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बीजेपी की एक बड़ी समस्या यह है कि उसके पास आर्थिक विचारक नहीं हैं. जो सामान्य अर्थशास्त्रियों से अलग होते हैं. इसलिए उसे वेल्थ (संपत्ति) और वैल्यू की समझ नहीं है, जो रुपये-पैसों से अलग चीज है. बीजेपी को इसका भी इल्म नहीं है कि आधुनिक समाज में वेल्थ और वैल्यू कैसे क्रिएट की जाती है.
दो वजहों से यह समस्या बड़ी हो जाती है. पहली, बीजेपी देश में बहुसंख्यकवाद समाजिक दर्शन की अगुवा बनकर उभरी है. इस दर्शन की सोच संकीर्ण यानी सीमित है. इसीलिए इससे सामाजिक उथलपुथल मची है.
यह भी लग रहा है कि आने वाले कुछ दशकों तक राजनीति में इस दर्शन का दबदबा बना रहेगा. दूसरी, जब संपत्ति को लेकर सोच संकीर्ण हो, तब आप उसे सिर्फ रुपया-पैसा मानते हैं. आपको लगता है कि इसका दोहन करना चाहिए, न कि इसे बढ़ावा देना चाहिए. निर्मला सीतारमण के पहले बजट से यह बात साबित हो गई है, लेकिन ऐसा करने वाली वह पहली वित्त मंत्री नहीं हैं.
पहले वह हेरल्ड लास्की जैसे लोगों से प्रभावित रही और उसके बाद दो दशक तक उसमें राजनीतिक मजबूरियों के मुताबिक बदलाव किए जाते रहे. बीजेपी में संपत्ति समर्थक लास्की जैसा कोई नहीं है और इसी वजह से उसने इंदिरा गांधी के 1970 में देश पर थोपे गए वर्जन को नए रूप में अपनाया है.
इसलिए बीजेपी को इस सवाल का जवाब ढूंढना होगा- क्या आप देश की राजनीति को नियंत्रित करने वाले सामाजिक दर्शन को बदलने के बाद आर्थिक दर्शन को यूं ही छोड़ सकते हैं? आपका आर्थिक दर्शन 1970 के दशक के इंदिरा गांधी के समाजवाद की कॉपी क्यों है?
राजनीतिक ताकत के शीर्ष पर पहुंची बीजेपी ने अभी तक इस समस्या पर व्यवस्थित तरीके से सोचना तक शुरू नहीं किया है. मुझे लगा था कि बिबेक देबरॉय इस मामले में पार्टी के शीर्ष विचारक बनेंगे, जो इसके लिए योग्य शख्स हैं. हालांकि, उन्होंने एक अजीब तरह की खामोशी ओढ़ ली है. नीति आयोग के ताकतवर बॉस राजीव कुमार ने भी इस जिम्मेदारी को लेने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है.
हालांकि, उसके साथ काम करने वाले कई अर्थशास्त्रियों की सोच इस मामले में उससे अलग थी. इनमें से कुछ से मुझे आर्थिक नीतियों को समझने-सीखने का सौभाग्य भी मिला, लेकिन वे कांग्रेस पार्टी की सोच को बदल नहीं पाए. 1970 के दशक में जब कांग्रेस ने समाजवाद का चोला ओढ़ा, तब वे धीरे-धीरे पीछे छूटते गए और उनकी जगह ‘बहरूपियों’, दरबारियों और प्रशंसकों ने ले ली. ऐसे ही एक प्रशंसक प्रधानमंत्री भी बन गए. जब वह वित्त मंत्री थे, तब उन्होंने चीजों को बदलने की कोशिश की थी. हालांकि, प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इस मामले में हार मान ली.
नरेंद्र मोदी जब कांग्रेस की विरासत की बात करते हैं, तब वह इस सबसे महत्वपूर्ण पहलू को भूल जाते हैं. किसी भी राजनीतिक पार्टी के बारे में यह बात काफी अहमियत रखती है कि वह वेल्थ यानी संपत्ति और वेल्थ क्रिएशन के बारे में क्या सोचती है. युवा कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम बिहेवियरल इकनॉमिक्स और नज थ्योरी (पसंद या चयन को प्रभावित करने वाला सिद्धांत) की शानदार समझ रखते हैं, लेकिन वह गलत लोगों को ज्ञान दे रहे हैं. उन्हें इस थ्योरी को बीजेपी पर आजमाना चाहिए, जिसे इसकी सख्त जरूरत है.
यूरोपीय देशों का अमीर बनना और दुनिया पर 500 वर्षों तक राज करना संयोग नहीं है. उन्होंने वेल्थ और वैल्यू, वेल्थ क्रिएशन पर काफी सोच-विचार किया था. उन्हें पता था कि संपत्ति को बचाकर रखना जरूरी है, न कि उसे बर्बाद किया जाना चाहिए.
हालांकि, वामपंथियों को छोड़ दें तो इनमें से कोई सिद्धांत हमारे राजनीतिक दलों के पास तक नहीं फटक सका है. न ही इन दलों ने अपने सिद्धांत गढ़ने की कोशिश की.
इसलिए वे धर्म और जाति में उलझकर रह गए. विडंबना देखिए कि चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों को संपत्ति बढ़ाने का वादा करना पड़ता है, लेकिन जब सत्ता मिल जाती है तो ये उसे बर्बाद करने में जुट जाते हैं. इसलिए मैं उनसे यह सवाल पूछ रहा हूं कि जब आपको संपत्ति के बारे में कुछ पता ही नहीं है तो उसे बढ़ाएंगे कैसे?
बीजेपी ने कई राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में सफलता पाई है, लेकिन जब तक वह इस बौद्धिक चुनौती का हल नहीं निकाल पाती, मुझे डर है कि वह एक अधूरी पार्टी बनी रहेगी.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 22 Jul 2019,10:45 PM IST