भारतीय राजनीति (Indian Politics) में चुनावों (Elections) का अपना ही महत्व होता है और चुनावों में चुनावी नारों का. भारतीय राजनीति के इतिहास में कुछ ऐसे ही राजनैतिक नारे (Political Slogans) दर्ज किए गए हैं, जिनकी वजह से कभी किसी पार्टी की सरकार गिर गई तो किसी ने अपनी सरकार बना ली.
गरीबी हटाओ, इंदिरा लाओ, देश बचाओ
इस महीने 05 दिसम्बर को जयपुर में एक सम्मलेन के दौरान कांग्रेस पर हमला बोलते हुए देश के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा "कांग्रेस सुने 'गरीबी हटाओ' की जगह आपने 'गरीब हटाओ' किया. "गरीबी हटाओ, इंदिरा लाओ, देश बचाओ" का नारा साल 1971 में कांग्रेस पार्टी ने इंदिरा गांधी के इलेक्शन कैंपेन के दौरान दिया था. लेकिन इस वक्त न देश 1971 के दौर में है और ना ही इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री हैं या जीवित हैं. लेकिन अगर उसके बावजूद देश के गृह मंत्री मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस पर सालों पुराने इस नारे को लेकर वार करते हैं तो इससे समझा जा सकता है कि इस राजनैतिक नारे का क्या महत्त्व होगा.
हुआ भी कुछ ऐसा ही था साल 1966 में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के अकस्मात निधन के बाद जनसंघ इस मौके का फायदा उठाकर कांग्रेस पार्टी से सत्ता हासिल करने की कोशिशों में था.
शास्त्री जी की मृत्यु के बाद कांग्रेस पार्टी को मजबूत रखने का जिम्मा इंदिरा गांधी के पास आया.
इसके लिए इंदिरा गांधी को जमीनी और मजबूत नेता दिखाना बेहद जरूरी था. इस नारे ने यह काम बखूबी किया. साल 1971 के चुनावों में इंदिरा गांधी इस नारे के साथ चुनावी रण में जनसंघ का मुकाबला करने उतरीं. गरीबी हटाओ, इंदिरा लाओ ने इंदिरा गांधी को देश के कमजोर वर्ग के साथ जोड़ने के साथ ही मजबूत नेता की छवि भी दी.
इंदिरा गांधी का यह नारा काफी मशहूर हुआ और इसी के दम पर उन्होनें जनसंघ का मुकाबला करते हुए 1971 का चुनाव जीत लिया.
इंदिरा हटाओ, देश बचाओ
इंदिरा गांधी 1971 में गरीबी हटाओ, इंदिरा लाओ के नारे के साथ सफल हुईं, लेकिन साल 1975 आते आते इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी घोषित कर दी. देश में इमरजेंसी के खिलाफ लड़ रहे विपक्ष की मजबूत आवाज थे जय प्रकाश नारायण.
जेपी नारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ 1977 के चुनावी समय को ध्यान में रखकर यह नारा दिया. क्योंकि जेपी नारायण इमरजेंसी के खिलाफ लड़ रहे विपक्ष की मजबूत आवाज बन चुके थे इसलिए उनका यह नारा भी बेहद लोकप्रिय हुआ. इस नारे ने इंदिरा गांधी की छवि को भी काफी नुक्सान पहुंचाया. जिस नारे के दम पर इंदिरा गांधी 1971 का चुनाव जीती थीं, साल 1977 में उसी नारे के पलटवार में वो चुनाव हार गईं.
बारी बारी सबकी बारी, अबकी बारी अटल बिहारी
यह वह नारा था जिसने देश को पहला भारतीय जनता पार्टी से आने वाला प्रधानमंत्री दिया. साल 1996 के चुनावों में बीजेपी ने अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री का चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा. इस नारे का मकसद ही लोगों को यह समझाना था कि वह एक एक कर, कांग्रेस, और अन्य पार्टियों को मौका दे चुके हैं लेकिन क्यों न अबकी बार अटल बिहारी वाजपेयी को भी मौका देकर देखा जाए.
कुछ हद तक बीजेपी इसमें सफल भी रही और अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन सदन में बहुमत साबित ना कर पाने की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा लेकिन इस नारे ने उनकी पार्टी के लिए इतिहास रच दिया.
अबकी बार, मोदी सरकार
जब अटल बिहारी वाजपेयी साल 2004 के चुनाव हार गए. उसके बाद लगातार दो बार डॉक्टर मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने. करीब दस साल से केंद्र की सत्ता से दूर भारतीय जनता पार्टी एक मजबूत छवि वाले नेता की तलाश में थी.
लाल कृष्ण आडवाणी राम मंदिर रथ यात्रा से लेकर तमाम अन्य कोशिशों के बावजूद भी चुनावों में कुछ खास हासिल नहीं कर पाए. साल 2014 आते आते देश में कांग्रेस की लोकप्रियता में भारी गिरावट आई. कांग्रेस के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आन्दोलनों ने कांग्रेस पार्टी की जड़ों को कमजोर कर दिया
इस बीच इन सब घटनाओं के साथ-साथ ही गुजरात राज्य को भ्रष्टाचार से मुक्त और सबसे ज्यादा विकसित राज्य बताया जाने लगा. गुजरात के विकास को डेवलॅपमेंट का मॉडल बताकर पेश किया गया. और गुजरात के मुख्य्मंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रिय और मजबूत नेता की छवि बनाने की कोशिशें हुई.
खेला होबे/ मा, माटी, मानुष
अबकी बार मोदी सरकार के राजनैतिक नारे ने भारतीय जनता पार्टी को न सिर्फ आम चुनावों में मजबूती दी बल्कि कई राज्य के चुनाव भी इसी नारे से मेल खाते हुए नारों से जीते गए. जैसे उत्तर प्रदेश में अबकी बार 300 पार का नारा दिया गया, तो वहीं बिहार में अबकी बार डबल इंजन की सरकार जैसे नारों को लोकप्रिय किया गया. इसी के बिनाह पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी बंगाल चुनावों में अपनी जीत दर्ज कराने निकल पड़ी.
तमाम न्यूज चैनल्स में बंगाल में बीजेपी की सरकार बनने का दावा कर दिया गया. चुनावों से पहले ऐसा लगने लगा कि खेल एक तरफा हो चुका है. लेकिन तभी टीएमसी ने 'खेला होबे' का नारा दिया जिसके बाद रुख थोड़ा बदल गया. खेला होबे न सिर्फ बंगाल में लोकप्रिय हुआ बल्कि पूरे देश में इसके चर्चे होने लगे. एक ओर भारत के प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और अन्य बड़े नेताओं ने बंगाल की मुख्यमंत्री पर खूब जुबानी हमले किए. जवाब में टीएमसी की ओर से सिर्फ खेला होबे नारा और इसके ऊपर बना एक गाना प्रसारित किया गया.
जब चुनावी नतीजे आए तो इस बात का प्रमाण लेकर आए के ममता बनर्जी का खेला होबे का जादू पूरे बंगाल में छाया रहा और प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और तमाम अन्य बड़े नेताओं की कोशिशों के बावजूद भी बीजेपी बंगाल में टीएमसी का मुकाबला नहीं कर पाई.
इससे पहले भी साल 2019 के चुनावों में ममता बनर्जी ने मां, माटी मानुष का नारा देकर बंगाल में सालों से चल रहे लेफ्ट पार्टियों के साम्राज्य को खत्म कर दिया था.
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