर बरसते दिख रहे थे.
जैसे ही सप्ताह शुरू हुआ, कैबिनेट सेक्रेट्री राजीव गौबा ने कहा कि लॉकडॉउन बढ़ाने की कोई योजना नहीं है, जबकि स्वास्थ्य सचिव लव अग्रवाल ने कम्युनिटी ट्रांसमिशन की चर्चा को सिरे से खारिज किया. उन्होंने कहा कि अभी सिर्फ कुछ स्थानीय संक्रमण की स्थिति है.
यहां तक कि 14 अप्रैल तक के लॉकडाउन को हटाने का रास्ता तैयार करने के लिए नैरेटिव मे बदलाव की कोशिशें होने लगी थीं, तभी अप्रत्याशित रूप से निजामुद्दीन मस्जिद की पहचान से जुड़े सामुदायिक संक्रमण का मामला सामने आ गया और उहापोह की स्थिति बन गई.
दूसरी ओर, लक्ष्मी नारायण के जिस अध्ययन को दुत्कार दिया गया था, उसमें सच्चाई नजर आने लगी. और, अब अगर 14 अप्रैल को लॉकडॉउन हटाया जाता है तो भारत आने वाले हफ्तों में चिकित्सीय आपदा की ओर बढ़ता दिख सकता है. वहीं, अगर लॉकडाउन बेमियादी रूप से जारी रहता है तो इसके बड़े सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दुष्परिणाम होंगे.
“गरीबों का कोई ख्याल नहीं करता.” “सरकार अमीर लोगों को लाने के लिए विमानों की व्यवस्था करती है, जो वायरस लेकर आते हैं. लेकिन गरीब लोगों को गांवों तक ले जाने के लिए उनके पास कोई साधन नहीं होता.” घर जाना चाह रहे भूखे, थके और बेहाल प्रवासी लोगों ने जो कड़वी टिप्पणियां की हैं, उनमें से ये कुछेक उदाहरण हैं.
भारत में हर राजनीतिज्ञ यह जानता है कि अगर वो गरीबों का समर्थन खो देते हैं, तो देश उनके हाथ से निकल जाता है. क्या मोदी बगैर गिरे इस बाघ की सवारी कर पाएंगे? वो पहले ऐसा कर चुके हैं, लेकिन इस बार यह सवारी मुश्किल हो चली है.
(लेखिका दिल्ली में रहने वाली पत्रकार हैं. ये लेखिक के विचार हैं और इससे क्विंट का सरोकार नहीं है.)
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