प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 26 अप्रैल को पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को अंतिम सम्मान देने के लिए चंडीगढ़ पहुंचे थे. प्रकाश सिंह बादल का मंगलवार को मोहाली में निधन (Parkash Singh Badal Death) हो गया था. मोदी सरकार ने दो दिन के राष्ट्रीय शोक का भी ऐलान किया था.
इससे दोनों नेताओं के बीच घनिष्ठ संबंध का संकेत मिलता है. हालांकि दोनों के बीच के इस संबंध में अपनी कुछ जटिलताएं भी थीं. हम इस आर्टिकल में इन दोनों पहलुओं को देखेंगे.
कैसे प्रकाश सिंह बादल और नरेंद्र मोदी 90 के दशक के मध्य में एक दूसरे के नजदीक आए
पीएम मोदी को प्रकाश सिंह बादल के साथ निकटता से बातचीत करने का मौका मिला, जब उन्हें 1996 में पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के लिए बीजेपी के राष्ट्रीय प्रभारी सचिव के रूप में तैनात किया गया था. इस दायित्व का मतलब था कि उन्हें लंबे समय तक चंडीगढ़ में रहना शामिल था और इस इसी बीच पीएम मोदी ने बादल के साथ एक समीकरण बनाया.
चूंकि बादल पहले भी मुख्यमंत्री रह चुके थे और कई साल सीनियर थे, पीएम मोदी का दावा है कि उन्होंने हमेशा बदल को एक पिता तुल्य और एक मार्गदर्शक के रूप में देखा. पीएम मोदी ने इसी तरह हरियाणा में ओम प्रकाश चौटाला और हिमाचल प्रदेश में प्रेम कुमार धूमल के साथ अच्छे संबंध विकसित किए.
1997 में पंजाब में अकाली-बीजेपी सरकार सत्ता में आई, और उस समय पीएम मोदी प्रभारी थे. लगभग उसी समय, बीजेपी INLD के साथ हरियाणा में भी एक गठबंधन सरकार का हिस्सा बनी और हिमाचल प्रदेश में अपने दम पर सत्ता में आई.
इस अत्यधिक सफल कार्यकाल के कारण मोदी को प्रमोशन मिला और उन्हें बीजेपी के महासचिव (संगठन) के रूप में नियुक्त किया गया.
गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी मोदी ने बादल के साथ दोस्ती कायम रखी. 2013 में पार्टी का पीएम चेहरा घोषित किए जाने के बाद, बादल उन पहले बीजेपी सहयोगियों में से एक थे, जिनके पास मोदी पहुंचे थे.
नीतीश कुमार ने मोदी की उम्मीदवारी पर साथ एनडीए छोड़ दिया तो सुषमा स्वराज के लिए शिवसेना ने आवाज उठाई. इसके विपरीत प्रकाश सिंह बादल मोदी के समर्थन में स्पष्ट थे.
बादल ने 2013 के दंगों में मोदी को मिली 'क्लीन चिट' का भी स्वागत किया. हालांकि, 2014 में मोदी के पीएम बनने के बाद चीजें बदलनी शुरू हुईं और जब अमित शाह पार्टी अध्यक्ष बने तो समीकरण और तेजी से बदले.
2014 के बाद बदलाव
2014 के बाद भी, बादलों के साथ संबंध मधुर बने रहे और 2015 में प्रकाश सिंह बादल को दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान - पद्म विभूषण - दिया गया. हालांकि, मोदी और शाह के नेतृत्व में, बीजेपी की मुख्य प्राथमिकता उसका अपना विस्तार था, भले ही वह सहयोगियों की कीमत पर हो.
भाजपा और आरएसएस में एक भावना थी कि बादल ने उन्हें पंजाब में सत्ता का एक टुकड़ा दिया था, उन्होंने राज्य में बीजेपी के उत्थान को बाधित किया था और बीजेपी को अपने शहरी हिंदू आधार से आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दी थी.
इस बात पर भी नाराजगी थी कि बादल ने अकाल तख्त को अपना हुकमनामा वापस लेने के लिए ज्यादा कोशिश नहीं की, जिसमें सिखों को आरएसएस के साथ नहीं जुड़ने की बात कही गई थी.
दूसरी ओर, अकालियों ने महसूस किया कि जहां तक पंजाब के लिए केंद्रीय धन प्राप्त करने का संबंध है, मोदी बहुत मदद नहीं कर रहे हैं. वास्तव में कुछ लोगों का कहना है कि बादल सरकार को इस मोर्चे पर मनमोहन सिंह सरकार से बेहतर साथ मिला था, वो भी दोनों पार्टियों के बीच प्रतिद्वंद्विता के बावजूद.
बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनावों और इससे भी ज्यादा 2017 के विधानसभा चुनावों और गुरदासपुर उपचुनाव में महसूस किया कि अकाली बीजेपी उम्मीदवारों को सिख वोटों के ट्रांसफर को सुनिश्चित करने में बहुत प्रभावी नहीं थे.
मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को वोट देने में सिखों की सामान्य अनिच्छा ने भी इस विभाजन को बढ़ा दिया.
2017 के बाद वैसे भी बादल काफी कमजोर हो गए थे और बीजेपी नेतृत्व तेजी से पंजाब में अकेले के दम पर भविष्य की तैयारी करने लगा. वास्तव में कई मुद्दों पर ऐसा लगा कि बीजेपी बादल के उत्तराधिकारी कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ अधिक सहज है.
यह 2019 के बाद तेज हो गया. बीजेपी ने सुखदेव ढींडसा जैसे बादलों के आंतरिक प्रतिद्वंद्वियों को करीब लाना शुरू कर दिया. ढींडसा को 2019 में पद्म भूषण दिया गया था, भले ही वह बादलों को कमजोर करने की कोशिश कर रहे थे, फिर भी उस समय बीजेपी के सहयोगी थे.
नांदेड़ में हुजूर साहिब के प्रबंधन जैसे सिख निकायों पर नियंत्रण को लेकर भी बीजेपी और अकाली दल के बीच खींचतान बढ़ रही थी. परिणामस्वरूप, SAD ने 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया.
कृषि कानून और उनके परिणाम
2020 में पेश किए गए कृषि कानून ताबूत में आखिरी कील थे. हालांकि बादल परिवार ने शुरू में इसका समर्थन किया, लेकिन पंजाब में जनमत की लहर ने उन्हें न केवल पीछे हटने के लिए बल्कि बीजेपी के साथ अपने 24 साल पुराने गठबंधन को तोड़ने के लिए मजबूर कर दिया.
प्रकाश सिंह बादल ने कृषि कानूनों के विरोध में पद्म विभूषण लौटा दिया.
हालांकि मोदी और बादल ने कभी भी सीधे तौर पर एक-दूसरे पर हमला नहीं किया, लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि बीजेपी और अकाली दल अब राजनीतिक रूप से संगत नहीं थे. मोदी और शाह के नेतृत्व में, बीजेपी स्पष्ट रूप से अकाली दल के लिए कोई रियायत देने को तैयार नहीं थी. इस बीच अकाली दल के ग्रामीण सिख आधार में ही जनमत पहले से कहीं ज्यादा बीजेपी के खिलाफ हो गया.
अब प्रकाश सिंह बादल के निधन से बीजेपी-अकाली दल का समीकरण बदल सकता है, चाहे पहले से अच्छा हो या पहले से और बुरा.
एक संभावना यह है कि सुखबीर बादल को वापस बीजेपी में जाने और भगवा पार्टी के लिए अधिक अनुकूल शर्तों पर गठबंधन के लिए सहमत होने के लिए मजबूर किया जा सकता है.
एक संभावित समझौता यह हो सकता है कि बीजेपी 3 के बजाय 5-6 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़े, बदले में अकाली दल को विधानसभा स्तर पर सीटों का बड़ा हिस्सा मिले.
दूसरी संभावना यह है कि सिख धार्मिक नेतृत्व अकाली दल के मामलों पर बहुत अधिक प्रभाव डालेगा और अकाली दल से भी सख्त बीजेपी विरोधी रुख अपनाने के लिए जोर देगा- खासकर इसलिए भी क्योंकि सिख निकायों पर नियंत्रण दोनों पार्टियों के बीच विवाद का एक प्रमुख कारण है.
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