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जोमैटो विवाद और कॉरपोरेट इंडिया: क्या मार्केटिंग वर्ल्ड अब भी सबक नहीं लेगा?

Zomato: लंबे समय से निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात की जा रही है, क्योंकि वहां सवर्णों का ही बोलबाला है.

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अगर किसी को जोमैटो (Zomato) विवाद के बारे में मालूम नहीं तो पक्की तौर पर उसे कुएं का मेढ़क कहा जाना चाहिए. मैंने मार्केटिंग कम्यूनिकेशन में एमबीए किया हुआ है. विज्ञापन कंपनी में काम कर चुका हूं और मैनेजमेंट स्टूडेंट्स को पढ़ा भी चुका हूं. इसलिए मुझे फूड डिलिवरी ऐप का यह कैंपेन न सिर्फ दिक्कत और पूर्वाग्रह भरा लगता है, बल्कि यह भी लगता है कि इस एक सबक से भारतीय ब्रांड्स बहुत कुछ सीख सकते हैं.

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विश्व पर्यावरण दिवस पर लॉन्च हुआ था कैंपेन

वैसे जोमैटो का यह मार्केटिंग कैंपेन विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर लॉन्च किया गया था. हां, इसने काफी सुर्खियां बटोरीं-लेकिन सिर्फ गलत वजहों से. क्योंकि इसे बहुत से लोगों की आलोचना झेलनी पड़ी.

जोमैटो को क्यों मांगनी पड़ी माफी?

जोमैटो के इस विज्ञापन में 2000 की शुरुआत की बॉलिवुड फिल्म 'लगान' के कचरा नाम के दलित कैरेक्टर को दिखाया गया था. कैंपेन कचरे का मानवीकरण कर रहा था. वह कचरा, जो रोजमर्रा की घरेलू चीजों से जुड़ा हुआ है. लेकिन उसके तुरंत बाद कैंपेन को ‘जातिवादी और अपमानजनक’ बताया गया और आखिरकार जोमैटो को वह कैंपेन वापस लेना पड़ा. साथ ही माफी भी मांगनी पड़ी.

हालांकि, इस माफी की भी कुछ लोगों ने आलोचना की और कहा कि यह ‘आधे अधूरे मन से मांगी गई माफी है.’

कास्टिस्ट कंटेंट मार्केटिंग अक्खड़ और नफरत भरी

आज देश में ज्यादातर मैनेजमेंट प्रोग्राम किसी भी सामाजिक विज्ञान के विमर्श को नापसंद करते हैं. मैनेजमेंट पढ़ाने वाले सवर्ण प्रोफेसर सामाजिक राजनैतिक टिप्पणियों को ‘एंटी प्रॉफिट’ और ‘कम्युनिस्ट’ करार देते हैं. यह प्रोफेशनल्स का उबाऊ, बार-बार दोहराया गया और घिसा-पिटा विश्लेषण है, जो अन्यथा ‘कुछ अलग हटकर सोचने’ की दुहाई देते हैं.

कॉरपोरेट इंडिया की मार्केटिंग अब भी लकीर की फकीर है. वह अपने ग्राहकों को आइडेंटिफाई करने के लिए ‘सामाजिक आर्थिक वर्गीकरण (SEC)’ या गैर-वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक प्रोफाइलिंग तकनीकों जैसे ‘अ डे इन द लाइफ ऑफ’ का ही इस्तेमाल कर रही है. इसी के चलते वह उन वर्गों के सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का आइना बन जाते हैं, जिनकी नुमांदिगी हर जगह सबसे ज्यादा है. नतीजा, जोमैटो कैंपेन जैसा अनर्थ रचे जाते हैं.

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हालांकि, अपनी ढफली बजाते-बजाते ब्रांड्स निशाना चूक रहे हैं. सामाजिक पहचान या व्यवहार को समझने के लिए कास्ट का इस्तेमाल न करने से उनका ही नुकसान है. जैसे डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर का प्रतीक मुख्यधारा में आ रहा है. कई राज्यों में उनकी छवियों, उनके विचारों को उत्साहपूर्वक अपनाया जा रहा है.

लेकिन किसी भी बड़े ब्रांड ने ‘बाबासाहेब अंबेडकर जयंती’ को अपने मार्केटिंग कैलेंडर में शामिल नहीं किया गया है. हां, वे सभी दिवाली और IPL मार्केटिंग विंडो में छोटी सी जगह तलाशने के लिए आपस में गुत्थम गुत्था होते हैं, उनके लिए बड़ा बजट बनाते हैं, जबकि जानते हैं कि बड़ी मछलियां उन्हें निगलने के लिए तैयार बैठी हैं.

इसी तरह स्थानीय देवी-देवता, समुदाय और सांस्कृतिक प्रतीकों, जेंडर के पारिवारिक डायनामिक्स और समुदायों की पहचान और हाइपर-लोकल भाषा/बोलियों को समझने से आम लोगों तक ज्यादा गहराई से पहुंचा जा सकता है. यही लोग एक समय बाद, वफादार ग्राहकों में तब्दील हो सकते हैं.

टेक बूम कैसे ब्रांडिंग को प्रभावित करता है?

जाति और पहचान की बारीकियों को अनदेखा करने के लिए अक्सर मार्केटिंग के संदर्भ में एक शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, ‘इच्छा’. लेकिन यह बहुत भ्रामक है.

याद कीजिए, 'वोडाफोन/हच' के शुरुआती विज्ञापन में एक प्यारे से कुत्ते पग को दिखाया गया था, खालिस शहरी सेटिंग्स में. यह भारत में दूरसंचार क्रांति के दरम्यान एक टेलीकॉम ब्रांड था, जिसकी उपयोगिता सार्वभौमिक थी, यानी उच्च आय वर्ग से लेकर निम्न आय वर्ग तक.

कोई पूछ सकता है कि जो आबादी के एक छोटे से हिस्सा के लिए प्रासंगिक है, उसे लेकर राष्ट्रीय स्तर पर ब्रांड कैंपेन तैयार करने की क्या जरूरत थी?

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आभिजात्य शहरी सवर्ण समूहों के बीच ‘गरीब और हाशिए पर मौजूद’ लोगों के लिए नफरत कहीं भीतर तक जड़ जमाए बैठी है, और यह उन ब्रांड मैनेजरों के जरिए जाहिर होती है, जो अपने ब्रांड को ‘लग्जरी स्पेस’ में ले जाना चाहते हैं.

बिजनेस स्कूल्स के स्टूडेंट्स सबसे बड़ी संख्या में 'लग्जरी ब्रांडिंग' में स्पेशलाइजेशन करना चाहते हैं, वह भी उस देश में जहां 90% आबादी हर महीने 25,000 रुपए से भी कम कमाती है.

मैनेजमेंट के बंद दिमाग तकनीक और स्टार्टअप कल्चर में भी नजर आते हैं, जहां अक्सर टेक्नोक्रैटिक सोच का बोलबाला होता है (कोई इसे फासीवादी भी कह सकता है, चूंकि ये लोग नियम कानून को ताक पर रखते हैं, अपने कर्मचारियों की सुरक्षा और गरिमा के साथ खिलवाड़ करते हैं. जोमैटो/ब्लिंकिट और ओलो/उबर मामले इसकी मिसाल हैं).

तकनीक की तरक्की के साथ हमें बिड डेटा एनालिस्ट, मशीन लर्निंग, एआई कोडिंग जैसे शब्द खूब सुनाई देते हैं. इनोवेशन के नाम पर कसमें खाई जाती हैं. बेशक, इन उपायों के जरिए कई क्षेत्रों के बिजनेस मॉडल्स की कायापलट हो गई है, लेकिन इस जादू की छड़ी ने उन तबकों की जिंदगी में बदलाव नहीं किया है जो इस मार्केट से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से जुड़े हए हैं.

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कचरे को रीसायकल और अपग्रेड करने की जरूरत क्यों?

हां, कचरे को रीसायकल और अपग्रेड करने की जरूरत है. लेकिन इसके लिए आपको 2000 की शुरुआत की किसी फिल्म के अप्रिय चरित्र को याद करने की जरूरत नहीं है (कोई पूछ सकता है कि एक पूरे कैंपेन को तैयार करने के पीछे क्या दलील है, जिसके लिए पहले उस फिल्म को देखना और रखना जरूरी है, जिसमें कचरा का कैरेक्टर मौजूद था. ऐसा न होने पर वह पूरा का पूरा कैंपेन ही फिजूल हो जाएगा).

सबसे पहले, दरअसल, इतनी बड़ी इंडस्ट्री और मैनेजमेंट के दिग्गजों के बीच जो औसत दर्जे का ‘कचरा’ मौजूद है, उसे ही साफ करने, रीसायकल करने की जरूरत है.

इस कैंपेन के बाद फिल्म इंडस्ट्री में भी खदबदाहट हुई. निर्देशक नीरज घेवान ने कैंपेन के साथ-साथ ‘कचरा’ जैसे कैरेक्टर की भी आलोचना की, जो खुद में बहुत अमानवीय है. उस पर, उसे अभिजात्य परिवारों में ह्यूमन प्रॉप की तरह इस्तेमाल करने की हिम्मत भी कम परेशान करने वाली नहीं.

राइटर और कॉमेडियन अनुराग माइनस वर्मा का कहना है कि कॉरपोरेट एडवर्टाइजिंग एक जटिल प्रक्रिया है, जिसके कई चरण होते हैं. विचार सूत्र तैयार करने से लेकर, उसे अमली जामा पहनाना और फिर उसकी मंजूरी. वह सही कहते हैं कि जोमैटो जैसे कैंपेन का मतलब साफ है, कॉरपोरेट वर्ल्ड में पूरी व्यवस्था बीमार है, और इस बीमारी के कीटाणु शहरी सवर्णों की सोच से पैदा होते हैं. यहां उनका वर्चस्व है जिनमें जातिगत संवेदनशीलता या तो है नहीं, और अगर है तो बहुत कम.

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भारतीय कारोबारियों के लिए सबक

हो सकता है, बड़े ब्रांड और कारोबारी जोमैटो के इस हादसे से सबक लें. उन्हें एहसास हो कि जाति और पहचान के सच्चाइयों को समझे बिना, पैसे को पानी की तरह बहाना ‘बैड कैपिटलिज्म’ है. यानी इसे सच्चा पूंजीवाद भी नहीं कहा जा सकता. और जाति सामाजिक न्याय की वह पताका भी नहीं, जिसे सिर्फ इसलिए हिलाना है ताकि ट्विटर पर शाब्दिक घमासान से बचा जा सके.

2000 के दशक के दरम्यान अंबेडकरवादियों और सोशल जस्टिस ग्रुप्स ने इस बात का दबाव बनाया था कि निजी क्षेत्र में भी उन जातियों को आरक्षण दिया जाए जिन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है.

हालांकि, सवर्णों में लंबे समय से यह जातिवादी और अवैज्ञानिक अवधारणा है कि ‘आरक्षण अच्छी बात नहीं है’. इसलिए भारत के कॉरपोरेट सेक्टर ने किसी औपचारिक कानून के निर्माण का विरोध किया और वादा किया कि वह खुद को रेगुलेट करेगा और जातिगत विविधता में इजाफा करेगा.

लगभग 15 साल बाद, शायद आर्थिक विकास और बाजार विविधीकरण (सिर्फ सामाजिक न्याय नहीं) के फायदे के ही लिए, इस विषय पर फिर से विचार करने की जरूरत है. वरना, हम बार-बार वही दोहराते रहेंगे.

(लेखक कल्चरल स्टडीज के प्रोफेसर हैं और और उन्होंने जाति और प्रिवेलेज और पॉपुलर कल्चर के स्ट्रक्चर्स के इंटरसेक्शन पर है. वह ट्विटर/इंस्टाग्राम पर 'बफेलो इंटेलेक्चुअल' के नाम से उपलब्ध है.)

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