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उत्तराखंड समान नागरिक संहिता: बेढंग तरीके से तैयार कानून, जिसमें सुधार का कोई इरादा नहीं

Uttarakand सरकार यह साफ नहीं कर पा रही है कि यूसीसी कानून से वह राज्य में क्या बदलाव लाने की कोशिश रही है.

आलोक प्रसन्ना कुमार
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>उत्तराखंड समान नागरिक संहिता</p></div>
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उत्तराखंड समान नागरिक संहिता

फोटो: PTI

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उत्तराखंड सरकार ने समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए 20 महीने पहले जो समिति बनाई थी, उसके रिपोर्ट देने के एक दिन बाद ही मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने यह विधेयक विधानसभा में पेश किया और बुधवार, 7 फरवरी को वह सदन में पारित भी हो गया.

पहले-पहल ऐसा ही लगता है कि 392 धाराओं वाले इस कानून से राज्य में पारिवारिक कानून में गंभीर सुधार देखने को मिल सकते हैं. उत्तराखंड सरकार भी यही चाहेगी कि आप ऐसा ही मानें. लेकिन सच्चाई यह है की यह एक बेढंग तरीके से तैयार किया गया कानून है, जिसमें सुधार का भी सरकार कोई विचार नहीं कर रही है. कानून का इरादा सिर्फ इस्लामी पर्सनल कानून (Islamic personal law) के प्रति बहुसंख्यकवादी विरोध है. विभिन्न जातियों और विभिन्न धर्मों के बीच संबंधों पर रोक लगाना है.

जैसा कि दूसरों ने भी इशारा किया है, उत्तराखंड के यूसीसी का काफी हिस्सा अन्य संघीय कानूनों और उत्तराखंड के दूसरे कानूनों से लिया गया है. इन कानूनों में विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (Special Marriage Act) और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Indian Succession Act) अहम हैं. कानून में संरक्षकता यानी गार्जियनशिप और वार्ड या एडॉप्शन से जुड़ा कोई प्रावधान नहीं हैं. कानून उत्तराखंड में हिंदू संयुक्त परिवार की अवधारणा को भी खत्म कर रहा है, मुमकिन है कि इसका विचार कमेटी ने नहीं किया होगा.

हालांकि इस आर्टिकल के मद्देनजर, मैं उत्तराखंड यूसीसी के दो विवादित मुद्दों पर जोर देना चाहता हूं- पहला शादी और दूसरा विभिन्न जातियों और विभिन्न धर्मों के बीच उनके निजी रिश्तों को काबू करने की कोशिश.

शादी क्या है?

शुरुआत से ही उत्तराखंड सरकार यह साफ नहीं कर पा रही है कि यूसीसी कानून से वह राज्य में क्या बदलाव लाने की कोशिश रही है. शादी से जुड़े किसी भी कानून में शादी की वैधता और अवैधता, दोनों के मानदंड होने जरूरी हैं.

उदाहरण के लिए हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act) के तहत एक हिंदू विवाह केवल तभी वैध माना जाएगा जब दोनों पक्ष सप्तपादी या शादी को मान्यता दिलाने के लिए अपनी परंपराओं के तहत उचित अनुष्ठान करते हैं. पक्ष द्वारा इन सभी आयोजनों के बावजूद भी हिंदू शादी अमान्य करार दी जा सकती हैं अगर किसी पक्ष के पहले से ही जीवित पति-पत्नी हैं या फिर जीवन साथी निषेध रिश्ते की सिमाओं में आते हैं. हिंदू शादी तब भी गैरकानूनी मानी जाएगी अगर कोई भी पक्ष सहमति से कम उम्र के हैं और ऐसे ही कई कारक हैं हिंदू शादी को मान्य और अमान्य घोषित करने के लिए. इस्लामी कानून में भी ऐसे ही कारक हैं जहां शादी के लिए पुरुष और महिला की सहमति जरूरी होती है. गवाहों की मौजूदगी में जब दोनों ‘कुबूल है’ कहते हैं, उसी से यह साबित होता है कि दोनों इस शादी से सहमत हैं.

वह आयोजन जो दोनों पक्षों के सहमति से ही आयोजित किया जा सकता है, उत्तराखंड यूसीसी इन्हें केवल "समारोह" कहकर खारिज करता है. बेहतर होता अगर यूसीसी कहता कि विवाह केवल तभी वैध होगा जब पक्ष विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत जरूरत के अनुसार अपने विवाह को रजिस्टर करेंगे. लेकिन विवाह को वैध बनाने के लिए यह शर्तें भी जरूरी नहीं है.

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इससे साफ तौर से बेतुके हालात पैदा हो जाएंगे. जब पक्षों ने इस विचार से अनुष्ठान या समारोह आयोजित किए हों कि ऐसा करना उन्हें "शादीशुदा" दिखाने के लिए काफी है. लेकिन असल में यह आयोजन उनके शादी के सबूत नहीं बन सकते. रजिस्ट्रेशन से अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि शादी पहली नजर में वैध है, लेकिन यूसीसी इस में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि कौन से कदम या आयोजन कानून की नजर में विवाह को वैध बनाएंगे.

ऐसा लगता है कि उत्तराखंड यूसीसी को इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि विवाह को "एक समान" कैसे बनाया जाए. सभी समुदायों के लिए वैध शादी की प्रक्रिया और मानदंड को एक समान बनाने की बजाय वह एक समान रूप से सभी को उलझा रही है कि उत्तराखंड में वैध शादी आखिर में है क्या.

अलग-अलग जातियों और धर्मों के बीच रिश्तों पर रोक लगाने की कोशिश

उत्तराखंड यूसीसी के एक प्रावधान ने लोगों का खास ध्यान खींचा है. वह है लिव-इन रिलेशनशिप (Live in Relationship). इनमें खास तौर से उन प्रावधानों पर चर्चा है जिनके तहत लिव-इन रिलेशनशिप को तब क्रिमिनलाइज किया जा सकता है अगर वह रजिस्टर नहीं हों. अब लिव-इन रिश्तों को सरकार से रजिस्टर कराना होगा, ताकि युगल जोड़ा (खास तौर से महिलाएं) भरण-पोषण का दावा कर सकें और बच्चों को संपत्ति में अपना हिस्सा मिल सकें.

ये प्रावधान इस लिहाज से बेहद अच्छे और जरूरी हैं कि समाज में ऐसे रिश्ते आम बात हो रहे हैं. लेकिन आपराधिक कानून का इस्तेमाल और ऐसे रिश्तों को अनिवार्य रूप से रजिस्टर कराने की मांग, इनके इरादों पर सवाल खड़े करती है.

दिक्कत यह है कि ये प्रावधान लिव-इन रिलेशनशिप को रजिस्टर करने वाले रजिस्ट्रार को मनमाना अधिकार देता है. वह चाहे तो धोखाधड़ी, गलत बयानी जैसे अस्पष्ट आधारों पर लिव-इन रिश्ते को रजिस्टर करने से इनकार कर सकता है. कपल्स को अपमानजनक "पूछताछ" से गुजरना पड़ सकता है. यह पूछताछ कोई अदालती मुकदमेबाजी नहीं है, और रजिस्ट्रार ऐसे किसी भी तीसरे पक्ष, जिसका इस मामले से कोई लेना देना नहीं है, उससे इस रिश्ते की वैधता पूछ सकता है. और उसके बयान पर रिश्ते को रजिस्टर करने या ना करने का फैसला ले सकता है.

रजिस्ट्रेशन नामंजूर होने पर अपील का कोई तरीका नहीं है. जेल जाने से बचने के लिए कपल्स के पास सिर्फ यही रास्ता बचता है कि वे हाई कोर्ट जाएं. जैसा कि कोई भी यह तर्क दे सकता है कि ऐसे प्रावधान संविधान में दिए गए प्राइवेसी के अधिकार का उल्लंघन करते हैं.

यह देखते हुए भी कि उत्तराखंड यूसीसी कानून, केंद्रीय कानून (जैसे हिंदू विवाह अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम, आदि) पर प्रभावी होने वाला है (यानी यूसीसी के प्रावधान केंद्रीय कानूनों के प्रावधानों के होते हुए भी लागू रहेंगे) विधेयक विधानसभा में पारित हो गया.

संविधान के अनुच्छेद 254 के खंड (2) के अनुसार इसे भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाना होगा. ऐसा करने के दौरान संघ इस बात पर विचार कर सकता है कि अगर प्रत्येक राज्य के पास "यूसीसी" का अपना अलग संस्करण है तो वास्तव में संविधान अनुच्छेद 44 के तहत इसी की परिकल्पना की गई है.

हालांकि संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची के तहत राज्यों को यह अधिकार है कि वे अपने पारिवारिक और व्यक्तिगत कानून बना सकते हैं, लेकिन यह कहना पूरी तरह से विरोधाभासी होगा कि ऐसे कानून अनुच्छेद 44 पर खरे उतरते हैं.

जैसा भी हो, शादी और लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े प्रावधानों को देखते हुए यह समझा जा सकता है कि उत्तराखंड यूसीसी कोई गंभीर और सुधारवादी कानून नहीं है. इसकी बजाय यह ‘एकरूपता, समानता’ के नाम पर व्यक्तिगत आजादी पर लगाम कसने की एक अड़ियल कोशिश है.

(आलोक प्रसन्न कुमार बेंगलुरू में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो हैं. वह कैंपेन ऑफ ज्यूडीशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स की एग्जीक्यूटिव कमिटी के सदस्य भी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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