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अमेरिकी फेमिनिस्ट लीगल स्कॉलर जोआन सी. विलियम्स ने जिसे मेटरनल वॉल कहा है, वह दीवार जब-तब दिखाई देने लगती है. फिलहाल वह मेटरनल नहीं, फेमिनिन वॉल बनी नजर आई है. पुणे जिला अदालत ने महिला वकीलों को कोर्ट रूम में अपने बाल ‘फिक्स’ न करने की हिदायत दी, और फिर हंगामा मचने के बाद वह सर्कुलर वापस ले लिया. यह फेमिनिन वॉल है, यानी औरत होने के चलते भेदभाव. ऐसी चेतावनी पुरुष एडवोकेट्स को नहीं दी गई. क्योंकि उनके बाल फिक्स करने से ‘न्यायिक प्रक्रिया में’ कोई ‘रुकावट नहीं’ आती. ऐसा ही एक फैसला बॉम्बे हाई कोर्ट ने उस महिला याचिकाकर्ता को भी सुनाया जिसने घर काम को मानसिक और मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न बताया था.
यूं ऐसे सर्कुलर और निर्देश कोई नई बात नहीं. विलियम्स ने जिस मेटरवल वॉल का जिक्र किया, उसका नजारा अक्सर देखने को मिलता है. यानी बच्चों वाली माताओं और प्रेग्नेंट औरतों के साथ भेदभाव होना आम बात है. इसी साल जून में इंडियन बैंक ने अपने हायरिंग गाइडलाइन्स में साफ कहा था कि वह 12 हफ्ते की प्रेग्नेंट औरतों को नौकरी नहीं देगा, क्योंकि "वे अस्थायी रूप से अनफिट होती हैं."
साल की शुरुआत में एसबीआई का भी ऐसा ही फरमान आया था. एसबीआई यानी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने भी तीन महीने से ज्यादा की प्रेग्नेंट औरतों को नौकरियां न देने वाला सर्कुलर जारी किया था पर शोर मचने के बाद उसे स्थगित (रद्द नहीं) कर दिया था. उस समय दिल्ली महिला आयोग ने यह मुद्दा उठाया था, और बैंकों को सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 की भी याद दिलाई थी, जो लिंग के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करती है, चूंकि यह व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन करता है.
ऐसा ही एक मामला पिछले साल सरकारी एयर इंडिया के संबंध में भी उठा था. तब इंडियन कमर्शियल पायलट्स एसोसिएशन ने यह कहा था कि मेटरनिटी लीव लेने वाली महिला पायलट्स के नाम कंपनी की अपग्रेडेशन लिस्ट में या तो शामिल नहीं किए जाते, या गलत स्पेलिंग के साथ शामिल किए जाते हैं. इससे उन्हें एलटीसी जैसे सेवा लाभ लेने में दिक्कत होती है और उनकी सीनियॉरिटी पर असर होता है.
यूं एयर इंडिया का इतिहास काफी बदनाम रहा है. महिला फ्लाइट अटेंडेंट्स को 35 साल की उम्र में रिटायर करने से लेकर, चेहरे पर पिंपल या दाग के कारण उन्हें नौकरी न देना, जैसे दर्जनों उदाहरण हैं. 2009 में तो 10 महिला फ्लाइट अटेंडेंट्स को सिर्फ इसलिए नौकरी नहीं मिली थी क्योंकि वे “इतनी मोटी थीं कि उड़ान भरने लायक नहीं थीं.” अब यह कहने की क्या ही जरूरत है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 19 और 21 का साफ-साफ उल्लंघन है.
जिसे संस्थागत भेदभाव का औपचारिकरण कहा जा सकता है, उसकी कितनी ही मिसालें हैं. पिछले ही साल आंध्र प्रदेश के राज्य सड़क परिवहन निगम ने ब्रेड विनर स्कीम के तहत अनुकंपा नियुक्ति (कंपैशनेट अप्वाइंटमेंट) के लिए शादीशुदा बेटियों को नौकरी न देने बात कही थी. मतलब, अगर किसी पिता की मृत्यु की स्थिति में परिजनों को नौकरी देने की बात आती है, तो शादीशुदा बेटियां इसकी पात्र नहीं होंगी. फिर दूसरे सर्कुलर में निगम ने कुछ नौकरियों, जैसे मैकेनिक, श्रमिक और चार्जमैन के पदों के लिए औरतों को न रखने का फैसला किया था. बाद में हाई कोर्ट ने इन दोनों फैसलों को रद्द कर दिया था.
श्रम और पूंजी बाजार में जब एक जैसी क्षमताओं वाले लोगों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया जाने लगता है तो एक बड़ा तबका रोजगार बाजार से ही बाहर हो जाता है. ऑक्सफैम की 2022 की डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट बताती है कि देश के शहरी इलाकों में वेतनयाफ्ता पुरुषों और महिलाओं के बीच भेदभाव के कारण ही 98% रोजगार अंतराल होता है.
रोजगार अंतराल वह अवधि होती है, जब अपने पेशेवर करियर में आपके पास औपचारिक रोजगार नहीं होता. ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक, सामाजिक और जेंडर आधारित भेदभाव के कारण ही रोजगार अंतराल होता है.
यूं भेदभाव के बीज बचपन से ही पड़ने लगते हैं. 2017 में लिन बियान की एक स्टडी साइंस जरनल में छपी थी जिसमें कहा गया था कि जेंडर स्टीरियोटाइपिंग लड़कियों में तब से शुरू हो जाती है, जब वे छह साल की होती हैं. उन्हें लगने लगता है कि लड़के उनके मुकाबले ज्यादा स्मार्ट होते हैं. हां, चार पांच साल तक के बच्चों को लगता है कि उनका जेंडर ज्यादा स्मार्ट है, पर धीरे-धीरे उनमें हीन भावना पैदा होने लगती है. और इसकी वजह माता-पिता, टीवी पर दिखने वाले और सड़कों पर चिपके विज्ञापन, फिल्म और टीवी शो होते हैं. इसी के चलते बड़े होने पर कई बार औरतें खुद ही कमतर महसूस करने लगती हैं.
जैसा कि 2018 की एक स्टडी जस्टिफाइंग जेंडर डिस्क्रिमिनेशन इन द वर्कप्लेस में 18 देशों के 50 हजार लोगों की राय में औरतें एक अच्छी पेरेंट और एक अच्छी वर्कर, एक साथ नहीं हो सकतीं. चूंकि यह माना जाता है कि औरतों का पहला काम, घर और बच्चों को संभालना है.
पर क्या जेंडर स्टीरियोटाइपिंग सिर्फ औरतों को लेकर है? मेल जेंडर के अलावा, बाकी सभी जेंडर्स को लेकर ऐसा ही सोचा जाता है. एलजीबीटीक्यूआईए प्लस लोगों के लिए तो रास्ता और भी मुश्किल है. इसी साल अगस्त में यह खबर आई थी कि नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) ने ट्रांसजेंडर पायलट एडम हैरी को जेंडर डिसफोरिया और हार्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी के आधार पर फ्लाइंग लाइसेंस देने से इनकार कर दिया था. जेंडर डिसफोरिया ऐसी स्थिति है, जिसमें लोगों को लगता है कि उनका शरीर वह नहीं है, जो होना चाहिए.
यानी कोई लड़का यह महसूस कर सकता है कि उसे दरअसल लड़की होना चाहिए या कोई लड़की यह सोच सकती है कि उसे तो असल में लड़का होना चाहिए. इसके बाद डीजीसीए ट्रांसजेंडर पायलट्स पर एक नीति पर काम कर रहा है. फिलहाल उसने आवेदकों के एयरोमेडिकल आकलन के लिए मेडिकल परीक्षकों को दिशानिर्देश जारी किए हैं. वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांसजेंडर हेल्थ (डब्ल्यूपीएटीएच) मानकों के अनुसार मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिक आवेदकों का एक मानसिक स्वास्थ्य परीक्षण भी करेंगे. एडम हैरी या किसी दूसरे ट्रांसजेंडर आवेदक को इसका कितना फायदा होगा, इसका अंदाजा लगाना अभी मुश्किल है.
जब संस्थानों में पूर्वाग्रह से भरी नीतियां बनाई जाने लगें, जिससे किसी एक या दो समूहों को संसाधनों और अवसरों से महरूम कर दिया जाए. ऐसा भेदभाव, अनौपचारिक तरीके से किए जाने वाले भेदभाव से फर्क होता है, लेकिन उसी से जन्म लेता है. ऐसा भेदभाव वह रुकावट है, जो एक समाज का निर्माण नहीं होने देती.
देश बनकर भी नहीं बन पाता क्योंकि हम एक दूसरे के प्रति जवाबदेह नहीं होते. चूंकि भेदभाव का जिम्मेदार सत्ता के शीर्ष पर बैठा होता है. भेदभाव को रोकने का सबसे ज्यादा, सबसे ताकतवर और कारगर हथियार भी उसी के पास है. लेकिन जब यह उसी की तरफ से किया जाने लगे, तो कौन किससे सवाल करेगा! फिलहाल पुणे की अदालत में बार एसोसिएशन ने सर्कुलर वापस लेकर साबित किया है कि उसमें खुद को दुरुस्त करने की इच्छा भी है, और ताकत भी. लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट?
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