मोदी सरकार (Modi Govt) 2014 से लेकर अब तक कई चीजों को लेकर विवादों में रही है, फिर चाहे वो संसद से अपनी पसंद के बिल पास करवाना हो या फिर हर बड़े फैसले में विपक्ष को बायपास करना... लेकिन मोदी सरकार पर स्वतंत्र और संवैधानिक संस्थानों के साथ छेड़छाड़ के भी कई आरोप लगते आए हैं. अब एक ऐसा ही मामला सामने आया है, जिसे लेकर विवाद शुरू हो चुका है.
पीएमओ की तरफ से बैठक में शामिल होने का फरमान?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक मोदी सरकार की तरफ से चुनाव आयोग को एक चिट्ठी भेजकर कहा गया कि, पीएमओ के प्रिसिंपल सेक्रेट्री की अध्यक्षता में एक बैठक बुलाई जा रही है, जिसमें आपसे उपस्थित रहने की अपेक्षा की जाती है. जिसके बाद 16 नवंबर को मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्र और बाकी दोनों चुनाव आयुक्त राजीव कुमार और अनूप चंद्र पांडे इस बैठक में शामिल हुए.
रिपोर्ट में बताया गया है कि, पीएमओ की तरफ से ऐसे बुलावे को लेकर चुनाव आयोग ने ऐतराज भी जताया, लेकिन आखिरकार बैठक में शामिल होने का फैसला लिया गया. क्योंकि चुनाव आयोग एक स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्था के तौर पर काम करती है, इसीलिए कोई भी सरकार चुनाव आयुक्त को इस तरह से बैठक में नहीं बुला सकती है.
खुद पीएम भी ऐसे चुनाव आयुक्त को नहीं बुला सकते - पूर्व CEC
इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों ने मोदी सरकार के इस फैसले को गलत बताया और इसे चुनाव आयोग की छवि के लिए बुरा करार दिया. उन्होंने कहा कि इससे चुनाव आयोग की स्वतंत्रता पर असर पड़ सकता है. पूर्व सीईसी एसवाई कुरैशी ने कहा कि,
"मेरे हिसाब से ये बिल्कुल भी ठीक नहीं है. क्या सरकार चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को सुप्रीम कोर्ट के तमाम अन्य जजों के साथ ज्युडिशियल रिफॉर्म पर बातचीत के लिए बुला सकती है? तो चुनाव आयोग को बैठक के लिए क्यों बुलाया गया? यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री भी मुख्य चुनाव आयुक्त को बैठक के लिए नहीं बुला सकते हैं."पूर्व सीईसी एसवाई कुरैशी
तो आपने ये जान लिया कि मौजूदा विवाद क्या है और कैसे तमाम नियमों-परंपराओं को ताक पर रखते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त समेत अन्य दो आयुक्तों को बैठक के लिए बुलावा भेजा गया. लेकिन ये पहली बार नहीं है जब मोदी सरकार ने ऐसा किया है. इससे पहले भी सरकार कई बार ऐसे संवैधानिक संस्थानों को लेकर विवादों में रह चुकी है. जिसमें संस्थानों की स्वायत्तता को लेकर सवाल खड़े हुए.
आरबीआई बनाम मोदी सरकार
भारत का केंद्रीय बैंक यानी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ भी मोदी सरकार का विवाद हो चुका है. यहां भी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्वायत्तता को लेकर सवाल खड़े हुए थे. दरअसल मोदी सरकार ने लंबे विवाद के बाद रिजर्व बैंक से सरप्लस पूंजी के तौर पर 1.76 लाख करोड़ रुपये लिए. दावा किया गया कि सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों की बिगड़ती हालत को सुधारने के लिए ऐसा किया जा रहा है. लेकिन इस फैसले पर देश और विदेश में सरकार की जमकर आलोचना हुई. कहा गया कि मोदी सरकार रिजर्व बैंक पर दबाव बनाकर अपना स्वार्थ साधने की कोशिश कर रही है.
यहां तक कि इस मामले को लेकर आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल और सरकार के बीच लंबी बहस चली थी. पटेल ने सरकार के खिलाफ कई स्तर पर अपनी आपत्ति जताई थी. जिसका नतीजा ये हुआ कि उन्होंने अपने कार्यकाल से पहले ही अपना इस्तीफा सौंप दिया. इसके बाद आरबीआई के तत्कालीन डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी सरकार को चेतावनी देते हुए कहा था कि, रिजर्व बैंक में सरकार के नीतिगत हस्तक्षेप के नतीजे बुरे होंगे. क्योंकि सरकार रिजर्व बैंक के सुरक्षित पैसे को इस्तेमाल करने की बात कर रही है.
तमाम आर्थिक जानकारों ने कहा था कि, सरकार का ये फैसला आरबीआई की छवि को दुनियाभर में धूमिल करेगा और इससे ये लगेगा कि सरकार रिजर्व बैंक को अपने नियंत्रण में लेकर चल रही है. जिससे निवेशक भारत में निवेश करने में हिचकने लगेंगे. साथ ही ये देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक खतरे की तरह है.
मोदी-शाह को चुनाव आयोग से क्लीनचिट का मामला
2019 लोकसभा चुनाव के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप लगे. शिकायत पर चुनाव आयोग ने जांच भी शुरू कर दी. लेकिन आखिरकार फैसले में बताया गया कि दोनों नेताओं को आयोग की तरफ से क्लीन चिट दे दी गई है. लेकिन इस दौरान तत्तकालीन चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने क्लीन चिट दिए जाने का विरोध किया था. इसे लेकर उनकी असहमतियों को आयोग ने अपने फैसले में शामिल नहीं किया.
अशोक लवासा ने कहा कि, मेरी तरफ से क्लीन चिट के विरोध में दी गई असहमतियों को भी फैसले में शामिल किया जाना चाहिए. लेकिन आयोग ने कहा कि अल्पमत के फैसले को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है.
बाद में लवासा की इन आपत्तियों को सार्वजनिक करने की मांग करते हुए एक आरटीआई दाखिल की गई, लेकिन चुनाव आयोग ने ये कहते हुए सूचना देने से इनकार कर दिया कि इससे किसी व्यक्ति की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है. इसके बाद आरटीआई दाखिल करने वाले डॉ जसदीप सिंह ने केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) को इसे लेकर लिखा. लेकिन वहां से भी लवासा की आपत्तियों वाली फाइल की जानकारी नहीं दी गई. इसे लेकर भी मोदी सरकार की जमकर आलोचना हुई थी और चुनाव आयोग पर सवाल खड़े हुए थे.
रिजर्व बैंक बोर्ड में RSS से जुड़ा सदस्य
साल 2018 में रिजर्व बैंक में हुई एक नियुक्ति काफी सुर्खियों में रही थी. जब बीजेपी और संघ परिवार के बेहद करीबी एस गुरुमूर्ति को रिजर्व बैंक बोर्ड में सरकार ने नियुक्त किया. वो पेशे से सीए और स्वदेशी जागरण मंच के सह-संयोजक भी रह चुके हैं. बताया गया कि प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह के करीबी होने के चलते उन्हें रिजर्व बैंक में एंट्री दिलाई गई. इसके बाद उन पर मोदी सरकार के कई फैसलों को लागू करवाने को लेकर काम करने के आरोप लगते रहे. रिजर्व बैंक में विवाद का कारण भी गुरुमूर्ति को ही बताया गया. आरबीआई ने खुद माना था कि गुरुमूर्ति अपने सुझावों को उन पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं. जिससे केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता पर असर पड़ रहा है.
मोदी सरकार की इस विवादित नियुक्ति के बाद कहा गया कि सरकार ने रिजर्व बैंक की ताकत को कमजोर करने के लिए गुरुमूर्ति को बोर्ड में शामिल किया है. इसे सीधे तौर पर आरबीआई में मोदी सरकार और आरएसएस की दखल की तरह देखा गया. गुरुमूर्ति ने नोटबंदी जैसे फैसलों पर सरकार का बचाव करने का काम किया, साथ ही ऐसे हर मोर्चे पर वो सरकार का पक्ष रखते रहे.
राज्यपालों से लिए गए इस्तीफे
मोदी सरकार ने आते ही राज्यपाल, जो कि एक संवैधानिक पद होता है... उस पर बैठे लोगों से जबरन इस्तीफे लेने शुरू कर दिए. जिसे लेकर काफी विवाद हुआ और सरकार की आलोचना हुई. यूपी के तत्तकालीन राज्यपाल बीएल जोशी, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल एमके नारायणन समेत छत्तीसगढ़, गोवा और नागालैंड के राज्यपाल को केंद्र के इशारे पर इस्तीफा सौंपना पड़ा. वहीं कुछ राज्यपालों के तबादले कर दिए गए.
इस फैसले का केरल की तत्तकालीन राज्यपाल शीला दीक्षित ने विरोध किया था, लेकिन बाद में उन्हें भी अपना इस्तीफा सौंपना पड़ा. राज्यपालों के विरोध का मामला कोर्ट तक भी जा पहुंचा था. यहां भी मोदी सरकार को अपनी जिद और संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के साथ ऐसे व्यवहार के चलते खूब आलोचना का सामना करना पड़ा.
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