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विश्व आदिवासी दिवस: राष्ट्रपति बनाया लेकिन जमीनी सच अलग,बढ़ा आदिवासियों पर अपराध

International Day of the World’s Indigenous Peoples 2022: सर्वण हिंदू की तुलना में 4 साल कम जी पाते हैं आदिवासी

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9 अगस्त को World Indigenous Day यानी विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है. आदिवासी शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'मूल निवासी'. जनजातियों को आदिवासी भी कहा जाता है. इस दिवस का उद्देश्य दुनिया की आदिवासी आबादी के अधिकारों को बढ़ावा देना और उनकी रक्षा करना है तथा उनके योगदान को स्वीकार करना है. जनजातियों ने अपनी स्वतंत्रता को हमेशा से बरकरार रखा है और अपनी अलग संस्कृति को बनाए रखने के लिए वे आमतौर पर जंगलों, पहाड़ियों, रेगिस्तानों और मुश्किल स्थानों में रहते थे. आदिवासी लोगों ने समृद्ध रीति-रिवाजों और मौखिक परंपराओं को संरक्षित रखा है. संयुक्त राष्ट्र ने इस दिवस को मान्यता दी है. कुछ समय पहले ही हमारे देश को पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिला है, लेकिन सर्वोच्च पद तक पहुंचने के बाद भी इस समुदाय के सामने कई चुनौतियां हैं. आइए जानते हैं आदिवासियों से जुड़ी कुछ अहम जानकारी...

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संयुक्त राष्ट्र और आदिवासी दिवस

संयुक्त रा­ष्ट्र संघ ने 23 दिसम्बर, 1994 को संयुक्त रा­ष्ट्र संघ की आम सभा में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें आदिवासियों के मानवीय अधिकारों के संरक्षण के लिए, आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन पर अधिकार को स्थायी रूप से दिए जाने, आदिवासियों की विशे­ष पहचान, संस्कृति, अस्तित्व, अस्मिता और आत्मसम्मान हमेशा दिये जाने जैसे मुद्दों पर चर्च की गई थी. उसी प्रस्ताव के अनुसार 9 अगस्त, 1995 को पहला विश्व आदिवासी दिवस मनाया गया और तब से हर साल यह पूरे विश्व में आदिवासी दिवस के तौर पर मनाया जाने लगा.

वर्ष 1982 में जिनेवा में आदिवासी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक को भी विश्व आदिवासी दिवस मान्यता देता है. आज भी कई आदिवासी अत्यधिक गरीबी और अन्य मानवाधिकारों के उल्लंघन का अनुभव करते हैं. यह दिवस हर साल एक विशेष थीम के साथ मनाया जाता है.

इस साल की थीम क्या है?

संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस साल की थीम "पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण और प्रसारण में आदिवासी महिलाओं की भूमिका" निर्धारित की गई है.

आदिवासी महिलाएं अपने समाज और समुदाय की रीढ़ हैं, ये पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण और प्रसारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. वे कमाती हैं, घर-परिवार की देखभाल करती हैं और समुदाय में महत्वपूर्ण भी हैं लेकिन इसके बावजूद भी उन्हें अक्सर लिंग, वर्ग, जातीयता और सामाजिक आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार आदिवासी महिलाएं खासतौर पर उच्च गरीबी से पीड़ित हैं. इसके अलावा शिक्षा और साक्षरता में उनका स्तर निम्न है. स्वास्थ्य, बुनियादी स्वच्छता, ऋण और रोजगार तक उनकी पहुंच सीमित है. राजनीतिक जीवन में उनकी सीमित भागीदारी है. उन्हें घरेलू और यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है. हालांकि कुछ समुदायों में आदिवासी महिलाओं की निर्णय लेने की प्रक्रिया में छोटी लेकिन महत्वपूर्ण प्रगति हुई है.

आदिवासी की आबादी कितनी है? 

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर के 90 देशों में 476 मिलियन से अधिक आदिवासी रहते हैं, जो कुल वैश्विक आबादी का 6.2 फीसदी हिस्सा हैं.

इंटरनेशनल वर्क ग्रुप फॉर इंडीजिनस अफेयर्स द्वारा रिपोर्ट के अनुसार कुल आबादी की तुलना में वहां रहने वाले आदिवासियों की संख्या के अनुसार शीर्ष देश इस प्रकार है :

  • ग्रीनलैंड : 88.0%

  • फ्रेंच पॉलिनेशिया : 80.0%

  • बोलिविया : 48.0%

  • ग्वाटेमाला : 43.8%

  • नेपाल : 36.0%

  • अल्जीरिया : 33.0%

  • मोरक्को : 28.0%

  • केन्या : 25.0%

  • इंडोनेशिया : 24.0%

  • मैक्सिको : 21.5%

भारत की बात करें तो यहां कुल आबादी में आदिवासियों की संख्या 8.6 फीसदी है.

भारत में आदिवासी आबादी

वर्ष 2011 में हुई जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 फीसदी हिस्सा जनजातीय समुदाय से मिलकर बना है.

2011 की जनगणना के अनुसार जनजातीय जनसंख्या वाले प्रमुख राज्य :

  • लक्षद्वीप (95%)

  • मिजोरम (94.4%)

  • नागालैंड (86.5)

  • मेघालय (86.1%)

  • अरुणाचल प्रदेश (68%)

  • दादर नगर हवेली (52%)

  • मणिपुर (40.9%)

  • सिक्किम (33.8%)

  • त्रिपुरा (31.8%)

  • छत्तीसगढ़ (30.6%)

भारतीय मानव वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा देश में 635 जनजाति समूह और उपजातियां चिन्हित की गई है.

संयुक्त राष्ट्र के भारत के संदर्भ में वर्किंग ग्रुप ऑन ह्यूमन राइट्स द्वारा वर्ष 2012 में जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में आजादी के बाद से लगभग 6.5 करोड़ लोगों का विस्थापन हुआ है - जो दुनिया के किसी भी मुल्क में सबसे अधिक है. यह रिपोर्ट दर्शाती है कि कुल विस्थापितों में लगभग 40 फीसदी (2.6 करोड़) आदिवासी समुदाय है. अर्थात आदिवासियों की कुल आबादी का लगभग एक-चौथाई (25 फीसदी) अब तक विस्थापित हो चुका है.

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कम हो रही है आदिवासियों है उम्र!

डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य पर काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर कंपेसनेट इकॉनोमिक्स के शोधकर्ताओं का प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल अकैडमी ऑफ साइंसेस (पीएनएएस) में प्रकाशित अध्ययन कहता है कि यदि आप भारत के अनुसूचित जनजाति (एसटी) परिवार में पैदा हुए हैं, तो आप उच्च जाति के हिंदू की तुलना में चार साल कम जिंदा रहने की संभावना रखते हैं.

मार्च 2022 में प्रकाशित यह अध्ययन कहता है कि ऊंची जाति के हिंदुओं की अपेक्षा आदिवासियों की जीवन प्रत्याशा करीब चार साल कम रहती है. इसी तरह दलितों की औसत उम्र लगभग तीन साल और मुस्लिमों की करीब एक साल कम रहती है.

कम जीवन प्रत्याशा के विभिन्न कारणों में एसटी और गैर एसटी जातियों के बीच स्वास्थ्य और पोषण संकेतकों, शिक्षा के स्तर और गरीबी के स्तर में अंतर को गिनाया गया था. साथ ही एसटी की पारंपरिक जीवनशैली, बस्तियों की दूरी और बिखरी हुई आबादी को भी कम जीवन प्रत्याशा का कारण माना गया था. अनुसूचित जनजाति समूहों की कम जीवन प्रत्याशा के विभिन्न कारणों में खानपान में परिवर्तन और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच न होना, प्रमुखता से शामिल हैं.

राष्ट्रीय पोषण संस्थान के तहत राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो (एनएनएमबी) की 2009 की एक रिपोर्ट, जिसमें नौ राज्यों को शामिल किया गया है, 1985-89 और 2007-08 के बीच जनजातीय क्षेत्रों में कुछ खाद्य पदार्थों की खपत में मामूली गिरावट की ओर इशारा करती है.

स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच

स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच के मामले में जनजातीय आबादी अब भी संघर्ष कर रही है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2019-20 के आंकड़ों से पता चलता है कि अधिक जनजातीय आबादी वाले पांच राज्य- महाराष्ट्र, तेलंगाना, झारखंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में तेलंगाना को छोड़कर सभी को उप-केंद्रों, सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) की कमी का सामना करना पड़ रहा है.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की 2018 की एक रिपोर्ट “ट्राइबल हेल्थ इन इंडिया” बताती है कि आदिवासी समूहों को संचारी, गैर-संचारी और मानसिक स्वास्थ्य बीमारियों के तिहरे बोझ का सामना करना पड़ता है. आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बैक्टीरियल और वायरल रोग, यौन संचारित रोग और त्वचा संक्रमण की व्यापकता बहुत है.
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आदिवासियों के खिलाफ बढ़ता अपराध

संसद में दी गई जानकारी के अनुसार 2018 और 2020 के बीच आदिवासी लोगों के खिलाफ अपराध में 26 प्रतिशत की वृद्धि हुई.

अनुसूचित जनजाति यानी ST के खिलाफ अत्याचार के मामलों की बात करें तो एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2018 में 6528, 2019 में 7570 और 2020 में 8272 मामले दर्ज किए गए है. आदिवासियों पर अत्याचार के मामले में मध्य प्रदेश MP सबसे आगे है. एमपी में साल 2020 में आदिवासियों के उत्पीड़न मामले 20% बढ़े हैं. तीन साल से प्रदेश इन अपराधों में पहले पायदान पर ही है. एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार एमपी में एसटी पर अत्याचार के 2018 में 1868, 2019 में 1845 और 2020 में 2401मामले दर्ज किए गए हैं.

पलायन में बढ़ोत्तरी 

2019 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट ट्राइबल हेल्थ ऑफ इंडिया में बताया गया था कि 2001 की जनगणना में जिन गांवों में 100 प्रतिशत आदिवासी थे, वहीं 2011 की जनगणना में इन आदिवासियों की संख्या 32 प्रतिशत कम हो गई. रिपोर्ट में कहा गया है, “आदिवासी जीवनयापन और शैक्षणिक अवसरों के लिए आदिवासी क्षेत्रों से लेकर गैर आदिवासी क्षेत्रों तक आंदोलन कर रहे हैं.” रिपोर्ट में आदिवासियों के पलायन के लिए मुख्य रूप से आजीविका के संकट को जिम्मेदार माना गया हैं

भारत के आदिवासी अपने जीवनयापन के लिए कृषि और वनों पर अत्यधिक निर्भर हैं. एक तरफ जहां 43 प्रतिशत गैर आदिवासी कृषि पर निर्भर हैं, वहीं दूसरी तरफ 66 प्रतिशत आदिवासी गुजर बसर के लिए इन प्राथमिक स्रोतों पर आश्रित हैं. हालिया दशक में आदिवासी खेतीबाड़ी से विमुख हुए हैं और बड़ी तादाद में खेतिहर मजदूर बने हैं. पिछले एक दशक में 3.5 मिलियन आदिवासियों ने खेती और अन्य संबंधित गतिविधियां छोड़ी है. वर्ष 2001 और 2011 की जनगणना के बीच 10 प्रतिशत आदिवासी किसान कम हो गए जबकि खेतीहर मजदूरों की संख्या में 9 प्रतिशत इजाफा हुआ.

रिपोर्ट में कहा गया है कि विस्थापन और पलायन के कारण बड़ी संख्या में आदिवासी निर्माण क्षेत्र में ठेका मजदूर और शहरों में घरेलू नौकर बन रहे हैं. वर्तमान में हर दूसरा आदिवासी परिवार जीवनयापन के लिए मजदूरी पर निर्भर है.

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