ADVERTISEMENTREMOVE AD

पीयूष तिवारी: एक शख्स के संकल्प के कारण संसद को बनाना पड़ा सड़क हादसों पर कानून

1997 से 2007 के बीच, सड़क दुर्घटनाओं से भारत में 10 लाख लोगों की मौत हुई.

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

अप्रैल 2007 में पीयूष तिवारी की जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई. वो आम दिन की तरह दफ्तर से काम कर घर लौट रहे थे जब उनके पिता ने उन्हें फोन कर बताया कि उनके कजिन को स्कूल से लौटने के दौरान एक गाड़ी ने टक्कर मार दी है. कुछ लोग इस हादसे के चश्मदीद थे और कुछ लोगों ने खून से लथपथ एक लड़के को सड़क किनारे लोगों से मदद मांगते देखा था, लेकिन किसी ने भी पुलिस को सूचना नहीं दी, एंबुलेंस को नहीं बुलाया या उसे अस्पताल पहुंचाया. 5 अप्रैल को 16 साल के लड़के ने अपने 16वें जन्मदिन के दिन ही दम तोड़ दिया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इसके बाद पीयूष ने धौला कुआं के करीब अपनी कार रोकी — वो इतने घबराए हुए थे कि कार चलाने की हालत में नहीं थे — और ऑटो लेकर घर पहुंचे. उसी रात वो बिना किसी रिजर्वेशन के ट्रेन से कानपुर रवाना हो गए जहां हादसा हुआ था और अगले दिन जब वो घटना स्थल पर पहुंचे तो उन्हें इस बारे में और जानकारियां मिली. उनके कजिन को गलत दिशा से आ रही एक जीप ने टक्कर मारी थी और लड़के को ठोकर मारने के कारण डरे हुए ड्राइवर ने भागने की कोशिश में एक बार और जीप लड़के पर चढ़ा दी थी. इससे लड़के को गंभीर चोटें आई थी. किसी तरह लड़का खुद को घसीटते हुए सड़क के किनारे आया और एक पेड़ के सहारे खड़ा होकर आने-जाने वाले लोगों से मदद की गुहार लगा रहा था.

सफेद शर्ट, नीली पैंट पहने और काले जूते के साथ स्कूलबैग लटकाए, जिसने भी उसे इस हालत में देखा उन्हें इस बात पर कोई शक नहीं था कि वो स्कूल जाने वाला एक बच्चा है. कुछ लोगों ने उसे बेहोश होने से रोकने के लिए उस पर पानी के छींटे मारे और वहां से गुजरने वाले कुछ लोगों ने उसे पानी पिलाने की कोशिश भी की, लेकिन किसी ने भी मदद नहीं बुलाई या उसे अस्पताल ले गए. 40-45 मिनट तक लगातार खून बहने के बाद उसकी मौत हो गई.

कानूनी पचड़ों के डर ने लोगों को मदद करने से रोका

ये घटना इतनी भयावह थी और कजिन से उनका रिश्ता इतना करीबी था कि पीयूष इस हादसे से उबर नहीं पा रहे थे. उनके पास कई सवाल थे जिनके जवाब जरूरी थे. उन्होंने नौकरी से कुछ दिनों की छुट्टी ली और लोगों से मिलना शुरू किया — ट्रैफिक सिपाही सहित पुलिसवाले, ट्रॉमा केयर डॉक्टरों, नौकरशाहों, आपातकालीन सेवा से जुड़े लोगों, कानून निर्माताओं — कोई भी व्यक्ति जो कुछ जवाब ढूंढने में उनकी कुछ मदद कर सके. विडंबना ये थी कि जब उनका कजिन सिर्फ छह महीने का था, परिवार ने ठीक इसी तरीके से अपना एक और सदस्य खो दिया था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जैसे-जैसे वो अलग-अलग लोगों से मिल रहे थे तो पीयूष को तीन मुख्य बातें समझ में आईं: पहली, पिछले दशक (1997-2007) में सड़क दुर्घटनाओं में भारत में 10 लाख लोगों की मौत हुई और करीब इसके आधे लोगों की मौत ठीक हो जा सकने वाली चोट के बावजूद हो गई. उन्हें ये भी पता चला कि लोगों की निष्क्रियता, उनके कजिन के मामले में भी, उदासीनता के बजाए पुलिस और कानूनी सिस्टम में पड़ने के डर के कारण थी. ज्यादातर मामलों में मदद करने वाले को ही आरोपी माना जाता था, पुलिस और दूसरे अधिकारियों की सोच ये थी कि “अगर आपने नहीं किया तो आप मदद क्यों कर रहे हैं?”

ADVERTISEMENTREMOVE AD
उन्हें एक और डरावनी बात पता चली: उनके जैसे कई और परिवार हैं जिन्होंने सड़क हादसों में अपने अपनों को खोया है. जिसे वो अजीब इत्तेफाक मान रहे थे वो भारत में एक बहुत ही आम बात थी.

इसी वक्त पर पीयूष ने फैसला किया कि वो सब कुछ ऐसे ही चलने नहीं दे सकते. किसी को आगे आकर सिस्टम को बदलने की जरूरत है और वो व्यक्ति चाहे-अनचाहे वही होने वाले थे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

फरवरी 2008 से जुलाई 2012 तक

सड़क हादसे के नौ महीने बाद उन्होंने सेवलाइफ फाउंडेशन का रजिस्ट्रेशन कराया, जो अपने नाम के मुताबिक लोगों की जान बचाने के लिए काम करेगा. शुरुआत में उन्होंने अपनी नौकरी के साथ अपना काम जारी रखा, जहां उन्हें प्रमोशन देकर मैनेजिंग डायरेयक्टर बना दिया गया था और उनके तहत 600 कर्मचारी थे, लेकिन 2011 तक उन्हें महसूस हुआ कि अगर वो कुछ प्रभावशाली काम करना चाहते हैं तो उन्हें अपना 200 फीसदी समय देना होगा. सेवलाइफ ने जागरूकता फैलाने के लिए पुलिस को ट्रेनिंग देना और अन्य लोगों के साथ काम करना शुरू कर दिया था, लेकिन उन्हें ये भी महसूस हुआ कि जब तक देश में किसी तरह का गुड सैमेरिटन लॉ नहीं बनाया जाता, कड़ी मेहनत के बाद भी उम्मीद की कोई किरण नहीं दिखेगी. वो कानून जो लोगों की मदद के लिए आगे आने पर उन्हें कानूनी और प्रक्रियात्मक जटिलताओं से बचाए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इसके साथ ही सेवलाइफ फाउंडेशन दिल्ली पुलिस को अपने कर्मचारियों को बेहतर रिस्पांस और सीपीआर, ट्रॉमा केयर जैसी दूसरी जान बचाने वाली तकनीकों की ट्रेनिंग देने के लिए मनाने में कामयाब रहा. उस समय शहर और देश भर में एंबुलेंस सेवाएं पर्याप्त नहीं थीं और घटना के बाद पुलिस आमतौर पर सबसे पहले पहुंचती थी.

एसबी देओल जैसे वरिष्ठ अफसरों के साथ देने और रास्ता आसान करने के बाद फाउंडेशन ने हर हफ्ते के अंत में 100 पुलिसकर्मियों को ट्रेनिंग देना शुरू किया.

इस बीच पीयूष ने दिल्ली में, जो हर साल सबसे ज्यादा सड़क हादसों में मौत वाले शहर के रूप में भी बदनाम है, सड़क हादसोंका व्यवस्थित ढंग से रिकॉर्ड रखना भी शुरू कर दिया. उन्होंने गुड सैमेरिटन कानून के प्रस्ताव को लेकर अलग-अलग वर्गों के लोगों से भी मिलना शुरू कर दिया. उन्होंने जीके पिल्लई, इंदु मल्होत्रा और कृष्ण मेहता जैसे बड़े नामों, जो अपने प्रभाव का इस्तेमाल इस उद्देश्य को आगे ले जाने के लिए कर सकते थे, को अपने साथ जोड़ कर अपने फाउंडेशन को मजबूत किया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

समर्थन जुटाना और सड़क हादसों का आर्थिक खामियाजा

2012 तक पीयूष को कई आश्वासन मिल चुके थे, लेकिन जमीन पर काम काफी कम हुआ था. इसी समय उन्होंने काम में तेजी लाने का फैसला किया और सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दाखिल की जिसमें मुख्य मुद्दे पर जोर दिया गया था. साथ ही ये आंकड़ा भी दिया गया कि कितनी जानें बचाई जा सकती थीं और इस तरह की मौत को रोकने में सरकार की विफलता की जानकारी भी दी. सुप्रीम कोर्ट ने याचिका स्वीकार की लेकिन उस समय की सरकार ने अपने स्तर पर इसका विरोध करने की पूरी कोशिश की. कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के लिए एक कमेटी बना दी लेकिन इस दौरान पीयूष ने महसूस किया कि आंदोलन को कोर्ट से आगे भी ले जाना होगा.

2013 के बाद सेवलाइफ ने इस उद्देश्य पर समर्थन जुटाने के लिए चौतरफा अभियान शुरू किया. सड़क दुर्घटनाओं की लागत का तुरंत अनुमान लगाया गया (मौजूदा समय में भारत में सड़क दुर्घटनाओं की लागत जीडीपी का 3 फीसदी अनुमानित है, मौजूदा जीडीपी के हिसाब से 4.3 लाख करोड़ रुपये) और जो भी सुनना चाहते थे उन्हें प्रमुखता से बताया गया. कई न्यूज और टीवी चैनल के साथ ही अभिनेता आमिर खान ने इस विषय पर सत्यमेव जयतेका एक एपिसोड किया. सांसदों ने भी उनकी बातें सुनीं और समर्थन देने को तैयार हुए. मीडिया से भी उन्हें समर्थन मिल रहा था. पीयूष का कहना था, “चाहे जिससे भी मैंने बात की वो जान और पैसे बचाने के महत्व से इनकार नहीं कर सकते थे.” लेकिन क्या करना है उसे स्वीकार करना और उसे करना दो बहुत अलग-अलग चीजें हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

गुड सैमेरिटन लॉ और जीरो फैटेलिटी कॉरिडोर

आखिरकार, 2015 में, सुनवाई में कई मोड़ और बदलाव के बाद सुप्रीम कोर्ट ने माना कि जीवन बचाना “सर्वोपरि” है और जान बचाने के रास्ते में कोई प्रक्रिया नहीं आनी चाहिए. 30 मार्च 2016 को, उनके कजिन की मौत के नौ साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को एक देशव्यापी, बाध्यकारी गुड सैमेरिटन लॉ बनाने का निर्देश दिया जो किसी भी मदद करने की कोशिश करने वालों को अस्पताल, कोर्ट या थानों में कानूनी या प्रक्रियात्मक बाधाओं से बचाएगा. संसद के दोनों सदनों के जरिए पारित करा कर सरकार को ये कानून बनाने में 31 जुलाई 2019 तक का समय लगा.

इस कानून को पारित कराने की लड़ाई जब चल ही रही थी तभी 2014 में फाउंडेशन ने एक अच्छे रोड सेफ्टी लॉ (सड़क सुरक्षा कानून) और बेहतर रोड डिजाइन और ड्राइविंग के दौरान अच्छे व्यवहार पर जोर देना शुरू कर दिया. एक गुड सैमेरिटन लॉ की जरूरत थी, लेकिन इससे भी बेहतर ये होता कि सड़क दुर्घटनाओं को ही रोका जा सके.

खराब डिजाइन और इंजीनियरिंग, सड़कों पर आपातकालीन सेवा की कमी, बेहतर लाइसेंसिंग आवश्यकताओं और सड़क हादसों की फॉरेंसिक जांच सहितव्यापक रोड सेफ्टी लॉ और आदतों पर काम शुरू हो गया है और जारी है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जैसे जागरूकता बढ़ी, कॉरपोरेट जगत, रेड क्रॉस, टाटा ट्रस्ट और दूसरी संस्थाएं इसमें दिलचस्पी लेने लगीं और सेवलाइफ की ओर से बनाए गए जीरो फैटेलिटी कॉरिडोर को प्रायोजित करने लगीं. 2016 में फाउंडेशन ने 94.5 किलोमीटर लंबे मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे को गोद लिया जो कि सड़क हादसों के कारण हर साल 151 मौतों के साथ सबसे खतरनाक रास्तों की गिनती में आता था और तीन साल में इसे कम कर हर साल 70 मौतों (2019) से कम तक लाने में कामयाब रहे. 2020 में फाउंडेशन ने यमुना एक्सप्रेसवे को गोद लिया, एक और खतरनाक सड़क जहां 2012 से 5000 से ज्यादा दुर्घटनाओं में 700 से ज्यादा की जान जा चुकी थी.

सेवलाइन ने कई छोटी-छोटी लड़ाइयां जीती हैं लेकिन पीयूष इस बात को जानते हैं कि ये सिर्फ शुरुआत है. अपने परिवार के दो सदस्यों को खोने वाली उनकी चाची के लिए कोई जवाब नहीं है लेकिन हर जान जिसे बचाने में उनका फाउंडेशन कामयाब रहा है, भारत में कहीं न कहीं अनावश्यक रूप से एक और जान चली गई है. उनका मिशन इसे बदलना है.

(अंजुली भार्गव गोवा में बेस्ड एक सीनियर राइटर और कॉलमनिस्ट हैं.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×