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उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी (BJP) को करारा झटका मिला है. राज्य के कैबिनेट मंत्री और सीनियर दलित नेता यशपाल आर्य (Yashpal Arya) अपने बेटे सहित कांग्रेस (Congress) पार्टी में शामिल हो गए हैं. उनके बेटे संजीव आर्य (Sanjiv Arya) नैनीताल से विधायक हैं.
उत्तराखंड में विधानसभा चुनावों से ऐन पहले आर्य का बीजेपी छोड़ना कोई छोटा मोटा इत्तेफाक नहीं है. यह कांग्रेस के दूसरे नेताओं जैसे हरक सिंह रावत, उमेश कुमार काऊ वगैरह के लिए भी ‘घर वापसी’ का रास्ता खोलता है.
इन नेताओं ने 2016 में मुख्यमंत्री हरीश रावत के खिलाफ बगावत की थी. और, अगर इन नेताओं की ‘घर वापसी’ होती है तो आने वाले दिनों में राज्य में बीजेपी के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है. 2017 में बीजेपी ने इस हिमालयी राज्य पर फतह की थी.
आर्य तीन बार से विधायक हैं और बीजेपी सरकार में परिवहन मंत्री थे. 2016 में जब कांग्रेसी नेताओं ने बगावत की तो आर्य वह आखिरी नेता थे जो अपने बेटे के साथ बीजेपी में शामिल हुए थे.
दिलचस्प यह है कि आर्य वह पहले नेता हैं जिन्होंने कांग्रेस में वापसी की है और यह उनके फैसले के बारे में बहुत कुछ बताता है.
दिल्ली में एआईसीसी के दफ्तर में आर्य और उनका बेटा हरीश रावत की मौजूदगी में कांग्रेस में शामिल हुए. इस छोटी सी सेरमनी में दूसरे सीनियर कांग्रेसी नेता भी मौजूद थे, जैसे कांग्रेस के महासचिव केसी वेणुगोपाल और उत्तराखंड के इन चार्ज देवेंदर यादव.
आर्य ने कांग्रेस पार्टी में शामिल होने को, अपना सबसे ज्यादा खुशी वाला पल बताया. उ्न्होंने कहा कि
वैसे बीजेपी को इशारा मिल चुका था कि आर्य कांग्रेस में लौटने वाले हैं. 25 सितंबर को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी नाश्ता मीटिंग के लिए आर्य के सरकारी आवास पहुंचे थे. लेकिन यह पैंतरा काम नहीं आया और बीजेपी अपने क्षत्रप को बचा नहीं पाई.
आर्य के निर्वाचन क्षेत्र बाज़पुर में सिखों की बड़ी आबादी है जोकि किसान कानूनों के खिलाफ लगातार विरोध जता रहे हैं. आने वाले चुनावों में आर्य को उनकी नाराजगी का सामना करना पड़ सकता था.
पिछले महीने कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने पार्टी की बैठक में कहा था कि वह अपनी जिंदगी में उत्तराखंड में एक दलित मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं.
रावत ने ऐसा तब कहा था, जब कांग्रेस ने पंजाब में एक दलित नेता, चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया था. तभी ऐसा महसूस हो रहा था कि कांग्रेस उत्तराखंड में अपनी किस्मत बदलने के लिए ऐसा ही मॉडल अपनाना चाहती है.
यूपी की ही तरह उत्तराखंड में भी बीएसपी का भी एक मजबूत दलित वोट बैंक है लेकिन वह 13 जिलों की 70 विधानसभा सीटों में बिखरा हुआ है. पर दो जिलों - हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर- की 18 विधानसभा सीटों में दलित वोट गेम चेंजर है.
पिछले कुछ वक्त में बीएसपी का वोट शेयर गिरा है. बीएसपी का वोट प्रतिशत 2002 में 10.2 प्रतिशत से बढ़कर 2012 में 12.2 प्रतिशत हो गया, लेकिन 2017 तक यह घटकर 7 प्रतिशत रह गया.
हरिद्वार जिले की दो सीटों, लक्सर और झबरेड़ा में बीएसपी 2017 के चुनावों में दूसरे नंबर पर थी, इसके बावजूद की राज्य में मोदी की लहर थी. हैरानी नहीं होनी चाहिए कि हरीश रावत ने लक्सर की मीटिंग में यह इच्छा जाहिर की थी कि उत्तराखंड को दलित मुख्यमंत्री मिलना ही चाहिए.
दलित वोटों को रिझाकर पार्टी 7 से 10 प्रतिशत दलित वोटों को हासिल करना चाहती है जो पिछले चुनावों में बीजेपी की झोली में गिर गए थे. 2017 में कांग्रेस का वोट शेयर 33.8 प्रतिशत था और उसे 11 सीटें मिली थीं. 7-10 प्रतिशत वोट इसमें जुड़ गए तो वह मैदानी जिलों की दर्जन भर सीटें जीत सकती है.
देहरादून में बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता अनिल बलूनी ने कहा कि उत्तराखंड के इतने सारे कांग्रेसी नेता बीजेपी में आना चाहते हैं कि पार्टी को उनके लिए हाउसफुल का बोर्ड टंगना पड़ेगा.
लेकिन कांग्रेस में आर्य और उनके बेटे का दाखिला बताता है कि समय बदल गया है और हवा किस ओर बह रही है. 2016 में उत्तराखंड में दलबदलुओं ने पासा पलट दिया था. कांग्रेस के कई विधायकों ने पाला बदला था और हरीश रावत की सरकार धराशाई हो गई थी.
सितंबर में दो मौजूदा विधायकों, कांग्रेस के राजकुमार और स्वतंत्र प्रीतम पवार बीजेपी में शामिल हो गए थे. राजकुमार पुलोरा एससी सीट से विधायक थे और प्रीतम पवार धनोल्टी के विधायक हैं. बीजेपी की इस रणनीति ने कांग्रेस सहित सभी को चौंकाया था.
पिछले रविवार भीमताल के विधायक राम सिंह कैड़ा भी दिल्ली आकर बीजेपी के सदस्य बन गए थे. यानी अब तक तीन विधायक बीजेपी में जा चुके हैं, लेकिन आर्य की रवानगी एक बड़ी हलचल की शुरुआत हो सकती है. अब बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती है उन बगावती कांग्रेसी नेताओं को कैसे काबू में रखा जाए जो फिलहाल बीजेपी में हैं.
कांग्रेस में जिन बागी नेताओं और विधायकों की घर वापसी की उम्मीदें हैं, वे उमेश सिंह काऊ और हरक सिंह रावत जैसे मजबूत नाम हैं. इन्हें पार्टी में बरकरार रखना, बीजेपी के लिए टेढ़ी खीर हो सकता है.
बीजेपी की जो नेता कम मार्जिन से जीते थे, उनमें से एक मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी थे. वह खटीमा विधानसभा से सिर्फ 2709 वोटों से जीते थे. इसी तरह कैबिनेट मंत्री रेखा आर्य ने सोमेश्वर सीट से महज 710 वोटों से जीत हासिल की थी.
बीजेपी चुनावों के लिए एक शानदार रणनीति अपनाती आई है. वह विपक्षी पार्टियों के नेताओं की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाती है और उन्हें अपनी तरफ खींच लेती है.
वह इस बार उत्तराखंड में ऑपरेशन लोटस का जाल फैला रही है और विरोधी पार्टियों के नेताओं से प्यार का इजहार कर रही है. अब देखना यह है कि क्या बीजेपी 2016 की शैली में 2021 में भी पासा पलट सकती है या इस बार चुनावी रवायत कुछ और ही रंग दिखाती है.
(योगेश कुमार एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और उत्तराखंड में राजनीति, फाइनांस और आपदाओं पर लगातार लिखते रहे हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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