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अंतरराष्ट्रीय बाल मजदूरी निषेध दिवस, यानी 12 जून के दिन अगर आपको 12 साल की जमालो मड़कामी की याद न आए तो सारी स्मृतियों को धो डालिए. अभी 18 अप्रैल को तेलंगाना से चलते हुए बीजापुर पहुंचने की कोशिश में उसने दम तोड़ा है. तेलंगाना में मिर्ची चुनने के काम में छत्तीसगढ़ के मजदूर लगाए जाते हैं. जमालो दो महीने पहले अपने गांव आंदेड़ से तेलंगाना पहुंची थी. लॉकडाउन के बाद वापसी के लिए कोई साधन नहीं था. पैदल चलते चलते भूख प्यास से जमालो की सांस अपने गांव से महज 11 किलोमीटर पहले उखड़ गई थी. कोविड-19 के दौरान मजदूरों की दुर्दशा के बीच जमालो की मौत एक सवाल और पूछती है- आखिर 12 साल के बच्चों को मजदूरी करनी ही क्यों पड़ती है?
यूं भारत क्या, दुनिया भर के बहुत से देशों में बच्चों से काम करवाया जाता है. किसी भी पसंदीदा चीज का नाम लीजिए, शायद उसे बच्चों ने ही बनाया हो. जैसे चॉकलेट, उसका 60% हिस्सा कोकोआ होता है, जिसे आइवरी कोस्ट और घाना में उगाया जाता है. और वहां बच्चे बड़े पैमाने पर काम करते हैं. उनके लिए अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के कनवेंशंस भी मौजूद हैं.
अमेरिका स्थित यूसीएलए फील्डिंग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के वर्ल्ड पॉलिसी एनालिसिस सेंटर की स्टडी से पता चलता है कि नाइजीरिया और इंडोनेशिया जैसे 41 देश 18 साल से कम उम्र के बच्चों को खतरनाक उद्योगों में काम करने से नहीं रोकते. 47 देशों में काम करने की न्यूनतम कानूनी उम्र 15 साल से कम है. 41 देशों में 14 साल की उम्र के बच्चे रोजाना छह से अधिक घंटों तक काम करते हैं. 84 देश इस बात की कोई कानूनी गारंटी नहीं देते कि 16 साल के किशोर मजदूरों को कम से कम 12 घंटे का आराम मिले ताकि वे पढ़ सकें या सो सकें.
बाकी देशों के बारे में बताने का यह मायने कतई नहीं कि भारत में बाल मजदूरों की हालत कुछ बेहतर है. हमारे यहां बाल मजदूरी को रोकने के कानून होने के बावजूद जमालो जैसे बच्चे घर-बार छोड़कर दूसरी जगहों पर काम करने को विवश हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार, हमारे देश में 5 से 14 साल के एक करोड़ से ज्यादा बच्चे काम करते हैं.
यूं श्रम कानून 15 साल से कम उम्र के बच्चों के रोजगार करने पर पाबंदी लगाते हैं, लेकिन बच्चों को स्कूली घंटों के बाद पारिवारिक कारोबार में मदद देने की अनुमति है. इस प्रावधान का इस्तेमाल करके बच्चों का शोषण किया जाता है.
भारत में करोड़ों बच्चे मजदूरी कर रहे हैं, पर उनसे जुड़े आंकड़े कोविड-19 से पहले के हैं. इस महामारी के बाद स्थिति बदतर होने वाली है. सर्वोच्च न्यायालय भी हाल ही में इस पर अपनी चिंता जाहिर कर चुका है.
भारत का 90% श्रमबल अनौपचारिक क्षेत्र में काम करता है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के सर्वे में कहा गया है कि कोविड-19 ने शहरी बेरोजगारी दर को 30.9% कर दिया है. अनुमान है कि अनौपचारिक क्षेत्र के 40 करोड़ मजदूरों को आने वाले समय में अपनी जीविका वापस नहीं मिलेगी. इन लोगों के पास और क्या विकल्प बचेगा कि वे बच्चों को काम पर न भेजें. किसानों और खेतिहर मजदूरों के बच्चों की हालत और खराब होगी. चूंकि सरकार लगातार हर जगह सोशल डिस्टेंसिंग की बात कर रही है- कटाई और बाजार में उपज को बेचने जैसे कामों में ज्यादा लोग नहीं लगाए जा सकते. ऐसे में बच्चे ही अपने परिवार वालों की मदद करने को बचेंगे.
इसके अलावा परिवार में माता-पिता के कोविड-19 के शिकार होने और स्कूल बंद होने के बाद बच्चे और भी संवेदनशील स्थिति में आ रहे हैं. यूनेस्को कह चुका है कि भारत में लगभग 32 करोड़ लर्नर्स यानी शिक्षा ग्रहण करने वाले प्रभावित हुए हैं. ऑनलाइन पढ़ाई का उनके लोगों के लिए क्या मायने जिनके पास इंटरनेट कनेक्शन और स्मार्टफोन नहीं- चूंकि यहां दो वक्त की रोटी जुटानी मुश्किल हो रही है. इन परिस्थितियों में बच्चों को बाल श्रम में धकेल दिया जाएगा.
हमारे देश में बच्चों के काम करने की कानूनी उम्र 15 से 18 वर्ष है. पर इन बच्चों को भी कई खतरनाक कामों में नहीं लगाया जा सकता. पहले कानून में खतरनाक कामों की सूची लंबी थी. इसमें 83 तरह के काम आते थे. 2016 में बाल मजदूरी संशोधन अधिनियम ने इस सूची को काट छांट कर सिर्फ 3 तरह के काम को खतरनाक बताया. ये हैं खनन, विस्फोटक और कारखाना अधिनियम में मौजूद कामकाज. फिर भी जितने बच्चे भारत में मजदूरी कर रहे हैं, उनमें से 60% से ज्यादा खतरनाक उद्योगों में काम कर रहे हैं.
चूंकि श्रम कानूनों में बदलाव किए गए हैं और रोजाना काम के घंटों को बढ़ाकर 12 घंटे किया गया है, इसका मायने यह है कि बच्चों को कम मजदूरी पर लंबे घंटों तक काम करना पड़ेगा.
यूनिसेफ कहता है कि बाल मजदूरी को रोकने के लिए सामाजिक संरक्षण बहुत जरूरी है. बाल मजदूरी अकेले कोई एक समस्या नहीं है. परिवार में गरीबी बढ़ती है तो सभी प्रभावित होते हैं- बच्चे भी उसी परिवार का हिस्सा होते हैं. विश्व बैंक की 2014 की कैश ट्रांसफर एंड चाइल्ड लेबर रिपोर्ट कहती है कि गरीब परिवारों को नकद मिलने से बच्चों पर दबाव कम होता है. इस रिपोर्ट को आईएलओ के अध्ययनों के साथ तैयार किया गया था. जैसे कोलंबिया में परिवार में पिता के न होने पर बच्चों के मजदूरी करने की आशंका बढ़ी तो नकद हस्तांतरणों ने इसे रोकने में काफी मदद की.
सामाजिक संरक्षण के बहुत मायने हैं. मुफ्त राशन, आश्रय, मुफ्त चिकित्सा, और दूसरे सामाजिक लाभ और कर छूट बहुत जरूरी है. लेकिन सबसे जरूरी यह है कि सुधार सिर्फ कागजी न हों, लोगों को मिलें भी. साथ ही कानूनों का पालन भी कड़ाई से हो. लेकिन जब सरकारें मजदूरों को कमजोर करने के लिए कानूनी उपाय कर रही हों तो बाल मजदूरों पर आंसू बहाना कोई ईमानदारी नहीं होगी. यूं भी मजदूर सिर्फ देश की आर्थिक संपदा का निर्माण करने के लिए उपयोगी माने जाते हैं. बाल मजदूरी भी उसी का एक अदृश्य हिस्सा है.
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Published: 12 Jun 2020,09:04 AM IST