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अपने स्वर्णिम काल में भी बीजेपी को यूपी में इतना संघर्ष क्यों करना पड़ रहा है?

'अयोध्या, काशी, मथुरा, लव जिहाद, मोदी, योगी', फिर भी जाति की शरण में बीजेपी!

संतोष कुमार
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>विधानसभा चुनाव से पहले यूपी बीजेपी का रियलिटी चेक</p></div>
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विधानसभा चुनाव से पहले यूपी बीजेपी का रियलिटी चेक

(फोटो:कामरान अख्तर)

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''यूपी प्लस योगी बहुत उपयोगी''

''योगी शासन में कोई ‘बाहुबली’ नहीं दिखता, केवल ‘बजरंगबली’ दिखते हैं''

''जब मैं दूसरे प्रदेशों में जाता हूं तो एक ही बात सुनने में आती है कि यूपी की सरकार बहुत असरदार है''

यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ की तारीफ में ये कसीदे देश की सत्ता में बैठी तीन सबसे शक्तिशाली शख्सियतों ने हाल ही में पढ़े थे. लेकिन यूपी की सियासत में इन दिनों जो हो रहा है वो इन बयानों के खोखलेपन की चुगली कर रहा है. ऐसा लग रहा है कि न योगी का ''काम'', न दिल्ली के बड़े-बड़े नाम और न ही 'श्रीराम' बीजेपी के लिए पर्याप्त साबित हो रहे हैं. प्राइम टाइम और सोशल मीडिया के प्रपंची भक्त क्या कह रहे हैं, इससे परे देख पाएं तो यूपी में बीजेपी के डर की कहानियां बिखरी पड़ी हैं.

अयोध्या पर ऐतबार क्यों नहीं?

योगी कैबिनेट के तीन मंत्रियों स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी के ऐन चुनाव से पहले गच्चा दे जाने की कहानी अभी पुरानी नहीं हुई थी. इन मंत्रियों के अलावा 11 विधायकों के चले जाने पर लोग अभी पूछ ही रहे थे कि आखिर 'अजेय' पार्टी के 'गोल्डेन बॉय' के नेतृत्व को गोची देकर इतने लोग क्यों जा रहे हैं, कि यूपी बीजेपी के उम्मीदवारों की पहली लिस्ट आ गई. लिस्ट क्या आई बीजेपी की हालत बयां कर गई.

सीएम योगी के अयोध्या से चुनाव लड़ने की खबरें चलीं. खबरें इस अंदाज में चलीं कि उन्हें सिर्फ कयास नहीं माना जा सकता. फिर आखिरी वक्त में ऐसा क्या हुआ कि योगी को गोरखपुर के अपने 'सेफ हाउस' में पनाह लेनी पड़ी?

जिस अयोध्या को बीजेपी ट्रॉफी की तरह दिखाती है और जिस अयोध्या के चक्कर योगी पिछले पांच साल में 42 बार लगा चुके हैं, क्या वहां जीत का पक्का यकीन नहीं था? हिंदुत्व के एजेंडे के तहत किए गए तमाम कामों में अयोध्या सबसे ऊपर है, फिर उस अयोध्या पर ऐतबार क्यों नहीं?

काफी नहीं 'श्री राम', जाति से बनेगा काम?

ब्राह्मण ठाकुर योगी से नाराज हैं, ऐसी बातें पार्टी के अंदर और बाहर से कई बार हुईं, ऊपर से स्वामी प्रसाद मौर्य एंड कंपनी के इस्तीफा पत्रों में एक बात सामान्य थी कि पार्टी ने दलितों, पिछ़ड़ों को इग्नोर किया. नतीजा देखिए कि बीजेपी की पहली लिस्ट में 44 टिकट ओबीसी, 19 दलितों और 10 टिकट ब्राह्मणों को दिए गए. सहारनपुर देहात की सामान्य सीट से भी एससी जयपाल सिंह को टिकट दिया गया. तो हिंदुत्व-हिंदुत्व का जाप करने वाली पार्टी, विकास के हिमालयी दावे और क्राइम के मोर्चे पर जबरदस्त काम करने का दम भरने वाले मोदी-योगी को भी 'जाति' की शरण में आना पड़ा. सवाल ये है कि जब जाति के आधार पर ही टिकट बांटना था तो स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, दारा सिंह चौहान को क्यों जाने दिया?

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मीठी-मीठी बातें और कड़वा सच

कड़वा सच ये है कि यूपी विधानसभा में सरकार भले ही हुंकार भरे कि कोविड की दूसरी लहर में कोई बिन ऑक्सीजन नहीं मरा, लेकिन उस दौर में जो लोग खून के आंसू रोए हैं, उनकी पलकें अब भी गीली हैं.

सच ये है कि मोदी भले ही काशी के मंच से कोरोना के खिलाफ जंग में योगी सरकार की नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिश करें लेकिन प्रयाग में गंगा किनारे दफ्न लाशों से जब रेत हटी तो सरकार की नाकामी भी बेपरदा हो गई. बीजेपी आज भले ही कोरोना कंट्रोल पर खुद को मेडल दे लेकिन बदइंतजामी पर बिलखते मोहनलाल गंज से बीजेपी सांसद कौशल किशोर को लोग कैसे भूलें?

शाह को भले ही यूपी में अब कोई बाहुबली नहीं दिखता, लेकिन विकास दुबे की गोलियों से छलनी यूपी पुलिस के जवानों के शवों को पूरे देश ने देखा है? सच है कि रोजगार से लेकर शिक्षा और सेहत तक पर यूपी सरकार का स्कोर खराब है और जिस मुद्दे पर पांच साल सबसे ज्यादा काम किया, वो पूरा पड़ता नहीं दिख रहा.

एक के लिए दूसरे को सताया, पहला भी खफा?

''अयोध्या के बाद मथुरा की बारी'', काल्पनिक 'लव जिहाद' पर कानून लाकर लोगों को सताना, सीएए-एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन के सांवैधानिक हक को गैर कानूनी तरीके से दबाना. ये सब करके एक समुदाय को परेशान करना और दूसरे को खुश करने की कोशिश करना चुनावी रणनीति हो सकती है लेकिन क्या हो जब दूसरा समुदाय कोरोना से लेकर महंगाई और बेरोजगारी से खुद हलकान हो जाए.

100 रुपए लीटर पेट्रोल, महंगी बिजली, लखीमपुर के किसानों को रौंदना, हाथरस कांड, उन्नाव की बेटी पर जुल्म और जुल्म करने वाले को लंबे वक्त तक बचाने की बेशर्म कोशिश. आज चैनलों पर चुनावी चर्चा में भले ही इन मुद्दों को जगह नहीं मिलती, लेकिन ये मुद्दे आज भी आम आदमी के जेहन में हैं. लोगों को याद है कि कैसे कोरोना से मरते अपने रिश्तेदार के लिए सोशल मीडिया पर मदद मांगने को सरकार के खिलाफ साजिश बता दिया गया. कैसे जायज प्रदर्शन को भी राजद्रोह की कैटेगरी में ला दिया गया.

एंटी इंकम्बैंसी फैक्टर के डर का आलम ये है कि पहली ही लिस्ट में 20 से ज्यादा मौजूदा विधायकों को टिकट देना मुनासिब नहीं समझा गया. थोक के भाव में मंत्रियों और विधायकों के जाने के पीछे ये भी वजह बताई जा रही है कि थोक के भाव में मौजूदा विधायकों के टिकट काटे जाएंगे.

गम और भी हैं. पार्टी के अंदर ब्राह्मण नेताओं की नाराजगी. दिल्ली से भेजे गए एके शर्मा पर मोदी-योगी के बीच तनाव और केशव प्रसाद मौर्य और योगी के बीच अनबन की चर्चा हो ही जाती है. ये नॉर्मल तो नहीं ही था कि मौर्य और चौहान के जाने पर डैमेज कंट्रोल के लिए केशव प्रसाद मौर्य आगे आए लेकिन योगी ने एक शब्द नहीं कहा.

पोस्टर बॉयज राजनीति को कामयाबी की रणनीति बना चुकी बीजेपी के मंत्रियों, विधायकों की दुखती रग ये है कि उन्हें पांच साल शीतनिद्रा में रहने को मजबूर किया जाता है, फिर चुनाव आने पर वो कैसे सरपट भागें? दिक्कत ये है कि बीजेपी का स्टार पावर लगातार फेल हो रहा है. बंगाल, बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के सबक सबके सामने हैं लेकिन पार्टी मानने को तैयार नहीं. ये तो मध्य प्रदेश, हरियाणा, गोवा, मणिपुर, कर्नाटक के जुगाड़ हैं कि सच अपने पूरे स्वरूप में दिखता नहीं.

एक तरफ न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर एकतरफा शोर, सबसे उन्नत चुनावी मशीनरी, मनी पावर, केंद्रीय एजेंसियों का डर और दूसरी तरफ बिखरा हुआ विपक्ष-इसके बावजूद कहीं कोई अकेला तेजस्वी भारी पड़ जाता है तो कहीं कोई अखिलेश चुनौती खड़ी कर देता है.

याद रखिए ये बीजेपी का कथित रूप से 'गोल्डेन एज' है, तब ये हालत है. विपक्ष की आधी-अधूरी मेहनत और उसमें इतना बिखराव न हो तो देश और यूपी की सियासी तस्वीर शायद कुछ और हो.

हर सीट के समीकरणों पर बारीक काम और चुनाव के आखिरी दिनों में बेजोड़ मेहनत बीजेपी को बढ़त देती है, शायद इस बार भी इससे फायदा होगा, लेकिन पार्टी यूपी में जीत को लेकर आश्वस्त है, ऐसा नहीं लगता.

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Published: 16 Jan 2022,12:04 PM IST

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