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Zomato Row: पहले से जातियों में बंटे समाज में खान-पान के जरिए भेदभाव

'प्योर वेज मोड' और 'प्योर वेज फ्लीट' जैसे कैंपेन जातिवादी सोच को ही पुख्ता करते हैं

सुमीत समोस
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Zomato Row: जातियों में बंटे समाज में खान-पान के जरिए भेदभाव</p></div>
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Zomato Row: जातियों में बंटे समाज में खान-पान के जरिए भेदभाव

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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Zomato pure Veg fleet Controversy: पिछले एक डेढ़ महीने से मैं लोगों से पूछ रहा हूं कि क्या चेन्नई के मयलापुर में मुझे किराए पर मकान मिल सकता है? इसी इलाके में मेरा ऑफिस है. चूंकि इस एरिया के कुछ पॉकेट्स में ब्राह्मण बड़ी संख्या में हैं, इसलिए मुझे बताया गया कि चूंकि मैं नॉन-वेज खाता हूं तो शायद मुझे किराए पर मकान न मिले, और उनके पास यह पता लगाने के भी कई तरीके हैं कि मेरी जाति क्या है?

ऐसे मामले बेंगलुरु, मुंबई और अहमदाबाद की आवासीय कालोनियों में सामान्य हैं, जहां ब्राह्मण, मारवाड़ी, बनिया और जैन जैसे उच्च जाति समूहों के अपने अपार्टमेंट हैं और वे वहां बड़ी संख्या में रहते हैं.

इसके अलावा, किराए पर मकान ढूंढने वाले मुसलमानों को गोमांस खाने से और पूर्वोत्तर के लोगों को ‘बदबूदार खाने’ और बैम्बू-शूट्स से जोड़ा जाता है.

हाल ही में जोमैटो ने यह घोषणा की कि वह अपने शाकाहारी ग्राहकों के लिए 'प्योर वेज मोड' और 'प्योर वेज फ्लीट' शुरू करेगा. इसके बाद एक जबरदस्त बहस शुरू हुई.

सवाल खड़े होने लगे कि क्या भारत में खान-पान की आदतें, किसी को हानि ना पहुंचाने वाली सिर्फ व्यक्तिगत पसंद है, या वे सामाजिक संबंधों को प्रभावित करती हैं और दूसरे को अलग-थलग कर प्रभावशाली समुदायों की मूल्य आधारित प्रवृत्तियों को सुदृढ़ करती हैं.

जोमैटो के ‘प्लोर वेज फ्लीट’ कैंपेन के जड़ में भेदभाव

जोमैटो ने इस कैंपेन की वजह यह बताई कि वह शाकाहारी ग्राहकों की सुविधा और विशेष जरूरतों का ध्यान रख रहा है. हालांकि, इसके पीछे अलग-थलग करने और शुद्धता जैसी धारणाएं हैं जोकि जाति और धर्म से जुड़ी विशिष्टता से उपजती है.

डिलीवरी एजेंट्स को अलग-थलग करना, अलग-अलग रंगों के कपड़े पहनाना और शाकाहारी खाने को खास तौर से हैंडल करना- यह सब इसे श्रेष्ठता की पायदान पर चढ़ा देता है.

सोशल मीडिया पर इस घोषणा की खूब आलोचना हुई. इसके बाद जोमैटो ने डिलीवरी करने वालों के लिए अलग-अलग रंग की यूनिफॉर्म वाले फैसले को वापस ले लिया.

चूंकि इससे नॉन-वेज खाने को डिलीवर करने वालों को अलग से पहचाना जा सकेगा और उन पर उन आवासीय इलाकों में हमले हो सकते हैं, जहां शाकाहारी लोग बहुतायत में हैं.

हालांकि, इस कदम का स्वागत किया गया लेकिन यह बताता है कि जोमैटो को देश के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य की कितनी समझ है. कॉरपोरेट बोर्ड रूम्स में किस तरह एक प्रभुत्वशाली उच्च जाति वाले हिंदू अल्पमत का सांस्कृतिक रूपक गढ़ा जा रहा है.

शाकाहार, जाति के आधार पर भेदभाव का तरीका

शाकाहार, जाति के आधार पर भेदभाव का एक तरीका यहां भी महत्वपूर्ण है कि शाकाहार सिर्फ खान-पान की पसंद नहीं. इसके बजाय यह जातिगत पवित्रता, अलगाव और मांस, अंडे खाने वालों को लांछित करने से जुड़ी भावना भी है.

अगर हम पिछले 150 वर्षों में भारतीय समाज के इतिहास का अध्ययन करें, तो पाएंगे कि इस देश में दलितों के एक विशाल वर्ग के साथ जाति के आधार पर छुआछूत करने, उन्हें लांछित करने के लिए खान-पान की पवित्रता-अपवित्रता का ही इस्तेमाल किया गया.

इस भेदभाव के दौरान खान-पान की आदत मूल्यों से मुक्त नहीं रह सकती थी, बल्कि यह जाति के आधार पर कूटबद्ध की गई, और कुछ उच्च जातियों, जैसे ब्राह्मण और बनिया लोगों का भोजन, भारत में वैध खाद्य संस्कृति के तौर पर पेश किया गया, जिसमें बदलाव की कोई या बिल्कुल भी कोई गुंजाइश नहीं है.

उच्च शिक्षण संस्थान, दफ्तर और कॉरपोरेट स्पेस, और मेट्रोपॉलिटन शहरों में आवासीय कालोनियां, जिन्हें साझा पब्लिक स्पेस माना जाता है, निम्न जातियों के खान-पान की आदतों को विकृत मानती हैं और आग्रह करती हैं कि उच्च जाति की हिंदू खाद्य परंपराओं को ही स्वीकार किया जाए. इन्हें इतना भी मंजूर नहीं कि किसी अलग जगह पर दूसरे लोग अपनी पसंद का खाना खा सकें.

इसलिए यह दलील देना कि हरेक को अपनी पसंद का खाना खाने की छूट है, पूरी तरह से बेबुनियाद है.

खान-पान की आदतें जोड़ने से ज्यादा बांटती हैं

भारत में विभिन्न समुदायों की, और भौगोलिक कारणों से अलग-अलग खाद्य परंपराओं की सांस्कृतिक विविधता को संजोने की बजाय, जोमैटो उच्च जातियों की पवित्रता और विभाजन की उसी आदत को पुष्ट करता है, जिनके जरिए उसने ऐतिहासिक रूप से दलितों, निचली जातियों और आदिवासियों के साथ भेदभाव किया गया है.

दूसरी जातियों के साथ खाना न खाना, और पानी के अलग-अलग स्रोत, भारतीय संदर्भ में कोई निर्दोष सांस्कृतिक भेदभाव नहीं हैं, बल्कि जाति के आधार पर शुद्धता और अस्पृश्यता के इर्द-गिर्द घूमते हैं.

दूसरों के साथ खाना खाने पर यह अक्सर कहा जाता है- मेरा धर्म भ्रष्ट हो गया. दरअसल यह और कुछ नहीं, जाति आधारित नियमों के उल्लंघन का खौफ है.

जब 20वीं सदी में जातिगत रूढ़ियों को तोड़ने, पानी साझा करने, और एक साथ खाना खाने के संघर्ष की बात चलती है तो जाति प्रथा के विरोधी डॉ. भीमराव अंबेडकर और सहोदरन अय्यप्पन जैसे अहम लोग याद आते हैं.

आज भी बड़े-बड़े नेता दलितों के घर जाकर फोटो खिंचाते हैं. एक साथ खाना खाने के बुनियादी इंसानी बर्ताव को एक प्रगतिशील कदम के तौर पर पेश किया जाता है. चूंकि दलितों से जुड़ा खाना, उनका पकाया खाना, और उनके साथ बैठकर खाना खाना, इसे अब भी अच्छा नहीं माना जाता.

मांसाहार से जुड़ी अशुद्धता की गलत धारणा

प्रभुत्वशाली हिंदू समूहों ने जिस खाद्य संस्कृति का प्रचार किया है, उसने निम्न जातियों, आदिवासी और दलितों के संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को भी जन्म दिया है. इन लोगों ने इस उम्मीद के साथ मांस खाना छोड़ा कि उनकी सामाजिक स्थिति से जुड़ी अशुद्धता और हीनता को भुला दिया जाएगा.

ऐसा इसलिए होता है कि क्योंकि खान-पान के साथ ऊंच-नीच का भाव जुड़ा हुआ है, और जोमैटो निर्दोष पसंद और जरूरत के नाम पर इसी भावना का प्रचार करता महसूस होता है.

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भारत में खान-पान की आदत का एक दूसरा महत्वपूर्ण पहलू, उसका सांस्कृतिक प्रभाव और भौगोलिक क्षेत्र हैं, और खास तौर से शाकाहारी खान-पान की प्रवृत्ति भारत के पश्चिम और उत्तरी इलाकों, राजस्थान, गुजरात, पंजाब और हरियाणा में पाई जाती है. ये वे क्षेत्र हैं, जहां जैन और डेरा मत का काफी प्रभाव है, जिसके चलते निम्नवर्गीय समूहों का खान-पान भी दशकों से शाकाहार ही रहा है.

इसके अलग, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सभी सामाजिक समूहों के लोग मांस और मछली खाते हैं, सिर्फ तमिल ब्राह्मण इसमें अपवाद हैं.

  • द इंडियन एक्सप्रेस ने एनएफएचएस 2019-21 के आंकड़ों का विश्लेषण किया था, और उसमें कहा था कि 15-49 वर्ष के आयु वर्ग के 83.4% पुरुष और 70.6% महिलाएं रोजाना, सप्ताह में एक बार या कभी-कभी मांसाहारी खाना खाते हैं.

यह भी पूछा जा सकता है कि क्या जोमैटो विभिन्न सामाजिक समूहों और भौगोलिक क्षेत्रों को उनकी खास पसंद और जरूरतों के आधार पर वर्गीकृत करके, उन्हें खाना परोस सकता है या ऐसे कैंपेन सिर्फ अल्पसंख्यकों की ‘शुद्धता’ का सामान्यीकरण करने तक ही सीमित हैं.

क्या कलर कोड वाले फैसले को वापस लेने से डिलीवरी एजेंट सुरक्षित होंगे?

भले ही जमीनी स्तर पर कलर कोडेड ‘प्योर वेज फ्लीट’ के फैसले को वापस ले लिया गया लेकिन ‘प्योर वेज फूड’ शाकाहारी डिलिवरी एजेंट ही लोगों को पहुंचाएंगे और यह ऐप पर नजर आएगा. डिलीवरी पैकेजों को छूने और उन्हें पहुंचाने वाले अब भी अलग-अलग होंगे, बस फर्क यही होगा कि यह सब रंगों के जरिए नहीं दिखाई देगा.

इसके अलावा, 'प्योर वेजेटेरियन फूड’ पहुंचाने वाले एजेंट्स पर उनकी पहचान के आधार पर शक किया जाएगा, उनके साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया जाएगा, क्योंकि ‘प्योर वेज मोड’ को लॉन्च करने की वजह, उस खाने की हैंडलिंग ही तो है.

ऐसी खबरें आती रहती हैं कि छोटे स्कूली बच्चे दलित रसोइये के पके खाने को खाने से इनकार कर रहे हैं या उनके खाने परोसने पर ऐतराज जता रहे हैं, और मुसलमानों पर इस बात का शक किया जा रहा है कि वे मांस लेकर जा रहे हैं.

जोमैटो के पास ऐसी आशंकाओं को दूर करने के लिए कोई दिशानिर्देश नहीं है, और न ही उसने ऐसे कोई उपाय हैं कि ऐसे हालात से कैसे निपटा जाएगा.

प्योर वेजेटेरियन फूड’ को कौन हैंडिल करेगा, इस बात पर शक करना, और उनसे द्वेष रखना, और उन्हें पहुंचाने वाले ‘प्योर फ्लीट’ को एकदम अलग करने की जरूरत, एक बार फिर भारतीय मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग में निहित जाति और रूढ़िवादी सोच को उजागर करता है.

आवासीय परिसरों में डिलिवरी एजेंट्स और कुरियर वालों के लिए अलग लिफ्ट, और घरेलू कामगारों के लिए अलग कप-प्लेट, ऐसी ही भावनाओं से उभरने वाली प्रवृत्तियों हैं. ये लोग सिर्फ आधुनिक उपभोक्ता नहीं, जिसके पास खर्चेने को अच्छा पैसा है, और न ही जोमैटो जैसे बड़े कॉरपोरेशंस सिर्फ मुनाफा कमाने वाले पूंजीपति हैं, बल्कि वे नई तकनीकी प्रयोगों और अर्थव्यवस्था के साथ लगातार संवाद करते रहते हैं, साथ ही प्रभुत्वशाली समूहों की रूढ़िवादी सोच को पोषित करते रहते हैं.

यह भी पूछा जा सकता है कि क्या ‘प्योर वेजेटेरियन फूड’ पहुंचाने वाले एजेंट खुद भी ‘शुद्ध शाकाहारी’ हैं, और उच्च जाति के हिंदू समुदाय से हैं. क्या ऐसे बड़े प्लेटफॉर्म उन निम्न जातियों के लोगों की सेवा के बिना काम कर सकते हैं, जिनके खान-पान की पसंद को उनके ग्राहक ओछी नजर से देखते हैं.

(सुमीत सामोस दक्षिणी ओड़िशा के रहने वाले हैं. उन्होंने हाल ही में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से आधुनिक दक्षिण एशियाई अध्ययन में एमएससी पूरी की है. वह एक युवा रिसर्चर और एंटी-कास्ट एक्टिविस्ट हैं. दलित ईसाई, कॉस्मोपॉलिटन इलीट, विद्यार्थी राजनीति और ओडिशा में समाज और संस्कृति जैसे विषयों में शोध में उनकी रुचि है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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