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बड़े बेआबरू होकर काबुल से तुम निकले, अब अमेरिका पर यकीन कौन करेगा?

Afghanistan छोड़ते वक्त अमेरिका के धैर्य में कमी दिखी, बिना रणनीति के अफगानियों को अकेला छोड़कर भागे सैनिक.

मनोज जोशी
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>31 अगस्त को अफगानिस्तान से आखिरी अमेरिकी सैनिक निकला; प्रतीकात्मक फोटो&nbsp;</p></div>
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31 अगस्त को अफगानिस्तान से आखिरी अमेरिकी सैनिक निकला; प्रतीकात्मक फोटो 

PTI

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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (US President Joe Biden) ने अफगानिस्तान से आखिरी अमेरिकी सैनिक की वापसी के बाद अमेरिकियों को संबोधित करते हुए कहा कि "मैं इस लगातार चलने वाले युद्ध को और लंबा नहीं खींचना चाहता हूं. मैं हमेशा के लिए वहां से बाहर निकलने का और विस्तार नहीं कर रहा था... मेरी राय में एक राष्ट्रपति का मूलभूत कर्तव्य न केवल 2001 के खतरों के खिलाफ बल्कि 2021 और आने वाले कल के खतरों के खिलाफ भी अमेरिका की रक्षा और सुरक्षा करना है. अफगानिस्तान से बाहर निकलने में मेरे फैसलों के पीछे यही मार्गदर्शक सिद्धांत है."

अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो (NATO) ने क्या किया यह बताने के लिए आपके पास कई शब्द हो सकते हैं. लेकिन उन सबमें अगर किसी तटस्थ शब्द को देखा जाए तो वह शब्द होगा "वापसी". कोई भी किसी भी उद्देश्य से बात करेगा, लेकिन उसमें मूल में वापसी का भाव ही छिपा रहेगा.

यह सच है कि वहां से सैनिकों की वापसी का आदेश तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार एक अच्छा आदेश था. लेकिन पिछले गुरुवार को हुए बम हमले में 13 सैनिक मारे गए. हालांकि कोई अमेरिकी हताहत नहीं हुआ. इसके साथ ही आप उस सेना के बारे में कैसी राय बनाते हैं, जिसने युद्ध के मैदान पर भारी मात्रा में हथियार और आधुनिक सैन्य उपकरण छोड़ दिए हो. इसके साथ उन हजारों लोगों को छोड़ दिया जिनकी जान और स्वतंत्रता दोनों ही तालिबान के हाथों खतरे में पड़ सकती है?

एक झटके की तरह रही बगराम से वापसी

एक सच यह भी है कि अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बल (ANSF) को बड़ी संख्या में हथियार दिए गए हैं जो अब तालिबान के पास हैं. 2002 से 2017 के बीच अमेरिकी की ओर से ANSF को लगभग 28 बिलियन डॉलर की कीमत के हथियार दिए थे. जिनमें बंदूकें, रॉकेट, नाइट-विज़न गॉगल्स, लगभग 2,000 बख्तरबंद गाड़ियां, 40 एयरक्राफ्ट दिए गए जिसमें UH-60 ब्लैक हॉक्स, स्काउट अटैक हेलीकॉप्टर और स्कैनईगल ड्रोन शामिल हैं. लेकिन अब यह सबकुछ तालिबान के हाथों लग चुका है.

लेकिन अमेरिकी अक्षमता की असल तस्वीर तब सामने आई जब उन्होंने काबुल से कुछ घंटे की दूरी पर बगराम स्थित अपने प्रमुख और पूर्ण सुरक्षित बेस को छोड़कर अफगानिस्तान से बाहर निकलने का फैसला लिया. उनके इस औचक निर्णय के बारे में अफगानिस्तानियों को पहले से कोई जानकारी नहीं थी. उल्लेखनीय है कि अत्यधिक अभिमान से भरा यह कृत्य अमेरिकी स्वतंत्रता के 245वें वर्ष से दो दिन पहले 2 जुलाई को लिया गया था.

अमेरिका ने जिस तरीके से अफगानिस्तान से प्रस्थान किया है वह किसी झटके से कम नहीं है. इससे ANSF को जोरदार झटका पहुंचा. युद्ध विजेता की विशेषता रखने वाली अफगान सैन्य शक्ति मनोबल औंधे मुंह गिर गया. बता दें कि अब तक अफगानिस्तान की 34 प्रांतीय राजधानियों में से एक भी तालिबान के हाथों में नहीं आई थी.

जब अमानवीय विडंबना सामने आई तो 6000 अमेरिकी सैनिकों को वापस भेजना पड़ा. इस बार सैनिकों को कम सुरक्षित काबुल हवाई अड्‌डे से नागरिकों को बाहर निकालने का काम सौंपा गया.

अफगानी सेना को दोष देना क्या उचित है?

अक्षमता, कायरता या बुजदिली के लिए ANSF को दोषी ठहराना अब आसान है. लेकिन बारीकी से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि अफगानिस्ता छोड़ने की अमेरिका की एक बड़ी योजना थी जो लगभग पिछले एक दशक से चली आ रही थी. पूरी तरह से काम कर रही सेना (ANSF) को अचानक से अकेले छोड़ना उनकी योजना में बड़े दोष को दर्शाता है.

अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बल खुफिया सहायता और रखरखाव के मामले में US air पर निर्भर था और जब अचानक से अमेरिका ने अपना सपोर्ट खींच लिया तो ऐसा लगा मानो ANSF के शरीर से दिल को निकाल दिया गया हो. पाकिस्तानी मामलों के लेकर संवेदनशील अमेरिका ने एएनएसएफ (ANSF) को आधुनिक सेना के लिए आवश्यक सभी क्षमताओं को विकसित नहीं करने दी थी.

1989 में तत्कालीन सोवियत संघ की सेना ने अफगानिस्तान में मोहम्मद नजीबुल्लाह के अधीन एक सरकार स्थापित करने के लिए सोवियत संघ की सेना भेजने का फैसला किया था. तब अफगान सरकार ने सोवियत संघ की सेना के साथ मिलकर मुजाहिदीन पर सफलतापूर्वक आक्रमण किया था. सोवियत सेना और मुजाहिदीन के बीच हुई जंग में अफगान राज्य पैसे की कमी से जूझ रहा था और सोवियत सेना की वापसी के बाद मुजाहिदीन ने नजीबुल्लाह सरकार को हटा दिया था. मुजाहिदीन जिहादियों को पाकिस्तान-अमेरिका-सउदी अरब का समर्थन प्राप्त था.

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अमेरिका द्वारा की गई "वापसी" के बारे में अन्य मुद्दे भी हैं, जिन पर चिंतित होना चाहिए. उदाहरण के लिए अमेरिका ने इस प्रक्रिया में अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार को बिल्कुल भी शामिल नहीं किया. अशरफ गनी सरकार को एक विवादास्पद चुनाव में अल्पसंख्यक लोगों द्वारा चुना गया था. इस सरकार की पर्याप्त वैधता थी, लेकिन लोकतंत्र की बात करने वाले बाइडेन द्वारा जिस तरह से इसे शांति प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया, वो किसी विडंबना से कम नहीं..

गनी सरकार को शांति प्रक्रिया से बाहर कर अमेरिका ने इसे प्रभावी रूप से अवैध घोषित कर दिया. तालिबान और अफगान सरकार की उच्च शांति परिषद से जुड़ी वार्ता की मेजबानी को रूस पर छोड़ दिया गया था.

भारत जैसे करीबी क्षेत्रीय मित्र देशों को भी उस शांति प्रक्रिया से बाहर रखा गया, जिसका उद्देश्य परिणाम की परवाह किए बिना अमेरिकियों और नाटो को अफगानिस्तान से बाहर निकालना था. साउथ ब्लॉक को इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि दोहा समझौते के अनुसार तालिबान ने अपने नियंत्रण वाले इलाके में अन्य किसी के प्रवेश पर पाबंदी लगाने की बात भी कही थी. इसमें प्रवेश का अधिकार "संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों" तक ही सीमित है.

समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद, अमेरिका और नाटो दल अपने ठिकानों को खत्म करने में व्यस्त हो गए. तब नाटो और अमेरिका की चिंताओं से मुक्त होकर तालिबान ने ANSF के खिलाफ अपने हमलों को तेज कर दिया, जोकि दोहा समझौते के पत्र और भावना के विपरीत था.

बेहुदा निर्णयों की श्रृंखला

यहां एक और सवाल आता है. यह सवाल नाटो से संबंधित है, क्योंकि इसे संगठन के इतिहास में पहले मिशन के रूप में देखा गया था जहां अनुच्छेद V के तहत सामूहिक रक्षा प्रावधान लागू किया गया था.

हो सकता है अमेरिकियों ने अफगान युद्ध में सबसे भारी काम किया हो, लेकिन उसके नाटो सहयोगियों - जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, कनाडा, तुर्की, नॉर्वे, बेल्जियम, स्वीडन और अन्य सदस्यों के सैनिकों ने भी 2014 तक लड़ाई लड़ी थी.

इसके बाद यह सलाहकार मिशन बन गया था, लेकिन अमेरिका ने अंततः फरवरी 2020 में तालिबान के साथ एक द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसने भले ही अपने सहयोगियों को लूप में रखा हो, लेकिन काबुल में अंतिम विघटन कुछ ऐसा नहीं है जिसकी यूरोपीय लोग प्रशंसा करें.

अफगानिस्तान में तैनात रह चुके अमेरिका के एक पूर्व राजदूत रेयान क्रोकर ने अमेरिका की ओर से रणनीतिक धैर्य की कमी के बारे में लिखा है कि समस्या यह है कि वापसी या पीछे हटने के संबंध में सामरिक धैर्य भी मिसिंग था.

एक अन्य लेखक ने इस बारे में लिखा कि "गर्मी के चरम पर वापस जाना मूर्खता थी, क्योंकि तब तालिबान पूरी ताकत से बाहर आ गए थे, वहीं अगर सर्दी होती तो वे अपने ठिकानों तक ही सीमित हो सकते थे."

अमेरिका द्वारा एक विशेष तारीख तक वापसी करने की घोषण विरोधी के लिए मुनासिब रहा, इससे विरोधी इसका बड़ा फायदा मिलता है कि वे अपने अभियान और उसकी गति को तय कर सकते हैं.

इसके बजाय, अमेरिकियों को जमीन पर स्थितियों के लिए मीट्रिक का इस्तेमाल करना चाहिए था. वे अंतिम वापसी या अफगान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता पूरी होने तक संघर्ष विराम के लिए कह सकते थे.

इस वर्ष की शुरुआत में जब सरकार ने सभी शहरी केंद्रों को नियंत्रित किया था, तब तक उनके पास 2,500 कर्मियों की टोकन फोर्स दी गई थी वे इसे बनाए रख सकते थे.

छह अगस्त के अंत तक जिस पहली प्रांतीय राजधानी में कब्जा किया गया था वह जरांज थी. जो ईरान की सीमा के पास स्थित है. यह डेलाराम की ओर जाने वाली भारत द्वारा निर्मित सड़क का प्रारंभिक बिंदु है, जिसका उद्देश्य अफगानिस्तान को चाह बहार के माध्यम से बाहरी दुनिया से जोड़ना है.

क्या अमेरिका अपना ध्यान चीन पर नहीं लगाएगा?

कुछ सहज विश्लेषण ऐसे भी हैं जिनका तर्क हैं कि मध्य-पूर्व में लंबे समय से चले आ रहे अपनी उत्तरदायित्वों को छोड़ने के बाद अमेरिका हिंद-प्रशांत में चीन का सामना करने के लिए ज्यादा जोश के साथ पलटवार करेगा.

लेकिन यह विश्लेषण तब विफल प्रतीत होता है जब हम वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका की मौजूदा तटस्‍थतावादी नीति को समझते हैं. तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह अफगानिस्तान और इराक में तबाही का सामना करने के बाद चीन जैसी बड़ी शक्ति के खिलाफ एक सैन्य उद्यम का समर्थन नहीं करेगा. साथ ही, जिस तरह से उसने अपने अफगान प्रस्थान को संभाला, उसे देखते हुए मित्र और सहयोगी अमेरिका में कितना विश्वास बनाए रखेंगे?

इसके साथ ही जिस तरह से अमेरिका ने अपनी अफगान वापसी को हैंडल किया है उसे देखते हुए मित्र और सहयोगी देश अमेरिका में कितना विश्वास बनाए रखेंगे?

अफगानिस्तान में अमेरिकी रिकॉर्ड को देखते हुए, यह स्वीकार करने के लिए एक बहादुर व्यक्ति की आवश्यकता होगी कि काबुल में जो हुआ वह एक सामान्य तरीके से वापसी थी और वाशिंगटन अब बड़ी ही सफाई और दृढ़ता से इंडो-पैसिफिक को केंद्र में रख आगे की ओर बढ़ेगा.

सहयोगियों को अकेला छोड़ने के साथ ही बाइडेन प्रशासन द्वारा स्थिति से निपटने के प्रबंधन ने खुद अमेरिका, विशेषकर उसके सशस्त्र बलों पर गहरे निशान छोड़े हैं. यह मरीन कर्नल स्टुअर्ट शेलर और रिटायर्ड मिलिट्री फ्रैटरनिटी जैसे महत्वपूर्ण बयानों से स्पष्ट है.

एक समय था जब हताहतों की दृढ़ स्वीकृति अमेरिकी योद्धा प्रकृति को चिह्नित करती थी. लेकिन आज सब बिखरा हुआ सा लगता है. जिन्होंने अपने करीबी और प्रिय लोगों को खो दिया है. उनकी स्थिति को संभालने वाले बाइडेन उनसे कटे हुए अलग लग रहे हैं.

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के एक ख्यात फेलो हैं. यह एक विचारात्मक लेख है. इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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