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उपचुनाव में चला वोटर का बुलडोजर, वो निराश नहीं, गुस्से में है

उपचुनाव के रिजल्ट को एक ठीक-ठाक मूड सर्वेक्षण के रूप में देखा जा सकता है

संजय पुगलिया
नजरिया
Updated:
उपचुनाव के रिजल्ट को एक ठीक-ठाक मूड सर्वेक्षण के रूप में देखा जा सकता है
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उपचुनाव के रिजल्ट को एक ठीक-ठाक मूड सर्वेक्षण के रूप में देखा जा सकता है
(फोटो: क्‍विंट हिंदी)

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देश के वोटर का मूड क्या है? ये सवाल कुछ वक्‍त से मैं कई लोगों पूछ रहा था. गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश चुनावों का एक मैसेज था और त्रिपुरा का दूसरा. हो सकता है कि कर्नाटक का कुछ और मैसेज हो. मेरा सवाल होता था कि वोटर सरकार से खुश है या निराश है या गुस्से में है? गोरखपुर, फूलपुर और अररिया के उप चुनावों के नतीजों ने जवाब दिया है.

इस रिजल्ट को एक ठीक-ठाक मूड सर्वेक्षण के रूप में देखा जा सकता है. और जवाब ये है कि वो निराशा के आगे शायद गुस्से की तरफ बढ़ रहा है. उसने दिल्ली और लखनऊ की सरकारों को बड़ी चेतावनी दी है. चेतावनी ये है कि आप सरकार नहीं, सिर्फ अपना चुनाव अभियान चला रहे हैं. एक एजेंडा थोप रहे हैं, जिससे हमारा कोई लेना-देना नहीं है. 2014 में आपने कुछ वादे किए थे, उनको पूरा कीजिए. प्रचार और प्रवंचना के नशीले ईको चेंबर से निकलिए.

वोटर ने ये चेतावनी 2019 के चुनावों के करीब एक साल पहले दी है. और कहां दी है? उस उत्तर भारत में, जहां से बीजेपी ने 2014 में 232 सीटें जीती थीं. उस गोरखपुर के गढ़ को तोड़ा है, जहां से मुख्यमंत्री आते हैं, जहां योगी आदित्यनाथ का राज चलता है. उपमुख्यमंत्री की सीट फूलपुर को मुरझा दिया. एक साल में ही इन दो सीटों पर रिकॉर्ड वोट शेयर में से 10 फीसदी से ज्‍यादा वोट उड़ा दिया.

साथ ही बिहार के अररिया में बीजेपी-नीतीश के नए गठजोड़ को झकझोर दिया. लालू यादव को जेल में डालकर लगा कि बिहार की चुनावी जमीन साफ है, तो एक कच्चा तेजस्वी अररिया से पककर निकल आया.

मायावती सीबीआई से डरी रहेंगी, ये मिथ टूटा. एक साल पहले जिस अखिलेश को बुरी तरह से हराया, उसी अखिलेश पर ऐसा क्या प्यार आ गया कि गोरखपुर और फूलपुर के वोटर ने टीपू के हाथ फिर तलवार दे दी. बीजेपी की चुनाव जिताऊ भूखी मशीन, वोटकटवा उम्मीदवार, नेता-वर्कर इम्पोर्ट प्लान- सारे बेकार.

वोटर का ताजा मूड देखने के बाद बीजेपी को एक बार फिर लालच होगा कि ‘जातिवाद और क्षेत्रवाद के जहर’ के खिलाफ जलजला खड़ा किया जाए (फोटोः क्विंट हिंदी)

यानी अगला चुनाव अब एक खुला हुआ खेल है और बीजेपी को अकेले बहुमत मिले, इसकी गारंटी नहीं है.

दरअसल, 2014 के बाद सारे चुनावों का निचोड़ ये है कि वोटर गठबंधन युग में लौटना चाहता है. कांग्रेस के खि‍लाफ गुस्से और मोदी मैजिक के कारण वोटर ने एक पार्टी को बहुमत दे दिया था, लेकिन उसको ये अहसास हो रहा है कि लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए अभी वक्‍त नाजुक है और कोई एक पार्टी निरंकुश राज करे, ये ठीक नहीं है.

इसलिए 2019 में जिसकी भी सरकार बने, वो वास्तविक गठबंधन की सरकार होगी. यानी बीजेपी का बेस्ट केस ये होगा कि वो बहुमत खोए, लेकिन फिर भी एनडीए की सरकार की अगुआ बनी रहे. यानी गठजोड़ के दबाव और अंकुश की बहाली.

बीएसपी के समर्थन के बाद डरे हुए और कन्‍फ्यूज्‍ड विपक्ष को 2019 चुनावों के लिए एक फ्रेमवर्क मिल गया है. विपक्ष में काफी विरोधाभास है, सीमाएं हैं, हितों के टकराव हैं, लेकिन जीत की संभावना से अब उसके नथुने फड़केंगे.

काफी कुछ कांग्रेस की समझ पर निर्भर करेगा. कांग्रेस एक लुटे हुए जमींदार की कुंठा की भावना से बाहर नहीं आ पा रही, इसलिए एक महागठबंधन बनाने का मौका होते हुए भी फ्रंटफुट पर नहीं खेल पा रही. इस नतीजे के बाद खतरा ये है कि कांग्रेसी ढीले पड़ जाएं और बीजेपी के कार्यकर्ताओं का एनर्जी लेवल काफी बढ़ जाए. ऐसे में अगले एक साल में स्‍क्रिप्‍ट में काफी बदलाव देखने को मिल सकता है.

क्‍या कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी कार्यकर्ताओं में जोश भर पाएंगे?फोटो: @OfficeOfRG
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बीजेपी पब्लिक में चाहे जो कहे, आज 14 मार्च का रिजल्ट उसे अपनी रणनीति पर दोबारा सोचने को कह रहा है. मोदी बीजेपी के सबसे बड़े और अकेले वोट कैचर हैं. लेकिन सिर्फ इस पर निर्भरता के रिस्क हैं.

योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने की चतुराई आज सवालों के घेरे में आ गई है. साथ ही ये जिज्ञासा भी कि योगी पर दिल्ली नेतृत्व क्या सोचता है, रिश्ते कैसे हैं, क्या सीएम बदला जा सकता है?

बीजेपी की सबसे पसंदीदा स्क्रिप्ट हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान की थीम शायद कारगर नहीं होगी, ये चेतावनी साफ सामने आई है. लेकिन अपनी मूल स्क्रिप्ट से बीजेपी हटेगी, ये अनुमान लगाना गलत होगा. गांव-गरीब, दलित-पिछड़ा, किसान-जवान पर फोकस से जनधार बढ़ाने का मंसूबा था. उसके लिए अमीर विरोधी, भ्रष्टाचार विरोधी और मिडि‍ल क्लास से दूरी का स्टैंड लिया गया. कहीं ऐसा न हो जाए कि माया मिली ना राम.

अगर वोटर गुस्से में, ऐंग्री हो, तो ये सारे प्रबंध बेकार हो जाते हैं(फाइल फोटो:PTI)

अमेरिकी राष्ट्रपति जैसा चुनाव बना देने का आइडिया ठीक है. वोटर समूह की खुशी और नाखुशी के बीच, ये फॉर्मूला काम कर जाता है कि सामने कोई और विकल्प नहीं है. लेकिन अगर वोटर गुस्से में, ऐंग्री हो, तो ये सारे प्रबंध बेकार हो जाते हैं. इस नतीजे के बाद इस सवाल की पड़ताल होनी चाहिए.

वादों की डिलीवरी के सवाल को दरकिनार करने की बीजेपी की चाहत हो सकती है, लेकिन बीजेपी का क्लेम और वोटर अपनी जिंदगी में क्या महसूस कर रहा है, ये दो अलग बातें हैं. यहां छद्म नहीं चल सकता. रोजगार और विकास के बनावटी आंकड़ें नहीं बिक पाएंगे, ये है इन नतीजों का मैसेज.

बीजेपी की सरकार की ये खासियत है. किसी भी दूसरी राय, आलोचना और विरोध पर हमला, कालिख और प्रताड़ना. लोक व्यवहार को बदलना है, हम बदल सकते हैं, हमारे पास मैंडेट है, इसलिए हम कुछ भी थोपेंगे, आप बर्दाश्त कीजिए. विरोध का मतलब है, आप राष्ट्रविरोधी हैं. चार साल से धमक के साथ राज करने के बाद खुद एंटी-इस्टैब्लिश्मेंट योद्धा के रूप में, विपक्ष-आलोचक को खून चूसने वाले सत्ता-प्रतिष्ठान के रूप में पेश करने का मोह बीजेपी को हो सकता है. लेकिन वोटर के बेसिक कॉमन सेंस टेस्ट में ये पास नहीं होगा.

भारत में जमीनी सच्चाई सामाजिक और जातीय तौर पर व्यक्त होती है. वोटर का ताजा मूड देखने के बाद बीजेपी को एक बार फिर लालच होगा कि 'जातिवाद और क्षेत्रवाद के जहर' के खिलाफ जलजला खड़ा किया जाए और हिंदुत्व का राग तेज किया जाए. हिंदुत्व की एक शानदार स्क्रिप्ट पर वोटर अपनी कलम से ये क्या रद्दोबदल करने चला आया है!

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Published: 14 Mar 2018,08:46 PM IST

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