सरकार की नीयत साफ नहीं
कठुआ रेप और मर्डर केस पर अपनी राय जाहिर करते हुए आकार पटेल ने टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने कॉलम में बेहद खरी बात कही है. देश में दलित को हिस्सेदारी देने के सवाल पर विचार करने से पहले उन्होंने अपनी दो टूक राय जाहिर की है कि कठुआ केस बहुसंख्यकवाद का प्रत्यक्ष नमूना है. बहुसंख्यकवाद ऐसा ही होता है. वह लिखते हैं-
मैं बार-बार हिंदुत्व की बात नहीं करना चाहता लेकिन असलियत यह है कि अब यह राजधर्म बन गया है. और इसने जो बूंद-बूंद जहर हमारी राजनीति में घोला है उसका भरपूर असर अब दिख रहा है. पीएम कह रहे हैं कि हमारी बेटियों को न्याय मिलेगा. मेरी राय में बिल्कुल इंसाफ नहीं मिलेगा. मुस्लिम अब दूसरे क्या तीसरे दर्जे के नागरिक बन चुके हैं. इसे महसूस करने के लिए सिर्फ कठुआ का उदाहरण ही काफी नहीं है. कई उदाहरण हैं.
बहरहाल, सरकार ने कोर्ट से एससी-एसटी एक्ट में संशोधन वापस लेने की गुजारिश की है. लेकिन इसमें उसकी प्रतिबद्धता नहीं दिखती.
दलित मुद्दों पर हिंदुत्व का रिकार्ड सरकार के प्रति विश्वास नहीं जगाता. पटेल कहते हैं रिजर्वेशन की तरह सरकार को दलितों के मुद्दे पर अब सबका साथ, सबका विकास के फॉर्मूले को लागू करने से बचना होगा. सताए हुओं को साथ देने के लिए ताकतवर को कमजोर के लिए थोड़ी जगह देनी होगी. इससे थोड़ी तकलीफ हो सकती है लेकिन इससे आगे चल कर तरक्की होगी.
पटेल ने दलित युवा नेता चंद्रशेखर और जिग्नेश मेवाणी के आंदोलनों का जिक्र करते हुए कहा कि सरकार की नीयत साफ है तो उसे दलितों का वास्तविक साथ देना होगा. टोकनिज्म से काम नहीं चलने वाला है.
आबादी बढ़ाने का रिवार्ड मिले
दक्षिण के राज्य रेवेन्यू शेयरिंग के नए फॉर्मूले को लेकर खफा हैं. आबादी पर काबू के लिए उन्हें अब तक जो फायदा मिलता आ रहा था कि वह जाता हुआ दिख रहा है.
टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया ने इस मुद्दे पर अपनी राय जाहिर करते हुए लिखा है कि अब उत्तर के राज्यों में बढ़ती आबादी की वजह से देश को डेमोक्रेटिक डिविडेंड यानी कामकाजी आबादी मिली है. यह एक अहम संसाधन है, जिसकी कमी से दुनिया के कई देश परेशान है और आबादी बढ़ाने के लिए इन्सेंटिव दे रहे हैं. हालांकि भारत में आबादी बढ़ाने के फायदे को अभी हम स्वीकार नहीं कर पाए हैं.
स्वामीनाथन लिखते हैं-
2001 से 2011के बीच बिहार की आबादी 25.1 फीसदी बढ़ी है और केरल की 4.9 फीसदी. केरल जैसे राज्यों में जन्म दर गिरी है और इसका उसे फायादा जीडीपी ग्रोथ में मिला है. लेकिन अब यह फायदा खत्म हो रहा है. तो देश को जो कामकाजी आबादी चाहिए उसके लिए उत्तर के राज्यों की भूमिका अहम होगी.
2011 के फॉर्मूले से दक्षिण के राज्यों को घाटा हो सकता है. लेकिन वित्त कमीशन को अब राज्यों को बेहतर राजकोषीय प्रबंधन, जल्द न्याय, पर्यावरण संरक्षण, शिक्षा और स्वास्थ्य को कुछ वेटेज देकर बढ़िया प्रदर्शन करने वाले राज्यों को फायदा देना चाहिए. इससे दक्षिण के राज्यों को फायदा मिलेगा क्योंकि इन मानकों पर वे आगे हैं.
लेकिन इस फॉर्मूले में इस बात पर भी विचार करना होगा कि उत्तर के राज्यों को डेमोक्रेटिक डिविडेंड का फायदा मिले. आखिरकर वे भविष्य की कामकाजी आबादी पैदा कर रहे हैं.
इस संकट से सावधान!
दुनिया में बड़ी तेजी से जो संकट पसर रहा है उसकी ओर हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखे लेख में इयान ब्रेमर ने इशारा किया है. ब्रेमर लिखते हैं हर तरफ लोगों को नौकरियों और रोजी-रोटी खोने का डर सता रहा है. विकसित देशों ने अपनी घेराबंदी कर ली है.
ब्रेमर लिखते हैं- एक बड़ा संकट आ रहा है. यूरोप और अमेरिका में यह तूफान खड़ा कर रहा है. इन देशों में कामकाज की जगहों पर टेक्नोलॉजी में बदलाव और आय की असमानता से बढ़ता असंतोष अब विकासशील देशों की ओर पहुंच रहा है, जहां सरकारें और संस्थान इसके लिए तैयार नहीं दिखते. अब कामकाजी आबादी, लेबर मोबिलिटी, इकोनॉमिक ग्रोथ और पॉलिटिकल रिफॉर्म का चक्र टूटना शुरू हो चुका. यह बदलाव विकासशील देशों के लिए ज्यादा मुश्किल पैदा करेगा.
अगर ऑटोमेशन ने विकासशील देशों में वेतन और मेहनताना घटाया तो कामकाजी आबादी के लिए एजुकेशन मुश्किल हो जाएगी. कम ग्रोथ का मतलब एजुकेशन और दूसरी सेवाओं पर कम खर्च. इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर जिस पर सरकार से खर्च करने की उम्मीद जताई जाती है, उसमें खर्च नहीं होगा.विकासशील देशों के लिए यह खासा मुश्किल होगा. एक दुष्चक्र उनके सामने है.
थोथली दलीलों से आग नहीं बुझेगी
जनसत्ता में पी चिदंबरम ने लिखा है कि 15वें वित्त आयोग के लिए तय दायरे की वजह से आग लग गई है. इसे बुझाने की कोशिश नहीं की गई.
केंद्र से रेवेन्यू की साझेदारी के बारे में उन्होंने लिखा है कि-
संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत, यह सम्मिलित रूप से राज्यों का हक है कि वे करों में अपना हिस्सा हासिल करें; यह प्रत्येक राज्य का भी संवैधानिक अधिकार है कि वह राज्यों के कुल हिस्सा में से अपना उचित हिस्सा प्राप्त करे. वित्त आयोग किसी का नौकर नहीं है; इसका स्वामी सिर्फ संविधान है. राज्यों की मौजूदा हिस्सेदारी (जैसा कि चौदहवें वित्त आयोग ने तय किया था) 42 फीसद है. कोई यह नहीं सोचता कि यह हिस्सेदारी पंद्रहवें वित्त आयोग द्वारा घटा दी जाएगी.
अनुच्छेद 280 (3)(बी) के मुताबिक वित्त आयोग का दूसरा काम ‘वे सिद्धांत सुझाना है जिनके आधार पर भारत के समेकित कोष से राज्यों के लिए सहायता और अनुदान स्वीकृत किए जाएं. इस प्रावधान को अनुच्छेद 275 के साथ मिलाकर देखना होगा, जो संसद को हर साल जरूरतमंद राज्यों के लिए अनुदान और सहायता मंजूर करने का अधिकार देता है. लिहाजा, क्रम यह है कि संविधान द्वारा निर्दिष्ट दायित्व के मुताबिक वित्त आयोग सैद्धांतिक आधार बताएगा और संसद राज्यों के लिए अनुदान मंजूर करेगी.
चिदंबरम ने तमाम आंकड़े पेश कर कहा है - ‘ज्यादा आबादी वाले और ज्यादा गरीब राज्यों’ को ‘उद्यमी व विकसित राज्यों’ के खिलाफ खड़ा करके थोथी दलीलों से यह आग नहीं बुझाई जा सकती. सभी राज्यों में गरीबी और विकास संबंधी विसंगतियां हैं. उनका समाधान निष्पक्ष ढंग से और संघीय ढांचे को चोट पहुंचाए बगैर किया जाना चाहिए.
उन्हें दर्द महसूस नहीं होता
दैनिक जनसत्ता में तवलीन सिंह ने अपने लेख में कठुआ रेप कांड पर बेहद तीखे सवाल पूछे हैं. वह लिखती हैं- जबसे आसिफा की तस्वीरें मैंने देखीं तबसे पूछा है मैंने अपने आप से बार-बार कि किस मिट्टी के बने हैं हमारे राजनेता? पिछले हफ्ते उन तस्वीरों को देख कर इतना दर्द हुआ देश भर में हर वर्ग के लोगों को कि हजारों लोग सामने आए हैं आसिफा के लिए न्याय मांगने और यह कहने कि उस बच्ची का सुंदर, मुस्कुराता, मासूम चेहरा देख कर यकीन नहीं होता कि उन दरिंदों ने उसके साथ इतना जुल्म कैसे किया और वह भी एक मंदिर परिसर के अंदर.
राजनेताओं के अलावा एक और वर्ग है, जिसको आसिफा का दर्द महसूस नहीं हुआ और वह है हिंदुत्ववादी. मुझे इन लोगों से वैसे भी प्रेम नहीं है, लेकिन आसिफा को लेकर जिस किस्म की बेकार बातें इन तथाकथित राष्ट्रवादियों ने की हैं, उनको सुन कर मुझे यकीन हो गया है कि ये लोग राष्ट्र के हमदर्द नहीं, दुश्मन हैं.
तवलीन सिंह लिखती हैं, मैंने जब ट्विटर पर आसिफा की हत्या को लेकर गहरा दुख और गहरी शर्म व्यक्त की, तो पीछे ऐसे पड़े ये ‘राष्ट्रवादी’ हिंदू मेरे कि क्या बताऊं. आरोप मेरे ऊपर लगाया कि आसिफा के लिए मुझे दर्द सिर्फ इसलिए है कि मुसलिम घर की बेटी थी. उन हिंदू बच्चियों का दर्द क्यों नहीं आपको तड़पाता, जिनके साथ रोज बलात्कार इसी तरह होता है असम और बंगाल में? इसलिए कि जब किसी बच्ची का दरिंदे बलात्कार करते हैं, तो मैं यह नहीं देखती कि वह मुसलिम है या हिंदू और न पूछती हूं दरिंदों से कि उनकी धर्म-जाति क्या है.
मुफ्त का आनंद छोड़ना होगा
इस सप्ताह फेसबुक के सीईओ मार्क जकरबर्ग डाटा लीक मामले में अमेरिकी सीनेट के सामने पेश हुए थे. इस मामले में हिन्दुस्तान टाइम्स में अनिरुद्ध भट्टाचार्य लिखते हैं-
फ्रीवेयर फेसबुक डिजास्टर की जड़ है. यूजर्स को अपने आनंद के लिए कुछ भी नहीं देना पडता है. यह मुफ्त का आनंद ही उनकी प्राइवेसी का काल बन गया है. मुफ्त के आनंद की कीमत अपनी प्राइवेसी के बलिदान देकर चुकानी पड़ी है. डाटा अब सोशल मीडिया के लिए करंसी बन गया है.
भट्टाचार्य लिखते हैं- वक्त आ गया है कि डाटा माइनर्स के ऑपरेशन को हिलाया जाए. सोशल मीडिया के सर्विस के लिए पैसे अदा करने का वक्त है. साथ ही प्राइवेसी की गारंटी की मांग करने का भी. लेकिन लगता नहीं कि प्राइवेसी के सवाल पर जकरबर्ग के माफी मांगने और धैर्य रखने की अपील के बाद चीजें सुधरने वाली हैं.
अगले पांच से दस साल में हेट स्पीच रोकने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस टूल्स के इस्तेमाल की बात की जा रही है. लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भी अपना पूर्वाग्रह जाहिर कर चुकी है. यह उसी तरह काम करेगी जैसी उसे ट्रेनिंग दी जाएगी. इसलिए चीजें सुधरने की अभी कोई उम्मीद नहीं. झटके लगते रहेंगे
ज्योति जो बुझा दी गई है
और अब कूमी कपूर का खुलासा. इंडियन एक्सप्रेस में छपने वाले अपने साप्ताहिक कॉलम इनसाइड ट्रैक में वह लिखती है- तीन मूर्ति परिसर के पीछे तीन अमर ज्योति हुआ करती थीं. पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की याद में जलने वाली तीन ज्योतियां अब बुझ गई हैं.
नेहरू मेमोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी के निदेशक शक्ति सिन्हा कहते हैं कि ज्योति को जलाने रखने वाली गैस बंद कर दी गई क्योंकि नेहरू म्यूजियम एंड लाइब्रेरी परिसर में पिछले साल से बड़े पैमाने पर रिनोवेशन का काम चल रहा है और इससे आग लगने का खतरा हो सकता था.
गुस्साए कांग्रेसियों का कहना है कि गैस कनेक्शन काट कर पवित्र ज्योति का अपमान किया गया है. अगर मोदी सरकार की इच्छा जारी रखने की होती तो इसके लिए वैकल्पिक इस्तेमाल किया जा सकता था.
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