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J&K परिसीमन: चुनावी क्षेत्रों का बंटवारा क्या बीजेपी को फायदा पहुंचाएगा?

Srinagar में अमीरा कदल, बटमालू, जदीबल सीटें जो घाटी की पार्टियां जीतती थीं, अब कागजों पर मौजूद नहीं हैं

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जम्मू-कश्मीर (Jammu and Kashmir) में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का फिर से निर्धारण होने के साथ ही, यहां चुनाव कराने के सभी रास्ते साफ हो गए हैं. बीजेपी-पीडीपी गठबंधन टूटने के लगभग 4 साल बाद इस केंद्र शासित प्रदेश में फिर से चुनाव हो सकते हैं, अर्टिकल 370 खत्म होने के बाद यहां लंबे समय से सीधे तौर पर केंद्र का शासन का है.

जस्टिस रंजना प्रकाश, मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और राज्य चुनाव आयुक्त केवल कुमार शर्मा की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग (Delimitation Commission) ने अंतिम रिपोर्ट पर हस्ताक्षर कर दिए हैं. इस रिपोर्ट के आधार पर जम्मू-कश्मीर में नए निर्वाचन अधिकार क्षेत्र लागू होंगे.

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कानूनी विवाद की हड्डी है जम्मू-कश्मीर का परिसीमन

केंद्र शासित प्रदेश में नई मतदाता इकाइयों का निर्धारण एक विवादास्पद विषय रहा है क्योंकि यह जम्मू-कश्मीर में परिसीमन पर एक वैध प्रतिबंध का उल्लंघन करता है, जो "वर्ष 2026 के बाद की गई पहली जनगणना के आंकड़े प्रकाशित होने तक" तक चलने वाला था.

आलोचकों द्वारा जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम की वैधता को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं, क्योंकि यह अधिनियम न्यायिक जांच के दायरे में है. इस एक्ट ने पहले एक राज्य रहे जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया और वहां के लिए एक नया शासन ढांचा बनाया है. जब तक अदालत इसकी आखिरी स्थिति पर फैसला नहीं करती, तब तक मूल कानून से उत्पन्न हुआ कोई भी नया उपाय (जैसे परिसीमन) न्यायपालिका के प्रति विश्वास को कमजोर करेगा.

पिछले हफ्ते गर्मी की छुट्टी के बाद मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को निरस्त करने के केंद्र सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार करने पर सहमति व्यक्त की है.

अन्य लोगों को डर है कि बीजेपी सरकार मुस्लिम बहुल क्षेत्र में हिंदुओं के पक्ष में चुनावी गणित को तोड़-मरोड़ कर अपने फायदे के लिए चुनाव से पहले कूटनीतिक प्रबंधन करते हुए जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्रों का घेराव कर रही है.

परिसीमन आयोग का अविश्वसनीय कार्य

दिसंबर 2021 में आयोग ने अपना पहला मसौदा जारी किया था, जिसमें जम्मू-कश्मीर विधानसभा में सात नई सीटों को जोड़ने की सिफारिश की गई थी. केंद्र शासित प्रदेश के अन्य क्षेत्रों पर घाटी के संख्यात्मक वर्चस्व के बावजूद, जम्मू क्षेत्र (53.3 लाख आबादी) के लिए छह सीटों और कश्मीर (68.8 लाख आबादी) के लिए केवल एक सीट की सिफारिश की गई थी.

संक्षेप में, इसका मतलब यह है कि जहां एक ओर जम्मू के निर्वाचन क्षेत्रों (प्रति निर्वाचन क्षेत्र में 1.23 लाख) में वोटर्स बिखरे हुए हैं, वहीं दूसरी ओर कश्मीर (प्रति निर्वाचन क्षेत्र 1.46 लाख) में एक ही जगह ज्यादा हैं, जिसे आलोचक "एक व्यक्ति, एक वोट" के सिद्धांत का गंभीर उल्लंघन कहते हैं. यह चुनावी लोकतंत्र का एक आधारभूत सिद्धांत है.

आयोग द्वारा फरवरी में जारी किए गए एक अन्य कामकाजी मसौदे में इस बारे सुझाव देते हुए बताया गया कि नई चुनावी सीमाएं कैसे और कहां मिलेंगी.

इस तरह सीटों के थोक फेरबदल को लेकर आयोग ने कहा कि उसने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 की धारा 60 (2) (बी) के तहत जनसंख्या के साथ-साथ भूगोल, दूरदर्शिता और सार्वजनिक असुविधाओं जैसे मापदंडों को ध्यान में रखते हुए किया है.

परिसीमन से क्यों डरती हैं कश्मीर की पार्टियां?

दूसरी ओर कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियों का मानना है कि जहां तक सीटों के पुनर्वितरण का सवाल है, तो यह ठीक वही ग्रे जोन है जिसका बीजेपी ने फायदा उठाया है.

अब जम्मू की सीट का हिस्सा 37 से बढ़कर 43 हो जाएगा, जबकि कश्मीर का हिस्सा 46 से बढ़कर 47 हो जाएगा. यह जम्मू-कश्मीर के दो क्षेत्रों के बीच एक नई राजनीतिक विषमता को दर्शाता है, जिसका बीजेपी चुनावी लाभ के लिए फायदा उठाने की उम्मीद कर रही है.

जबकि जम्मू में एक लाख से कम आबादी वाले छह (पड्डर, इंदरवाल, श्री माता वैष्णो देवी, बानी, बसोहली और किश्तवाड़) विधानसभा क्षेत्र हैं. वहीं कश्मीर में ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या सिर्फ तीन (गुरेज, करनाह और कुंजर) है. जहां कश्मीर में लगभग 20 विधानसभा क्षेत्रों की आबादी 1.5 लाख से अधिक है, वहीं जम्मू में सिर्फ 8 ऐसे क्षेत्र हैं.

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विधानसभा सीटों के पुनर्गठन से क्या स्थानीय पार्टियों को नुकसान होगा?

आयोग ने फरवरी के मसौदे में 28 विधानसभा सीटों का नाम बदलने और 19 को या तो अन्य सीटों के बीच तोड़कर या उन्हें अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में समाहित करने का प्रस्ताव दिया था.

कश्मीर घाटी में जहां ट्रेडिशनल पार्टियों ने राजनीतिक पूंजी निवेश करने और अपने राजनीतिक आधारों को मजबूत करने में दशकों बिताए हैं, वहीं मुख्यधारा के राजनेताओं ने आयोग पर लंबे समय से चल रहे निर्वाचन क्षेत्रों को मनमाने ढंग से भंग करने का आरोप लगाया है. उदाहरण के लिए श्रीनगर में अमीरा कदल, बटमालू या जदीबल जैसी सीटें जो कश्मीर में ट्रेडिशनल पार्टियों द्वारा जीती गई थीं, अब कागजों पर मौजूद नहीं हैं. अब इन सीटों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों को नए निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया गया है.

इसी तरह से कुलगाम, नूराबाद और होम शाली बुग जैसे विधानसभा निवार्चन क्षेत्र जोकि परंपरागत रूप से पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के पास रहे हैं. इनको भी चुनावी नक्शे से हटा दिया गया है. आयोग ने डीएच पोरा को नई सीट के रूप में प्रस्तावित किया है.

दक्षिण कश्मीर की अनंतनाग संसदीय सीट को जम्मू के पुंछ और राजौरी क्षेत्रों से मिलाने से एक और अचंभित करने वाला दांव देखने को मिला है. विशाल पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला दो स्थानों को अलग करती है, जिनकी अविश्वसनीय स्थिति वर्ष के अधिकांश समय खराब मौसम से और भी दुर्गम हो जाती है.

चूंकि अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए आरक्षित 9 सीटों में से अधिकांश इस क्षेत्र में गिरने की संभावना है, कुछ ने चिंता व्यक्त की है कि दो अलग-अलग क्षेत्रों को विलय करने का कदम "छिपे हुए हितों" से प्रेरित है. क्योंकि जब भी राष्ट्रव्यापी परिसीमन होगा तब अनंतनाग-राजौरी संसदीय क्षेत्र के अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होने की संभावना है. इस प्रकार लोकसभा सीटों पर भी कश्मीरी मुस्लिमों की प्रबलता को खत्म किया जा रहा है.

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परिसीमन पर मतभेद

इस समय जम्मू-कश्मीर की कुल पांच संसदीय सीटों में से तीन कश्मीर में हैं और उन सीटों से जीतने वाले सभी तीन सांसद कश्मीरी मुसलमान हैं.

इसी तरह जम्मू क्षेत्र में आयोग ने पूर्ववर्ती निर्वाचन क्षेत्रों में से पदडर, डोडा पूर्व, सुंदरबनी-कालाकोट और श्री माता वैष्णो देवी जैसी सीटों को काट दिया है, जिसकी वजह से क्षेत्र वे पूरी तरह से हिंदू-प्रभुत्व वाली नई इकाइयां बन गए हैं. उनमें से कुछ की आबादी सिर्फ 70 हजार है. कश्मीर क्षेत्र में इतनी कम आबादी वाली कोई भी विधानसभा सीट नहीं है.

जैसा कि नेशनल कांफ्रेंस से जुड़े सांसदों (जोकि आयोग के सहयोगी सदस्य भी हैं) ने मसौदा रिपोर्ट से जुड़ी एक तीखे शब्दों में विरोधी टिप्पणी में कहा “वर्तमान परिसीमन एक्सरसाइज… न तो संविधान के अनुरूप है और न ही कानून के. मानदंड, चाहे वह सात बढ़ी हुई विधानसभा सीटों के आवंटन हो या निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन हो और निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं खींचने का हो, वह मनमाने ढंग से निर्धारित किया गया और वे चुनिंदा रूप से लागू होते हैं.”

आयोग ने फिर भी नेशनल कांफ्रेंस के सांसदों की अधिकांश आपत्तियों को खारिज कर दिया, जबकि 15 सुझावों को स्वीकार किया है जिसमें अधिकांश प्रस्तावित विधानसभा और संसदीय क्षेत्रों के नाम बदलने से संबंधित हैं.

लारलू निर्वाचन क्षेत्र का नाम कोकरनाग और अनंतनाग का नाम शांगस अनंतनाग करने पर आयोग सहमत है. इसी तरह हब्बा कदल विधानसभा सीट को भी बहाल कर दिया गया है जिसे पहले दक्षिण श्रीनगर में मिला दिया गया था.

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जम्मू-कश्मीर परिसीमन से क्या वाकई में बीजेपी को फायदा होगा?

मामूली सुधारों को छोड़कर 5 मई की अंतिम रिपोर्ट लगभग फरवरी के मसौदे के समान है.

"पक्षपातपूर्ण" आरापों के बावजूद, यह मानने के कई कारण हैं कि पूर्व-निर्धारित चुनावी परिणाम प्राप्त करना बीजेपी के लिए आसान नहीं होंगे. नई जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कुल 90 सीटों में से 50 ऐसी सीटें हैं जो उन जिलों में हैं जहां मुसलमानों की आबादी 90% से अधिक है.

इसी बीच कश्मीर में बीजेपी को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों ने फाइनल रिपोर्ट को खारिज कर दिया है. एक बयान में जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के एक प्रवक्ता ने कहा है कि “परिसीमन रिपोर्ट अतीत की पुनरावृत्ति है. पर्दे के पीछे पारंपरिक संस्थाएं ही चीजों का निर्धारण कर रही हैं. कश्मीर के साथ पहले की तरह भेदभाव किया गया है. कुछ भी नहीं बदला है. केवल अक्षमता की डिग्री अधिक है.”

कश्मीरियों को और ज्यादा अलग होने का डर

पीडीपी के प्रवक्ता मोहित भान ने कहा कि आयोग ने जम्मू में एक व्यक्ति को कश्मीर में 1.3 व्यक्तियों के बराबर बनाया है. 'आयोग ने जो प्रक्रिया अपनाई उसने सभी तर्कों को नकार दिया है. ऐसा कोई बेंचमार्क ही नहीं सेट नहीं किया गया था जिसका पालन किया जाना था. ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि उन्होंने एसी ऑफिस में बैठकर गूगल मैप खोला और नई सीटें काट दी हैं.' वे आगे कहते हैं कि 'यह मामला अभी भी विचाराधीन है. कल को अगर कोर्ट 5 अगस्त के फैसले को रद्द कर देती या पलट देती है, तो यह पूरा परिसीमन खत्म हो जाएगा.'

भान आगे कहते हैं, "हमारे पास शांगस और कोकरनाग जैसी सीटें हैं जहां हमारे नेताओं ने दशकों तक काम किया है लेकिन अब ये सीटें बिखर गई हैं. आपके द्वारा केवल यहां लोगों को उनके अधिकारों वंचित किया जा रहा है. इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि आप संस्थानों को धराशाई कर रहे हैं, जिसकी वजह से स्थायी नुकसान होगा. जब आप ऐसा करते हैं, तो आप वर्षों की मेहनत को रिवर्स कर देते हैं यानी उलट देते हैं. जब आप संस्थानों की प्रतिष्ठा को कमजोर करते हैं, तो व्यक्तियों का उन संस्थानों पर से विश्वास उठ जाता है. इस प्रक्रिया में लोगों को शामिल करने के बजाय, आप उन्हें अलग-थलग कर देते हैं. कुछ ऐसा ही 1987 में भी हुआ था और परिणाम आपके सामने हैं.

नेशनल कांफ्रेंस के राज्य प्रवक्ता इमरान नबी डार का कहना है कि 'आयोग ने घाटी के तीन लोकसभा सांसदों द्वारा सुझाई गई सिफारिशों को खारिज कर दिया, जिनमें से सभी नेशनल कांफ्रेंस के सदस्य हैं'. डार आगे कहते हैं कि 'यह एक राजनीतिक रिपोर्ट है'.

(शाकिर मीर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जिन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया और द वायर सहित अन्य प्रकाशनों के लिए रिपोर्ट किया है. वह @shakirmir पर ट्वीट करते हैं.)

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