आज के दौर में हमारा जीवन चौतरफा विज्ञापन (Advertisment) की दुनिया से इस कदर घिरा हुआ है कि हम चाह कर भी उससे निकल नहीं सकते हैं. हम विज्ञापन की उस दुनिया में रह रहे हैं, जहां हमारे घर से निकलते ही कंपनियां विज्ञापन के जरिए हमारे आकर्षण के पूरे इंतजाम तैयार रखती हैं. पूरा बाजार बोर्ड, होर्डिंग्स, तस्वीर, बैनर से पटा पड़ा रहता है. रास्ते पर चलते हुए विज्ञापनों के होर्डिंग्स, टीवी पर सुंदर मॉडल्स द्वारा उत्पाद प्रशंसा, हर ओर विज्ञापन ही छाए हुए हैं.
हर एक कंपनी अपने प्रोडक्ट को अच्छा और खरा साबित करने के लिए अलग-अलग तरीकों से उसका प्रचार करती हैं. तेजी से बदलते वैश्वीकरण के इस दौर में समय की मांग के चलते कंपनियां अब ग्राहक को प्राकृतिक प्रोडक्ट्स इस्तेमाल करने की सलाह दे रही हैं. साथ ही दावा भी कर रही हैं कि अगर ग्राहक इन प्रोडक्ट्स को अपनाता है तो वो पर्यावरण को भी दूषित होने से बचा रहा है.
कंपनी द्वारा उत्पादों पर 100% एनवायरनमेंट फ्रेंडली लिखना, पैकिंग का ग्रीन होना और यह दावा करना कि उनका प्रोडक्ट एनवायरमेंट फ्रेंडली है...किस हद तक सच्चाई है ये जानना एक सजग ग्राहक के लिए बेहद जरुरी है.
ग्रीन वॉशिंग क्या है?
असल में कंपनियां प्रकृति के संरक्षण के लिए कोई ठोस या पक्का उपाय नहीं करते हैं बल्कि इस तरह से प्रोडक्ट की मार्केटिंग करती हैं जैसे उनका प्रोडक्ट यदि ग्राहक खरीदता है तो वो प्रकृति को बचाता है. इस पूरी प्रक्रिया को ग्रीन वाशिंग कहा जाता है. इस शब्द की उत्पत्ति व्हाइट वॉशिंग शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है बुरे आचरण पर रोशनी डालने के लिए भ्रामक जानकारी का इस्तेमाल करना. बस कुछ इसी तरह गलत जानकारी देते हुए प्रोडक्ट को एनवायरमेंट फ्रेंडली साबित करना ग्रीन वॉशिंग कहलाता है. ग्रीनवाशिंग को उपभोक्ताओं को यह विश्वास दिलाने के लिए एक निराधार दावा माना जाता है कि कंपनी के उत्पाद पर्यावरण के अनुकूल हैं.
उदाहरण के लिए ग्रीन वॉशिंग में शामिल कंपनियां दावा करती हैं कि उनके उत्पाद रिसायकल ग्रीन वाशिंग में लगी कंपनियां आम तौर पर उपभोक्ताओं को गुमराह करने के प्रयास में अपने दावों या लाभों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती हैं.
कई रिपोर्ट्स में खुलासा हुआ कि इस प्रोसेस में प्रकृति के सकारात्मक प्रभाव के लिए कंपनियां बिजनेस प्रैक्टिस नहीं लाती इसके विपरीत वह प्रोडक्ट की एडवरटाइजिंग पर हजारों रुपये खर्च करती हैं जिसे ग्रीन मार्केटिंग या ग्रीन एडवरटाइजिंग कहा जाता है.
गौरतलब है कि आज के मशीनीकरण के युग में अमीर से लेकर मिडिल क्लास वर्ग तक के लोग केमिकल युक्त चीजों के जगह प्राकृतिक प्रोडक्ट्स को यूज करने की ओर अग्रसर हैं क्योंकि लोगों को लगता है कि केमिकल युक्त चीजें उनके शरीर और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही हैं. इन्हीं सब वजहों के चलते ये तबका कंपनियों के बिछाएं ग्रीन वाशिंग के जाल में फंसता जा रहा है. कम वक्त में ही ग्रीन वाशिंग एक ट्रेंड बनकर उभरा है. ग्राहकों को महसूस कराया जा रहा है कि उनके द्वारा खरीदा प्रोडक्ट प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, जबकि सच्चाई तो कुछ और ही है.
कैंब्रिज डिक्शनरी के मुताबिक ग्रीन वॉशिंग को यह भरोसा दिलाने के लिए डिजाइन किया गया कि कंपनियों द्वारा पर्यावरण की रक्षा के लिए जितना किया जा रहा है, उससे कहीं अधिक काम किया जाए.
ग्रीन वॉशिंग कोई नई प्रक्रिया नहीं है. इस शब्द का इस्तेमाल साल 1986 में पर्यावरणविद जे वेस्टरवेल्ड ने पहली बार ‘सेव द टॉवेल’ मूवमेंट की आलोचना में अपने लेख में किया था.
सेव द टॉवेल मूवमेंट एक ऐसा मूवमेंट था जिसमें होटलों में टॉवेल को न धोकर उसके बार-बार के इस्तेमाल को ईको फ्रेंडली बताया जा रहा था. वहीं वेस्टरवेल्ट का तर्क था कि होटल्स को ये सब करना छोड़ सस्टेनेबल एफर्ट्स पर कुछ काम करना चाहिए.
विश्व की दिग्गज खाद्य एवं पेय कंपनी नेस्ले (Nestlé) द्वारा अपने प्रोडक्ट को एनवायरमेंट फ्रेंडली बताया जाता है लेकिन इसी कंपनी ने साल 2018 में कहा था कि वह वर्ष 2025 तक अपने प्रोडक्ट की पैकेजिंग को सौ प्रतिशत तक रिसाइकिल और रियूजेबल बनाने के प्रयास करेगी. जिसकी आलोचना कई पर्यावरणविदों ने ये कहते हुए की कि अब तक कंपनी द्वारा इसपर काम करने की प्लानिंग साझा नहीं की गई. इस वादे के बावजूद वर्ष 2020 में तीसरी बार नेस्ले ,कोका कोला और पेप्सी लगातार प्लास्टिक पैदा करने वाली कंपनियां में टॉप पर रही.
ऐसे ही एक प्रसिद्ध कार कंपनी फॉक्सवैगन (Volkswagen) द्वारा प्रकृति के बचाव में एक मुहिम चलाई गई थी. जिसमें वाहनों में पेट्रोल के बजाए डीजल का प्रयोग करने की अपील की गई और तर्क दिया गया कि इससे प्रदूषण में कमी आएगी.
इसके लिए फॉक्सवैगन के ही वाहन खरीदें. लेकिन जब जांच हुई तो पता चला कि कंपनी ने 11 मिलियन कारों में ऐसे डिवाइस फिट किए थे जिससे जांच के वक्त ये न पता लग पाए कि कार कितना प्रदूषण फैला रही है. ठीक इसी तरह का एक मामला मलेशिया की पाम ऑयल काउंसिल का था.
इस कंपनी ने अपने प्रोडक्ट्स को बेचने के लिए टीवी पर प्रचार कराया कि उनके द्वारा इको फ्रेंडली प्रॉडक्ट बनाए जाते हैं लेकिन सच सामने आ ही जाता है. इसके एडवरटाइजमेंट को एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड के खिलाफ माना गया. कई आलोचकों ने भी बताया कि पाम की खेती से बहुत से जीव लुप्त हो रहे हैं और अन्य तरह की प्राकृतिक समस्याएं बढ़ती जा रही हैं.
ग्रीन वॉशिंग के नाम पर धोखा?
हमारे देश में भी ऐसी तमाम कंपनियां मौजूद हैं जो ग्रीन वॉशिंग के नाम पर लोगों को धोखा दे रही हैं. भारत के मार्केट में प्राकृतिक उत्पादों को बेचने में एक नाम रामदेव की पतंजलि कंपनी का है. बता दें कि पतंजलि के कुछ प्रोडक्ट जैसे शिवलिंग बीज और आंवला जूस टेस्टिंग के दौरान खरे नहीं उतरे थे.
सूचना, डेटा और बाजार मापन फर्म नीलसन की एक रिपोर्ट बताती हैं कि सस्टेनेबल ब्रांड्स के लिए 66 प्रतिशत उपभोक्ता ज्यादा खर्च करते हैं. इसका मतलब कि अभी भी लोग प्रकृति को बचाने के बारे में सोच रहे हैं.
आने वाली पीढ़ी के भविष्य को लेकर वो चिंतित हैं लेकिन कैपिटलिस्ट नजरिए से जिसका परिणाम यह हो रहा है कि प्रकृति के हित में पुख्ता काम करने की बजाय हम लोग कंपनियों के भरोसे जी रहे हैं.
हम लोग इस भ्रम में जी रहे हैं कि मात्र एक प्राकृतिक प्रोडक्ट खरीदने से हम इस प्रकृति को बचा रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं है. बल्कि कंपनी इसी का लाभ उठा रही हैं. टेरा च्वॉइस एनवायरमेंटल मार्केटिंग के मुताबिक 98 प्रतिशत प्रोडक्ट ग्रीन वाश्ड होते हैं और कभी-कभार जब कंपनियों का ग्रीन वॉशिंग में अपराध साबित हो जाता है तब वे उपभोक्ता के प्रति उनकी कोई जवाबदेही भी नहीं होती है.
ग्रीन वॉशिंग पर्यावरण के अनुकूल उत्पादों की बढ़ती मांग को भुनाने का एक प्रयास है.
ग्रीन वॉशिंग एक गलत धारणा बनाता है कि एक कंपनी या उसके उत्पाद पर्यावरण के अनुकूल हैं.
वह अपने ग्रीन प्रोडक्ट के तथ्यों और विवरणों के साथ अपने दावों को पेश करते हैं.
वैश्वीकरण के बढ़ते युग में हमें ग्रीन वाशिंग के प्रति भी सजग होने की जरूरत है. हम प्रकृति के अनुकूल सोचकर ग्रीन प्रोडक्ट खरीदते हैं लेकिन हमें इस हरे झूठ से बचने की जरूरत है. उत्पाद खरीदते समय हमें उसकी पैकेजिंग पर ध्यान देना चाहिए.
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