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अगले साल के महत्वपूर्ण यूपी चुनाव में बीजेपी के संभावित प्रदर्शन पर RSS द्वारा चिंता का ही परिणाम था कि नागपुर ऑफिस को हाल ही में नियुक्त 'सेकेंड-इन-कमांड' दत्तात्रेय होसबोले को लखनऊ दौरे पर भेजना पड़ा. उनकी जिम्मेदारी थी : आये दिन यूपी से आते खराब खबरों के बीच योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा कोविड-19 महामारी के प्रबंधन का आकलन और सरकार तथा पार्टी में मुख्यमंत्री की कठोर कार्यशैली के खिलाफ मौजूदा असंतोष को नियंत्रित करना.
लगता है होसबोले कुछ हद तक सफल भी रहे. योगी दिल्ली आकर दोनों 'बिग बॉस'-पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से मिलने को राजी हो गए. चाहे उन्होंने MLC शर्मा के मुद्दे पर सुलह और बीच का रास्ता निकाला हो ना हो, लेकिन उन्होंने यकीनन साथ तस्वीर खिंचवाकर और अपने पसंदीदा पत्रकारों से बातचीत करके यह संकेत देने का प्रयास जरूर किया कि सब ठीक-ठाक है.
हालांकि इसमें शामिल तीनों प्रमुख खिलाड़ियों के जुझारू प्रकृति को देखते हुए होसबोले के लिए यह कार्य टेढ़ी खीर थी. यह सुनिश्चित करने के लिए कि बीजेपी इस राजनैतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य को फिर से जीते,संघ ने पूरी जान लगा दी है.
होसबोले के लिये यह निर्णय कठिन है. 4 साल पहले की तुलना में योगी के तेवर बदल गयें है ,जब योगी पीएम मोदी के इच्छा के खिलाफ मुख्यमंत्री बने थे. 2017 तक वह संसद में एक भगवाधारी सांसद थे और उनकी पहचान गोरखपुर और उसके आसपास ही मुंह से आग उगलने वाले गोरखनाथ मठ के सांप्रदायिक प्रमुख के रूप में थी.
योगी की महत्वकांक्षायें उनके राष्ट्रीय रुतबे में वृद्धि के साथ बढ़ी है. योगी चाहे प्रशासक के रूप में असफल और कुशासन का पूरी किताब हों, लेकिन उन्होंने राजनीति की कला देश के सबसे अच्छे स्कूल- उत्तर प्रदेश में सीखी है. जिस तरह से उन्होंने अरविंद शर्मा के लिए एक पद के मुद्दे पर दो सबसे चालाक राजनैतिक दिमागों को पछाड़ दिया है, वह उनकी महारत का नमूना है.
यह दिलचस्प है कि होसबोले की सलाह पर RSS और मोदी-शाह ने चुनाव से 8 महीने पहले योगी के साथ रहने और सीएम को नाम बदलने का निर्णय लिया है. इसका एक कारण अतीत में चुनाव के पहले बीजेपी का मुख्यमंत्री बदलने का खराब अनुभव है.
दूसरा कारण है हिंदुत्व आइकन के रूप में योगी की लोकप्रियता.योगी को हटाना बीजेपी के हार्डकोर हिंदू वोट आधार के गले से आसानी से नहीं उतरता.
यह किस्सा शर्मा के विवाद के साथ खत्म नहीं होगा. संघ भी आगे की कठिनाई को लेकर सचेत है. टिकट बंटवारे पर भी बहस होना तय है जब योगी अपने लोगों की पैरवी करेंगे तो मोदी-शाह अपने वफादारों की.
इसके अलावा जाति के मुद्दे पर भी तनाव हो सकता है. अचानक से बीजेपी में जितिन प्रसाद को लाना यह संकेत है कि पार्टी ब्राह्मण वोट के लिए आधार तैयार कर रही है. हालांकि इस प्रभावशाली समुदाय को खुश रखने के लिए यह अच्छी राजनीति है लेकिन यह योगी और उसके ठाकुर लॉबी के लिए संभावित टकराव का सूचक है, जो पिछले 4 साल से यूपी में सत्ता के करीब है.होसबोले को ब्राह्मण-ठाकुर के प्रतिद्वंदिता को इस तरह हैंडल करना होगा कि इससे बीजेपी के चुनावी समीकरण को कोई नुकसान ना पहुंचे.
संघ और बीजेपी के एक तबके को लगता है कि मोदी को यूपी चुनाव में वैसे नहीं उतरना चाहिए जैसे वह पश्चिम बंगाल के चुनाव में उतरे थे. बंगाल की पराजय ने मोदी की छवि को नुकसान पहुंचाया है. अगर सत्ता विरोधी लहर उठती है और बीजेपी यूपी हार जाती है तो यह हार मोदी के 2024 के सपने पर सबसे बड़ा आघात होगा .
जो लोग मोदी के स्टाइल को जानते हैं वह कह रहे हैं कि मोदी कभी चुनौतियों से पीछे नहीं हटेंगे और यूपी जैसे महत्वपूर्ण चुनाव में बैकसीट लेने को तैयार नहीं होंगे.लेकिन इस पर मंथन अभी भी बीजेपी और संघ के गलियारों में चल रहा है.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं .उनका ट्विटर हैंडल है @AratiJ.यह एक ओपिनियन पीस है. यह लेखिका के अपने विचार हैं .द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)
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