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मेरा एक दोस्त है. अंग्रेजी में सटायर की एक साइट शुरू की थी. अच्छी चल रही थी. मैंने कहा-क्यों नहीं, इसका हिंदी वर्जन लाते हो? उसने कहा-हिंदी में सटायर के पाठक नहीं. मैंने तब भी कहा था और अब भी कहता हूं. पढ़ने वाले बहुत हैं, लिखने वाला चाहिए. कोई शरद जोशी चाहिए. लेकिन ये भी सच है कि शरद जोशी कोई भी नहीं हो सकता. 5 सितंबर, 1991 को जब शरद जोशी ने दुनिया छोड़ी तो हिंदी व्यंग्य का एक पूरा चैप्टर समाप्त हो गया. लेकिन खुद शरद जोशी ने एक नए-नए लेखक से कहा था-
‘’आदमी के पास अगर दो विकल्प हों कि वह या तो बड़ा अफसर बन जाए और खूब मजे करे या फिर छोटा मोटा लेखक बनकर अपने मन की बात कहने की आजादी अपने पास रखे तो भई, बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा सा लेखक होना ज्यादा मायने रखता है.....लेखक के पक्ष में एक और बात जाती है कि उसके नाम के आगे कभी स्वर्गीय नहीं लिखा जाता. हम कभी नहीं कहते कि स्वर्गीय कबीर के दोहे पढ़ रहे हैं या स्वर्गीय प्रेमचंद बहुल बड़े लेखक थे. लेखक सदा जीवित रहता है’’
शरद जोशी के व्यंग्य लेख ‘हम भ्रष्टन के भ्रष्ट’ का एक हिस्सा
‘‘पालने में दूध पीता बच्चा सोचता है, आगे चलकर विधायक बनूं या सिविल इंजीनियर, माल कहां ज्यादा कटेगा? पेट में था जब अभिमन्यु, तब रोज रात भ्रष्ट बाप सुनाया करते थे, जेवरों से लदी मां को अपने फाइलें दाब रिश्वत खाने के कारनामे. सुनता रहता था कोख में अभिमन्यु. कितना अच्छा है ना! संचालनालय, सचिवालय के चक्रव्यूह में भतीजों को मदद करते हैं चाचा. लो बेटा, हम खाते हैं, तुम भी खाओ. मैं भी इस चक्रव्यूर में जाऊंगा मां, आइस्क्रीम खाते हुए कहता है बारह वर्ष का बालक. मां लाड़ से गले लगा लेती है, कॉन्वेंट, मिरांडा में पढ़ी, सुघड़ अंग्रेजी बोलने वाली मां गले लगा लेती है होनहार बेटे को.’’
कलम के कलाकारों की खासियत आड़ी बातों और तीरछे बोलों में ढूंढा जाता है, लेकिन शरद जोशी सीधी बात करते थे. इतनी सीधी, इतनी नुकीली कि नश्तर हों. भ्रष्टाचार और खराब सिस्टम का रोना रोने वाले मिडिल क्लास को पेश-ए-नजर है उनका एक और नश्तर.
शरद जोशी से लपेटे में सब आए. कोई न बचा. क्या जनता और क्या नेता...उनकी ‘शेर की गुफा में न्याय’ लघु कथा पढ़िए...पूरा निजाम नजरों के सामने तैर जाएगा.
जंगल में शेर के उत्पात बहुत बढ़ गए थे. जीवन असुरक्षित था और बेहिसाब मौतें हो रही थीं. शेर कहीं भी, किसी पर हमला कर देता था. इससे परेशान हो जंगल के सारे पशु इकट्ठा हो वनराज शेर से मिलने गए. शेर अपनी गुफा से बाहर निकला – कहिए क्या बात है?
उन सबने अपनी परेशानी बताई और शेर के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई. शेर ने अपने भाषण में कहा –
‘प्रशासन की नजर में जो कदम उठाने हमें जरूरी हैं, वे हम उठाएंगे. आप इन लोगों के बहकावे में न आवें जो हमारे खिलाफ हैं. अफवाहों से सावधान रहें, क्योंकि जानवरों की मौत के सही आंकड़े हमारी गुफा में हैं जिन्हें कोई भी जानवर अंदर आकर देख सकता है. फिर भी अगर कोई ऐसा मामला हो तो आप मुझे बता सकते हैं या अदालत में जा सकते हैं.’
चूंकि सारे मामले शेर के खिलाफ थे और शेर से ही उसकी शिकायत करना बेमानी था इसलिए पशुओं ने निश्चय किया कि वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे.
जानवरों के इस निर्णय की खबर गीदड़ों द्वारा शेर तक पहुंच गई थी. उस रात शेर ने अदालत का शिकार किया. न्याय के आसन को पंजों से घसीट अपनी गुफा में ले आया.
शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है
जंगल में इमर्जेंसी घोषित कर दी गई. शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है, ताकि न्याय की गति बढ़े और व्यर्थ की ढिलाई समाप्त हो. आज से सारे मुकदमों की सुनवाई और फैसले हमारी गुफा में होंगे.
इमर्जेंसी के दौर में जो पशु न्याय की तलाश में शेर की गुफा में घुसा उसका अंतिम फैसला कितनी शीघ्रता से हुआ ,इसे सब जानते हैं.
शरद जोशी ने जैसा लिखा, वैसा जिया. एक बार कवि सम्मेलन में उनसे कहा गया - मत पढ़िए जो पढ़ रहे हैं. उन्होंने छूटते ही कहा-पहले बताते, आता ही नहीं. कह कर सभागार से बाहर चले गए. वैसे ही जैसे - दुनिया से चले गए. वो लिखकर, जो चाहते थे. किसी को पसंद आए न आए.
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