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राजनीति में हफ्ते भर का वक्त भी काफी लंबा होता है! पिछले 7 दिनों में ये कहावत कितनी सच साबित हुई है. सोमवार को प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात के किले में दरार पड़ी तो गुरुवार को 1.76 लाख करोड़ के 2जी ‘स्कैम’ में आए फैसले ने मुश्किलें बढ़ा दीं. इसके बाद शनिवार को लालू यादव को चारा घोटाले के दूसरे केस में दोषी ठहराया गया और रविवार को कभी अम्मा जयललिता के लिए ‘अछूत’ रहे टीटीवी दिनाकरन ने पुराने सहयोगियों और बदले की नीयत से काम कर रही केंद्र सरकार को हरा दिया. इसके साथ ही उन्होंने अम्मा की विरासत पर दावा भी कर दिया.
मैं लगातार कह रहा था कि गुजरात में बीजेपी दोहरे अंकों में सिमट कर रह जाएगी, लेकिन मेरे सहकर्मियों को इस पर ऐतबार नहीं था. वैसे भी कोई अपने बॉस को गलत नहीं कहता. गुजरात में बीजेपी को 99 सीटें मिलने के बाद न्यूजरूम में मेरी लोकप्रियता बढ़ गई और मुझे हीरो बताया जाने लगा.
(गुजरात चुनाव पर मैंने एक शर्त ऐसी भी जीती है, जिसमें मैं अपनी पसंद का 40 साल पुराना सिंगल माल्ट मांग सकता हूं. मैंने अभी तक इसके लिए ब्रांड फाइनल नहीं किया है. अगर आपके पास कुछ सुझाव हों तो मुझे जरूर भेजिएगा.)
गुजरात की बाजी जीतने के बाद अपनी जुआरी वाली किस्मत मैंने चेन्नई के सहकर्मियों के साथ आजमाने का फैसला किया (इनमें बेहद प्रतिभाशाली स्मिता ठाकुर और विक्की वेंकटेश्वरन शामिल हैं.) अगली एडिटोरियल मीटिंग में मेरी उनके साथ कुछ ऐसी बातचीत हुई:
मैं: ‘मुझे लगता है कि टीटीवी आरके नगर उपचुनाव जीतेंगे क्योंकि भारतीय मतदाता समझदार और भावुक हैं. वे अक्सर अंडरडॉग को जीतते हुए देखना चाहते हैं. खासतौर पर तब जब उसे परेशान किया जा रहा हो.’
स्मिता/विक्की: ‘नहीं सर, वोटर बस दो पत्ती वाला चुनाव चिन्ह दबाने वाले हैं. ईपीएस/ओपीएस के कैंडिडेट को जीत मिलेगी. अम्मा समर्थकों के लिए सिर्फ चुनाव चिन्ह मायने रखता है.’
मैं उनके तर्क से सहमत नहीं था, लेकिन चुप हो गया. मुझे लगता है कि ‘हम अंग्रेजी वाले’ कम पढ़े-लिखे भारतीय वोटरों की समझदारी को स्वीकार नहीं कर पाते, जो कई बार खुद को चुनावी पंडितों से भी अधिक स्मार्ट साबित कर चुके हैं. यह मुझे ऐसा ही मामला लगा था, लेकिन तमिल राजनीति की समझ नहीं होने की वजह से मैंने उनके आगे हथियार डाल दिए.
18 दिसंबर वाले हफ्ते में मोदी और शाह के लिए कई मैसेज हैं.
अगर गुजरात ने दिखाया कि प्रधानमंत्री मोदी अजेय नहीं हैं तो उसने यह भी साबित किया कि राहुल गांधी के इलेक्टोरल ग्राफ ने ‘करवट’ ले ली है. लोग उन्हें अच्छी नीयत वाला शख्स मानने लगे हैं. एक ऐसा अंडरडॉग, जिसके साथ अन्याय हो रहा है. गुजरात के नतीजे ने दिखा भी दिया कि यह घातक हो सकता है.
प्रधानमंत्री को 1977 में शाह कमीशन वाले दौर को याद करना चाहिए. जनता ने तब इंदिरा गांधी को इमरजेंसी की सजा दी थी और लोकसभा चुनाव में उन्हें जबरदस्त तरीके से हराया था. उन्हें उम्मीद थी कि जनता सरकार देश के जख्मों पर मरहम लगाएगी.
इसके बजाय, जनता पार्टी की सरकार ने शाह कमीशन बिठा दिया, जिसका काम इंदिरा को तंग करना था. इंदिरा को उसके बाद जिस तरह से निशाना बनाया गया, वह लोगों को रास नहीं आया. आखिर, वह कभी दुर्गा रही थीं, जिन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, बांग्लादेश को आजादी दिलाई थी, गरीबों के लिए योजनाएं लॉन्च की थीं और परमाणु परीक्षण किया था.
फिर उनके साथ आम अपराधी जैसा सलूक क्यों हो रहा था? धीरे-धीरे इंदिरा के पॉलिटिकल ग्राफ ने करवट ली. लोग उन्हें अंडरडॉग के तौर पर देखने लगे और उसके बाद जो हुआ, वह इतिहास है. 3 साल के अंदर इंदिरा की सत्ता में जोरदार वापसी हुई.
शायद अलग अंदाज में आज भी कुछ वैसा ही हो रहा है.
(जैसा कि कुछ बीजेपी का हित चाहने वालों ने बताया, अटल बिहारी वाजपेयी और एल के आडवाणी भी चुनाव हारने के बाद फिल्म देखने जाते थे. इसलिए जब बीजेपी के प्रवक्ताओं ने राहुल गांधी का फिल्म देखने के लिए मजाक बनाया तो उन्होंने राहुल को बीजेपी के सबसे बड़े नेताओं के बराबर ला खड़ा किया.)
नेहरू, इंदिरा और राजीव की आलोचना से लोगों को ऐतराज नहीं है, लेकिन उन्हें अपमानित किया जाना उन्हें पसंद नहीं.
परिवारवाद को लेकर राहुल के बारे में जो बातें कही जाती हैं, उनमें से कई लिखे जाने लायक नहीं हैं. लोग उनसे नफरत नहीं करते. यहां तक कि नेहरू के आलोचक भी मानते हैं कि वह आधुनिक भारत के निर्माता हैं. इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के लिए आलोचना होती है, लेकिन उनके चाहने वालों की भी कमी नहीं है.
जब राहुल यह कहते हैं कि वह अपनी भाषा का स्तर नहीं गिरा सकते तो मध्य वर्ग को यह बात अच्छी लगती है. सोशल मीडिया, पॉजिटिव मीडिया कमेंट्री और पान दुकानों पर होने वाली चर्चा से भी लग रहा है कि राहुल की करवट बदल रही है. गुजरात का नतीजा तो हम सबके सामने है ही.
तेजस्वी और लालू यादव के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. 2015 में लालू ने ऐसी बाजी जीती थी, जो अब उनसे छीन ली गई है. लोग उन्हें विक्टिम की तरह देख रहे हैं, जो डबल क्राॅस का शिकार हुआ.
मैं गलत हो सकता हूं, लेकिन मुझे लगता है कि उन्हें भी बिहार में अंडरडॉग की छवि का फायदा मिल सकता है.
सावधान हो जाइए प्रधानमंत्री जी, राजनीति में अपमानित किए जाने वाले अंडरडॉग की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है.
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Published: 24 Dec 2017,08:53 PM IST