Lok Sabha Election 2024: मध्य प्रदेश तीसरे चरण के चुनाव के लिए तैयार है. तीसरे फेज में राज्य के कई दिग्गज नेताओं की साख दांव पर है. सुबे के दो पूर्व मुख्यमंत्री, बीजेपी के शिवराज सिंह चौहान और कांग्रेस के दिग्विजय सिंह के साथ-साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया भी चुनावी मैदान में हैं.
एमपी की 29 में से 9 सीटों पर तीसरे चरण में 7 मई को मतदान होंगे.
चुनावी एक्सपर्ट का मानना है कि तीसरा फेज राज्य में सत्ता पर काबिज बीजेपी और विपक्ष में बैठी कांग्रेस, दोनों के लिए महत्वपूर्ण है. यह आगे के चरणों के लिए रुझान और प्रचार की रणनीतियों को साफ करेगा. साथ ही यह पहचान हो पाएगी कि आने वाले चरणों में चुनावी रणनीति में बदलाव की आवश्यकता है या नहीं.
मध्यप्रदेश पिछले कुछ सालों में राजनीतिक उथल-पुथल का गवाह रहा है. पूर्व कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में शामिल होने से लेकर हाल के चुनावों में राज्य में बीजेपी की एकतरफा जीत तक. और फिर राज्य के नए मुख्यमंत्री के रूप में सबको चकित करते हुए उज्जैन से विधायक मोहन यादव को चुना जाना. ऐसे में राजनीतिक गलियारों में तीसरे चरण के लिए अटकलों और भविष्यवाणियों का बाजार गर्म है.
इस आर्टिकल में, क्विंट हिंदी तीनों हॉट सीटों- विदिशा, राजगढ़ और गुना के प्रमुख राजनीतिक रुझानों, मुद्दों और चुनौतियों से आपको रूबरू करा रहा है.
विदिशा में 'मामा VS दादा'
1967 में विदिशा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र अस्तित्व में आया. तब से इस सीट पर जनसंघ और फिर बीजेपी का दबदबा रहा है. सिर्फ दो बार, 1980 और 1984 में उसे हार का सामना करना पड़ा, जब कांग्रेस के प्रताप भानु शर्मा ने सीट पर जीत हासिल की.
1989 से इस सीट पर बीजेपी नेताओं की जीत होती रही है. 1991 से 2004 के बीच, शिवराज सिंह चौहान इस सीट से पांच बार चुने गए.
अब शिवराज सिंह चौहान दो दशक बाद लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए लौट रहे हैं. उनका सामना कांग्रेस के प्रताप भानु शर्मा से ही है. शर्मा इस सीट से जीतने वाले एकमात्र कांग्रेस उम्मीदवार है. ऐसे में स्थानीय लोगों का कहना है कि शिवराज सिंह चौहान को सीएम के पद से हटाए जाने के बाद मतदाताओं का जुड़ाव मामा के प्रति मजबूत हुआ है.
विदिशा शहर में ऑटो पार्ट्स मैकेनिक, 28 वर्षीय शुभम सिंह, क्विंट हिंदी को बताते हैं कि शहर में बस यही चर्चा है कि शिवराज सिंह की जीत का अंतर क्या होगा.
मामा जी हमारे नेता हैं. इसमें कोई संदेह नहीं है. हम सभी उन्हें देश में सबसे अधिक अंतर से उन्हें जिताने के लिए तैयार हैं.शुभम सिंह
शुभम 14 हजार रुपये प्रति माह कमाते हैं. उनकी पत्नी और एक बच्चा उनपर निर्भर है. फिर भी वह कहते हैं कि वह शिवराज चौहान (मामा) को वोट देंगे क्योंकि महिलाओं के लिए शिवराज की नीतियों से उनके घर को मदद मिली है.
विदिशा निर्वाचन क्षेत्र रायसेन, विदिशा, सीहोर और देवास जिलों के कुछ हिस्सों को कवर करता है. इसमें आठ विधानसभा सीटें शामिल हैं- भोजपुर, सांची, सिलवानी, विदिशा, बासौदा, बुधनी, इछावर और खातेगांव. इनमें से सिलवानी को छोड़कर बाकी सभी पर फिलहाल बीजेपी का कब्जा है.
ग्रामीण माने जाने वाली इस लोकसभा सीट पर करीब 19.1 लाख वोटर हैं.
विदिशा के स्थानीय पत्रकार संदीप ने क्विंट हिंदी को बताया कि जमीन पर कांग्रेस का चुनावी अभियान ज्यादा प्रभावी नहीं रहा है. उनका दावा है कि यदि मतदान प्रतिशत बढ़ता है, तो प्रताप भानु शर्मा या 'दादा' के खिलाफ 'मामा' भारी बढ़त हासिल कर सकते हैं.
संदीप ने आगे बताया, विदिशा में कांग्रेस के उम्मीदवार के चयन पर ज्यादा सोच-विचार नहीं किया गया. यह कुछ ऐसा है कि आप एक रिटायर हुए बॉक्सर को किसी ऐसे चैम्पियन के खिलाफ लड़ने के लिए मजबूर कर रहे हैं जो लगातार जीत रहा है और अपने करियर के चरम पर है. 'मामा बनाम दादा' की लड़ाई में, मामा को स्पष्ट बढ़त हासिल है. 'मोदी फैक्टर' ने उन्हें और भी अधिक बढ़त दे दी है.
भले ही कांग्रेस की 'मामा बनाम दादा' रणनीति विदिशा में काम करती नहीं दिख रही है, लेकिन वहां से लगभग 150 किमी दूर राजगढ़ लोकसभा क्षेत्र में तीन दशकों के बाद कांग्रेस के दिग्विजय सिंह की वापसी ने चुनावी मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है.
गढ़ में जीत की उम्मीद लेकर दिग्विजय सिंह 3 दशक बाद लौटे
56 साल के कट्टर कांग्रेस कार्यकर्ता गजेंद्र दांगी जोश में आकर कहते हैं कि अब जब 'दिग्गी राजा' वापस आ गए हैं, आप देखेंगे कि चुनाव कैसे लड़े और जीते जाते हैं".
दिग्विजय सिंह तीन दशकों के बाद लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए अपने गृह क्षेत्र में लौटे हैं. यहां उनका मुकाबला बीजेपी के रोडमल नागर से है, जिन्होंने पिछले दो संसदीय चुनावों में जीत हासिल की है. अपने अभियानों में दिग्विजय सिंह ने बेरोजगारी, मंहगाई और क्षेत्र में रोडमल नागर की अनुपस्थिति के मुद्दे उठाए हैं.
1993 से 2003 तक अपने एक दशक के लंबे सीएम कार्यकाल के बाद से दिग्विजय सिंह चुनावों से दूर रहे हैं, लेकिन वह राज्य में बीजेपी के लिए एक टारगेट बन हुए हैं. माना जा रहा है कि कांग्रेस इकाई पर उनकी पकड़, कैडर तथा जनता के बीच उनके मजबूत संबंध उनके द्वारा की गई कई यात्राओं से मजबूत हुए हैं.
इसमें सबसे उल्लेखनीय नर्मदा यात्रा है जो लगभग 200 दिनों तक चली. इसमें 70 वर्षीय दिग्विजय सिंह, अपनी पत्नी अमृता राय के साथ 2017-18 में 3,300 किमी से अधिक चले.
लेकिन एक तरफ जहां यात्राओं ने उन्हें पार्टी के भीतर अपनी स्थिति को मजबूत करने में मदद की, वहीं चुनावी राजनीति से उनकी अनुपस्थिति ने आरएसएस और बीजेपी के लिए राजगढ़ में खुद को स्थापित करने और अपनी पकड़ बनाए रखने में मददगार बनी.
दिग्विजय सिंह पहली बार सांसद 1984 में बने जब उन्होंने राजगढ़ संसदीय सीट से जीत हासिल की. हालांकि 1991 में बीजेपी से यह सीट वापस जीतने से पहले वह 1989 में यहां से हारे थे.
दिग्विजय के मध्यप्रदेश का सीएम बनने के बाद, उनके भाई लक्ष्मण सिंह ने निर्वाचन क्षेत्र पर कब्जा कर लिया और अगले पांच बार इस सीट से जीत हासिल की. इस बीच बीजेपी एक मौके की तलाश में थी. वह मौका 2003 में मिला जब लक्ष्मण सिंह बीजेपी में शामिल हो गए. 2004 में उन्होंने बीजेपी उम्मीदवार के रूप में यहां से जीत हासिल की.
पिछले दो चुनावों में बीजेपी के रोडमल नागर ने इस सीट से निर्णायक जीत हासिल की है क्योंकि पार्टी ने क्षेत्र में अपनी जड़ें और मजबूत कर ली हैं.
राजगढ़ लोकसभा सीट में आठ विधानसभा क्षेत्र आते हैं- राघौगढ़, नरसिंहगढ़, ब्यावरा, राजगढ़, चाचौरा, खिलचीपुर, सारंगपुर (एससी) और सुसनेर. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल एक सीट, राघोगढ़ जीतने में कामयाब रही थी. यहां से दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन ने जीत हासिल की थी.
नाम न छापने की शर्त पर एक स्थानीय पत्रकार का कहना है कि रोडमल नागर एकतरफा जीत होती, लेकिन इस सीट से दिग्विजय सिंह के नामांकन ने समीकरण पूरी तरह बदल दिया है.
वे कहते हैं कि “रोडमल नागर उसी तरह जीतते जैसे उन्होंने पिछले दो चुनावों में ‘मोदी फैक्टर’ के दम पर जीता था. लेकिन जब से दिग्विजय सिंह वापस आए हैं, राजनीतिक चर्चा सत्तारूढ़ बीजेपी द्वारा किए गए कामों और अधूरे छोड़े गए वादों पर केंद्रित हो गई है. पुरानी पीढ़ी दिग्विजय सिंह की प्रशंसक है और उन्हें जननेता के रूप में जाना जाता है. चूंकि उनकी राजनीति राघौगढ़ से शुरू हुई और उन्होंने संसद में दो बार राजगढ़ का प्रतिनिधित्व किया है, इसलिए पलड़ा एक बार फिर कांग्रेस के पक्ष में झुक गया है."
एक अन्य स्थानीय किराना दुकानदार, 66 वर्षीय श्याम डांगी का मानना है कि बीजेपी उम्मीदवार रोडमल नागर आरएसएस की समर्पित संगठनात्मक मशीनरी का लाभ उठा रहे हैं, लेकिन मैदान में दिग्विजय सिंह के सामने नागर की जीत की बहुत कम संभावना है.
“हम राजा साहब को जानते हैं (जैसा कि राज्य में लोकप्रिय रूप से दिग्विजय सिंह को कहा जाता है) – और वह हमारी धरती के पुत्र हैं. रोडमल नागर को प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस के काम का फल मिला है, लेकिन राजगढ़ के मतदाताओं से उनका कोई व्यक्तिगत जुड़ाव नहीं है. दूसरी ओर, राजा साहब के हर गांव में मित्र और शुभचिंतक हैं. वह उन्हें नाम से याद हैं और वे भी राजा साहब के लिए भावना रखते हैं. चूंकि यह उनका आखिरी चुनाव है, इसलिए वह सीट जरूर जीतेंगे.श्याम डांगी
राजगढ़ में दिग्विजय सिंह अपनी किस्मत फिर आजमा रहे हैं, तो वहीं 120 दूर उनके पूर्व सहयोगी और अब एक कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी ज्योतिरादित्य सिंधिया अपना वर्चस्व फिर से हासिल करने और लोकसभा चुनाव 2019 के संसदीय चुनावों की हार से उबरने की कोशिश कर रहे हैं.
2019 की हार के बाद गुना को फिर से जीतना चाहते हैं सिंधिया
सिंधिया की गुना लोकसभा क्षेत्र से चार बार की जीत का सिलसिला 2019 में समाप्त हो गया, जब उनके करीबी सहयोगी केपी यादव ने उन्हें बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ते हुए चौंकाने वाली हार दी.
सिंधिया बाद में कांग्रेस से बीजेपी में चले गए. अब वे अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को फिर से पाना चाह रहे हैं- इस बार बीजेपी के नेता के तौर पर.
दूसरी ओर, कांग्रेस ने बीजेपी की रणनीति से सीख लेते हुए सिंधिया के खिलाफ राव यादवेंद्र सिंह को मैदान में उतारा है- सिंधिया के सामने यादव. आठ विधानसभा क्षेत्रों को कवर करने वाली गुना सीट पर यादव समुदाय निर्णायक वोट रखता है. इनमें से छह सीटें बीजेपी के पास हैं, जबकि दो सीटों पर कांग्रेस के विधायक.
गुना परंपरागत रूप से सिंधिया परिवार का नगर रहा है. 1957 में यहां हुए पहले चुनाव में विजया राजे सिंधिया ने जीत हासिल की थी. 1971 में, विजया राजे के बेटे माधवराव सिंधिया ने जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ा और यहां पहला चुनाव जीता. 2001 में माधवराव की मृत्यु के बाद, उनके बेटे ज्योतिरादित्य ने 2002 में हुए उपचुनाव में चुनाव लड़ा और विरासत को जारी रखा.
उस साल ज्योतिरादित्य ने न केवल अपना पहला चुनाव जीता, बल्कि जनता का भरोसा भी जीता. 2014 में जब कांग्रेस विरोधी भावनाएं चरम पर थीं और कई दिग्गज कांग्रेस नेताओं को हार का सामना करना पड़ा था, तब भी गुना से ज्योतिरादित्य ने जीत हासिल की थी.
हालांकि, 2019 में झटका लगा, जब सिंधिया के करीबी सहयोगी केपी यादव ने बीजेपी के टिकट पर लड़कर उन्हें हरा दिया.
क्विंट हिंदी से बात करते हुए गुना जिले की रचना यादव कहती हैं, ''हम पीढ़ियों से महाराज के वोटर रहे हैं लेकिन पिछले चुनाव में हमने अपने समुदाय के नेता को वोट दिया. अब जब यादव समुदाय फिर से महाराज का समर्थन कर रहा है, तो हम उन्हें अपने वोटों से आशीर्वाद देंगे कि वह हमारे बच्चों को रोजगार प्रदान करेंगे.
रचना भोपाल से पढ़ाई कर रहे दो इंजीनियरिंग छात्रों की मां हैं. हालांकि, यादव समुदाय के एक अन्य युवा का दावा है कि युवा पहले दोनों पार्टियों द्वारा किए गए वादों का विश्लेषण करेंगे और फिर तय करेंगे कि किसे वोट देना है.
युवक ने आगे कहा, “इस समय युवाओं के लिए यह चुनना कठिन है. नौकरियां अधिक नहीं हैं और बढ़ती कीमतों का मुद्दा हम सभी को परेशान कर रहा है. मैं पढ़ता हूं. मेरे कॉलेज की फीस और रेंट पिछले कुछ वर्षों में बढ़ गए हैं, इसलिए मेरी उम्र के लोगों ने अभी कुछ तय नहीं किया कि हमें किसे वोट देना है."
गुना के स्थानीय पत्रकारों का भी दावा है कि सिंधिया को बाकी उम्मीदवारों पर बढ़त हासिल है.
एक पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर क्विंट हिंदी को बताया, “पिछली बार, उनके करीबी सहयोगी, जो उनकी रणनीति के बारे में बहुत कुछ जानते थे, को बीजेपी का समर्थन मिला और उन्होंने सिंधिया को हरा दिया. इस बार बीजेपी के साथ मिलकर सिंधिया के व्यक्तिगत वोट बैंक ने उन्हें अपने समकक्ष के खिलाफ बड़ी बढ़त दे दी है. देखने वाली बात केवल यह है कि यादव वोट बैंक कितना एकजुट रहेगा."
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