लोकसभा चुनाव से ठीक पहले और हरियाणा विधानसभा चुनाव (Haryana Politics) से छह महीने पहले, राज्य में बड़े पैमाने पर राजनीतिक उथल-पुथल देखी गई. बीजेपी ने हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने अपनी पूरी कैबिनेट के साथ इस्तीफा दे दिया. और खट्टर की जगह नायब सिंह सैनी (Nayab Singh Saini) ने सीएम पद की शपथ ली है. वे अब तक कुरूक्षेत्र से सांसद थे. वहीं राज्य में बीजेपी की गठबंधन सहयोगी जननायक जनता पार्टी (JJP) ने राज्य में बीजेपी से समर्थन वापस ले लिया है.
जेजेपी 2019 से खट्टर सरकार में भागीदार थी. पार्टी के नेता दुष्यंत चौटाला अबतक उपमुख्यमंत्री के रूप में सरकार में थे.
हरियाणा में सियासी उलटफेर क्यों हुआ?
लोकसभा चुनाव के लिए सीट बंटवारे को लेकर बीजेपी और जेजेपी में ठन गई थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने सभी 10 सीटों पर जीत हासिल की थी. जेजेपी 2019 चुनाव से कुछ महीने पहले ही चौटाला परिवार के भीतर विवाद के कारण इंडियन नेशनल लोकदल से अलग हो गई थी. चुनाव में उसने कोई सीट नहीं जीती थी.
2024 के चुनावों के लिए सीट-बंटवारे की चर्चा के दौरान, यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि बीजेपी जेजेपी को ज्यादा कुछ देने के मूड में नहीं है. वहीं जेजेपी को यह महसूस हो रहा था कि उसके प्रभुत्व वाले क्षेत्रों, जैसे हिसार और सिरसा के साथ-साथ सोनीपत जैसी अन्य जाट बहुल सीटों पर भी उसका दावा है. वहां उसे अपने उम्मीदवार उतारने का मौका मिले.
बीजेपी के सूत्रों ने कहा कि पार्टी को सीएम खट्टर के खिलाफ कुछ सत्ता विरोधी लहर की प्रतिक्रिया मिली और नेतृत्व ने फैसला किया कि राज्य चुनाव से पहले ही बदलाव की जरूरत है. पार्टी आलाकमान स्पष्ट था कि इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में खट्टर उसके सीएम पद के उम्मीदवार नहीं हो सकते.
अब माना जा रहा है कि सीएम पद से हटाए जाने के बाद आगामी लोकसभा चुनाव में खट्टर करनाल से बीजेपी के उम्मीदवार हो सकते हैं.
बीजेपी को क्यों लगा कि वह जेजेपी से गठबंधन तोड़ सकती है?
बीजेपी इस बात को लेकर आश्वस्त है कि हरियाणा विधानसभा में उसके पास संख्या बल है. पार्टी के अपने 40 विधायक हैं और उसे छह निर्दलीय और गोपाल कांडा की हरियाणा लोकहित पार्टी के एक विधायक का समर्थन प्राप्त है. इस तरह बीजेपी के पास 90 विधानसभा सीटों वाली हरियाणा में मामूली बहुमत मिल जाएगा.
इसके अलावा, 6 महीनें में ही राज्य में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. यानी पार्टी के लिए वैसे भी बहुत ज्यादा जोखिम नहीं है.
जेजेपी से गठबंधन तोड़ने के पीछे दरअसल बीजेपी का मुख्य गेमप्लान जाट वोटों को बांटना है.
हरियाणा में, कुल आबादी में जाटों की हिस्सेदारी 27 प्रतिशत है और वे सबसे अधिक संख्या में वोट देने वाले समूह हैं. परंपरागत रूप से उनका राज्य में सबसे अधिक राजनीतिक प्रभाव भी रहा है. हरियाणा के अधिकांश मुख्यमंत्री जाट रहे हैं.
बीजेपी को 2019 के लोकसभा चुनावों में जाट वोटों का एक बड़ा हिस्सा मिला, शायद पीएम नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और पुलवामा हमले के बाद की भावना के कारण. लेकिन राज्य स्तर पर पार्टी ने "गैर-जाट राजनीति" की प्रवृत्ति दिखाई है.
मूल रूप से इसका मतलब यह है कि पार्टी ने जाट वर्चस्व के खिलाफ गैर-जाट समुदायों - विशेष रूप से उच्च जातियों और ओबीसी - को एकजुट करने की कोशिश की है. 2016 के जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई हिंसा ने बीजेपी को इस वोट बैंक को मजबूत करने में मदद की.
दूसरी ओर, राज्य स्तर पर जाटों ने कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोकदल (INLD) को वोट दिया. जेजेपी अपने गठन के बाद जाट वोटों के एक और दावेदार के रूप में उभरी.
ऐसा लगता है कि बीजेपी ने यह अनुमान लगाया होगा कि जेजेपी के अलग से चुनाव लड़ने से जाट वोटों में तीन-तरफा विभाजन हो सकता है, जबकि खुद बीजेपी गैर-जाट वोटों को एकजुट कर लेगी. और इसी लिहाज से नए सीएम का चयन अहम है.
बीजेपी ने नायब सिंह सैनी को क्यों चुना?
सीएम के रूप में ओबीसी नेता नायब सिंह सैनी की पसंद बीजेपी की उसी जाति-आधारित समीकरण से उपजी है.
नए सीएम सैनी या माली जाति से हैं. सैनी हरियाणा की कुल आबादी के 8 प्रतिशत हैं और इस तरह जाटों की तुलना में बहुत कम संख्या में हैं. फिर भी वे हरियाणा में ओबीसी के बड़े हिस्से में से एक हैं और कुरूक्षेत्र, यमुनानगर, अंबाला, हिसार और रेवाड़ी जिलों में प्रभावशाली हैं. वे उत्तर प्रदेश के ऐसे कुछ जिलों में भी एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं जो हरियाणा से सटे हैं, जैसे कि सहारनपुर.
नायब सैनी मनोहर लाल खट्टर के करीबी माने जाते हैं. ये दोनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ/ आरएसएस की पृष्ठभूमि से आते हैं और दोनों का राजनीतिक आधार ग्रैंड ट्रंक रोड बेल्ट में है, जहां बीजेपी सबसे मजबूत है.
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