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Mirza Ghalib: जिन्हें नहीं समझ आते, उन्हें भी क्यों पसंद ग़ालिब?

Ghalib In New Delhi: दिल्ली में जब 'मिर्ज़ा ग़ालिब' से हुई क्विंट की मुलाकात

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मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू और फारसी के एक ऐसे शायर हैं जिनके बिना उर्दू और फारसी अदब की कल्पना करना भी असंभव है. मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू, फ़ारसी साहित्य के बादशाह हैं. ग़ालिब न केवल लोगों के जज्बात का हिस्सा हैं बल्कि वो नाटक, फिल्म, डॉक्यूमेंट्री, किताब का भी हिस्सा हैं. ग़ालिब फकीर से लेकर बादशाह तक के हिस्से आते हैं.

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'ग़ालिब इन न्यू दिल्ली'

'ग़ालिब इन न्यू दिल्ली' एक ऐसा नाटक है जो ग़ालिब को उनकी मौत के करीब 150 साल बाद दिल्ली लेकर आता है. इस नाटक के माध्यम से नाटक के राइटर, डायरेक्टर और एक्टर डॉ. एम सईद आलम गालिब को समझने और समझाने की कोशिश करते हैं. इस नाटक में दर्शकों को गुदगुदाता हुआ हास्य है तो चोट करता हुआ व्यंग्य भी मौजूद है. इक्केवाले से लेकर पान बेचने वाली तक इस नाटक के किरदार हैं और ग़ालिब की इन सब किरदारों के साथ गुफ्तगू आपके भीतर एक विशेष भावना का संचार करती है.

मिर्जा गालिब के एक शेर को 'गालिब इन न्यू दिल्ली' नाटक में डॉक्टर सईद कुछ इस तरह पढ़ते हैं.

बाज़ीचा-ए-फुटबॉल है दुनिया मिरे आगे

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे

इस शायरी से डॉक्टर सईद यह बताना चाहते हैं कि ग़ालिब अगर आज की दुनिया में शायरी कर रहे होते तो शायरी किस तरह की होती.

मुश्किल होते हुए भी ग़ालिब पसन्द आते हैं

ग़ालिब को कठिन शायरी करने के लिए जाना जाता है. ग़ालिब की शायरी के मानी समझना आसान काम नहीं है मगर फिर भी उन्हें शायरी के आम पाठकों द्वारा पसंद किया जाता है इसके पीछे सबसे बड़ी वजह उनकी शायरी में मौजूद शब्दों की धुन है. उनकी शायरी में मौजूद शब्द जो ध्वनि पैदा करते हैं वो शायरी के पाठकों के जहन में बस जाती है जिसकी वजह से ग़ालिब कठिन होते हुए भी लोगों को पसन्द आते हैं.

मिर्ज़ा ग़ालिब को तीन चीजों ने मिलकर बनाया है. एक उनका जमाना, उनकी हयात और उनकी शायरी
डॉ. एम सईद आलम

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