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World Press freedom day: कर्नाटक का एक 19 वर्षीय मुस्लिम दोस्त अपने माता-पिता को इस बात के लिए मनाने की कोशिश कर रहा है कि वे उसे पत्रकारिता में करियर बनाने की अनुमति दे दें. दरअसल वह 19 वर्षीय युवा दोस्त राज्य में अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले हेट क्राइम्स का दस्तावेजीकरण करता है. ऐसे में उसके माता-पिता इसलिए उसके आग्रह को मानने से इनकार कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि आजकल पत्रकारिता में करियर उसके लिए बहुत खतरनाक है.
जहां एक ओर मैं अपने युवा दोस्त के जोश और साहस की तारीफ करता हूं, वहीं दूसरी ओर उसके माता-पिता की चिंताएं भी अपनी जगह जायज हैं. क्योंकि 2022 के भारत में पत्रकारिता का पेशा वाकई में एक कठिन और जोखिम भरा प्रोफेशन है. निश्चित तौर पर मुस्लिम नामों वाले पत्रकारों के लिए मानवाधिकारों और मुस्लिम समुदाय पर लगातार होने वाले हमलों की बढ़ती संख्या के बारे में लिखना ज्यादा चुनौतीपूर्ण और कठिन काम है.
इस बारे में अनुमान लगाने के लिए कोई बड़ी रिसर्च या मेहनत करने की जरूरत नहीं कि भारत में एक मुस्लिम रिपोर्टर होना कैसा होता है, जिसका हर दिन का काम अपने समुदाय के खिलाफ नफरत और रोजमर्रा के हिंसक फुटेज की छानबीन करना और उनसे होकर गुजरना है. जो उन नफरत फैलाने वाले आरोपियों और अपराधियों के बारे में लिखता है जिन्हें कानून द्वारा नजरअंदाज किया गया हो. इसके साथ ही वह उन पर भी लिखता है जो बेगुनाह हैं लेकिन कठोर कानूनों के तहत जेल में बंद हैं.
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए मेरे दोस्त के माता-पिता अपनी बात पर अडिग हैं. उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरा दोस्त उनसे कितनी मिन्नतें करता है और उन्हें समझाने का कितना प्रयास करता है.
हो सकता है कि मेरे दोस्त के माता-पिता इस बात से अवगत हों कि कैसे सिद्दीकी कप्पन या फहद शाह जैसे पत्रकार को अन्यायपूर्वक जेल में बंद किया गया.
कप्पन वही पत्रकार हैं जिन्हें हाथरस गैंपरेप और एक दलित महिला की हत्या के मामले को कवर करने के लिए गिरफ्तार किया गया. कप्पन ने यूएपीए के तहत 1.5 साल से अधिक समय जेल में बिताया है जबकि एक ठीक ढंग से ट्रायल होना अभी बाकी है.
अगर बात करें फहद शाह कि तो उन्हें दो मामलों में जमानत तो मिल गई लेकिन उन पर PSA के तहत कठोर कार्रवाई की गई. जिसकी वजह से उन्हें निष्पक्ष सुनवाई के बिना अनिश्चित काल के लिए अतिरिक्त न्यायिक हिरासत में रखा जा सकता है. ये सब तब हुआ जब फहद तीसरे मामले की सुनवाई का इंतजार कर रहे थे.
इस समय जब शारीरिक हमले भयावह होते जा रहे हैं, लगातार ट्रोलिंग हो रही है, मारने की धमकी दी जा रही है और संगठित होकर परेशान करने का अभियान भी नई सामान्य बातें हो गई हैं. ऐसे में पत्रकारों के लिए अपनी रिपोर्ट में मानवीय त्रुटि या टाइपो जैसी छोटी गलती भी मुसीबत बन सकती है.
यह सब अंधेरे में या शून्य में नहीं हो रहा है और आप भले ही किसी भी तरह से इन हमलों को झेल लें लेकिन आपकी पहचान के खिलाफ अकल्पनीय नफरत आपपर असर डालती ही है.
टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकार अखलाद खान का 13 अप्रैल, 2022 को निधन हो गया. अखलाद एक दोस्त होने के साथ-साथ साथी रिपोर्टर भी थे, जो हेट क्राइम को कवर करते थे. इस दुनिया को अलविदा कहने से तीन दिन पहले उन्होंने मुझे सलाह दी थी कि मैं अपने मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल करूं. दरअसल मुसलमानों के खिलाफ होने वाली हिंसा को लेकर जो डॉक्यूमेंटेशन होता है उसको लेकर मैंने एक लंबा-चौड़ा आक्रोश भरा पोस्ट लिखा था, जिसे देखने के बाद उन्होंने मुझे यह सलाह दी थी.
अखलाद और कर्नाटक के मेरे युवा दोस्त की तरह ही अधिकांश मुस्लिम पत्रकार जो कर रहे हैं वह सिर्फ एक बाइलाइन के अलावा कुछ और के लिए कर रहे हैं. जो मुस्लिम पत्रकार प्रतिदिन मुस्लिम विरोधी हिंसा को कवर करते हैं, उनके पास खुद को हिंसा से अलग करने का विशेषाधिकार नहीं है. इस हिंसा का असर उनके शरीर पर पड़ रहा है. बाइलाइन के बदले उनकी आत्मा कुचली जा रही है.
हर समय कोई भी इतनी नफरत नहीं देख सकता है. आखिर वो इंसान हैं, रोबोट नहीं. उनकी भी सीमा है. इस स्थिति के खिलाफ लड़ना मुश्किल होता है और एक निश्चित सीमा के बाद आप काफी निराशा और गुस्सा महसूस करते हैं. लेकिन यदि आप ब्रेक लेते हैं, तो इन वीडियो का वेरीफिकेशन और डॉक्यूमेंटेशन करने के लिए अक्सर बहुत कम बैकएंड सपोर्ट होता है.
इन पत्रकारों द्वारा मुस्लिम विरोधी हिंसा के बारे में लगातार लिखना भारत में इस्लामोफोबिया के इर्द-गिर्द होने वाली चर्चा को मुख्यधारा में लाने का एक सफल प्रयास है. बजरंग मुनि जैसे लोगों की गिरफ्तारी हो या धर्म संसद के जरिए नफरत फैलाने वालों की, हमें यह बात स्वीकार करना चाहिए कि यह इन युवा मुस्लिम पत्रकारों और उनके सहयोगियों के काम की वजह से पुलिस को अपना काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा. जबकि मुख्यधारा के मीडिया द्वारा इस हिंसा को दूर से देखा गया या इसे कवर-अप करने का काम किया गया था. अक्सर, मुस्लिम पत्रकारों और उनके सहयोगियों के इस बढ़ते हुए ग्रुप या समूहों के प्रयासों के कारण ही मुस्लिम विरोधी प्रोपेगेंडा उजागर हो जाता है और हिंसा को चुनौती नहीं मिलती है.
इसके बावजूद, उन्हें अक्सर हिंसा के इन कृत्यों को अनदेखा करने के लिए कहा जाता है क्योंकि कुछ नेक इरादे वाले लोगों का मानना है कि इस तरह की कहानियां BJP की मदद करती हैं और दक्षिणपंथ को अपना मैसेज प्रसारित करने में मदद मिलती है. उन्हें लगता है कि मुसलमानों को बड़े हितों की पूर्ति के लिए चुप रहना चाहिए. रिपोर्ताज ने मुस्लिम पीड़ितों को अर्थव्यवस्था की मंदी या पेट्रोल की बढ़ती कीमतों के लिए कोलैटरल के रूप में मानने से साफ इनकार कर दिया है. हिंसा के इन कृत्यों को जिन्होंने मामूली करार दिया उन लोगों को तथ्यों से चुप करा दिया गया है.
नफरत पर लगातार हो रही रिपोर्टिंग ने 'फ्रिंज को नजरअंदाज' करने के तर्क की हवा निकाल दी है. लगातार आ रही रिपोर्टों से यह निर्णायक तौर पर स्थापित हो गया है कि यह हिंसा मुख्यधारा और चिंताजनक है.
युवा मुस्लिम पत्रकार और उनके सहयोगी इस बात से चिंतित नहीं हैं कि इन वीडियो के बारे में बात करने से दक्षिणपंथियों को मदद मिल रही है या नहीं. एक पत्रकार होने के नाते सच लिखना और सच दिखाना उनका काम और जिम्मेदारी है.
कर्नाटक का मेरा युवा मित्र भी इस काम के जोखिमों और फायदों से वाकिफ है. अपने सोशल मीडिया पर सिर्फ 2 फॉलोअर्स के साथ कुछ महीने पहले तक वह कर्नाटक में बढ़ते इस्लामोफोबिया की ओर अधिक ध्यान आकर्षित करने के लिए देशभर के पत्रकारों को मैसेज कर रहा था. यह कर्नाटक के हिजाब विरोधी और हलाल विरोधी विवाद से पहले हो रहा था.
आखिरकार एक दिन मेरी उससे लंबी चर्चा हुई और उसके बाद कॉल और मैसेज लगातार होने लगे. यह एक क्रूर अहसास है कि अगर अन्य लोग कर्नाटक में घृणा अपराधों के बारे में उतने ही भावुक और गंभीर होते तो शायद वह वो नहीं कर रहा होता जो वह कर रहा है.
मेरा युवा दोस्त अपनी उम्र के अधिकांश लोगों की तरह एक आदर्शवादी है. उसके जैसे युवा मुसलमानों के लिए इस देश में दोस्ती और अपनेपन का नुकसान कितना व्यक्तिगत है, इस तरह की हिंसा को कवर करने और सच्चाई को उजागर करने के लिए उसे इतना जुनूनी बनाती है. हमारे बीच शायद ही कुछ समान हो, सिवाय इसके कि हम चाहते हैं कि दुनिया भारत की बढ़ती मुस्लिम विरोधी कट्टरता और हिंसा को पहचाने, स्वीकार करे और उसकी निंदा करे व विरोध करे.
भारत के वैकल्पिक मीडिया में संरचनात्मक सुधारों के बारे में हमें चर्चा करने की जरूरत है ताकि इसे मुसलमानों के लिए एक बेहतर जगह बनाया जा सके, ऐसे मुसलमान जो हमारे समय के इतिहास को बताने वाली कहानियों को लिखने के लिए अपनी जान को दांव पर लगाने के लिए तैयार हैं.
हम और अधिक अखलादों को खोने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं. हम प्रतिभाशाली युवाओं को यह बताने का जोखिम नहीं उठा सकते कि सच बोलना अपराध है और उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. किसी भी चीज से बढ़कर, तेजी बिखर रहे व बंट रहे इस देश में हमें एक-दूसरे को थामकर रखने की जरूरत है और जो कुछ भी बचा है उसे साझा करने की जरूरत है.
(अलीशान जाफरी नई दिल्ली में स्थित पत्रकार हैं. वो द वायर के हार्टलैंड हेटवॉच प्रोजेक्ट से जुड़े हैं. ये एक ओपिनियन आर्टिकल है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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Published: 03 May 2022,01:26 PM IST