शिरोमणि अकाली दल (SAD) ने अपने संरक्षक प्रकाश सिंह बादल को ऐसे समय में खोया (Parkash Singh Badal Death) है जब वह राजनीतिक रूप से सबसे कमजोर स्थिति में है. इन चार पहलुओं पर विचार कीजिए-
SAD ने पंजाब में लगातार दो विधानसभा चुनाव - 2017 और 2022 हारे हैं और लगातार तीन लोकसभा चुनावों - 2009, 2014 और 2019 में खराब प्रदर्शन किया है.
इसकी विधानसभा सीट 2012 में 56 से घटकर 2017 में 15 और 2022 में सिर्फ तीन तक सीमित हो गयी है. यहां तक कि प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर बादल भी अपनी सीटों से हार गए.
SAD के पास वर्तमान में केंद्र की सत्ता में भी कोई हिस्सेदारी नहीं है.
सिख संस्थानों और पंथिक राजनीति पर इसके नियंत्रण को एक तरफ बीजेपी समर्थित प्रॉक्सी और दूसरी तरफ कट्टरपंथी तत्वों से चुनौती मिल रही है.
तो इस संदर्भ में, प्रकाश सिंह बादल के निधन के बाद अकाली दल का भविष्य कैसा दिख रहा है? इन 7 चीजों पर रहेगी नजर.
1. सुखबीर बादल कहीं नहीं जा रहे हैं लेकिन उन्हें शक्ति बांटने के लिए मजबूर किया जा सकता है
सुखबीर बादल का अभी भी संगठन पर काफी नियंत्रण है. अकाली दल के नेतृत्व में बदलाव की संभावना नहीं है. सुखबीर को भले ही प्रकाश सिंह बादल का विनम्र और मिलनसार व्यवहार विरासत में नहीं मिला हो, लेकिन उन्हें अपने पिता से राजनीतिक चतुरता का एक बड़ा हिस्सा विरासत में मिला है.
उन्हें चुनावी सूक्ष्म प्रबंधन/माइक्रो मैनेजमेंट में माहिर माना जाता है और जब पंजाब का राजनीतिक परिदृश्य और अधिक खंडित हो रहा है, पार्टी को इससे मदद मिल सकती है.
हालांकि, यह संभावना है कि सुखबीर बादल अन्य नेताओं को अपनी शक्ति ट्रांसफर करने और कम से कम एक सामूहिक नेतृत्व का आभास देने के लिए मजबूर होंगे.
2. सिख बॉडीज अधिक स्वायत्तता का दावा कर सकती हैं
हालांकि अकाली दल को अभी भी बादल परिवार द्वारा काफी हद तक नियंत्रित किया जाता है, लेकिन अकाल तख्त और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी) जैसे शीर्ष सिख निकाय कुछ समय से अधिक स्वायत्तता के साथ काम कर रहे हैं.
पंजाब में हालिया कार्रवाई के संदर्भ में, अकाल तख्त और एसजीपीसी ने ही केंद्र और पंजाब सरकार के खिलाफ आरोप का नेतृत्व किया है.
ऐसा करके उन्होंने अकाली दल के बिना कुछ किए भी वास्तव में अकाली क्षेत्र में पुनरुत्थान के लिए जमीन तैयार की है. यह इस बात का संके है कि आगे सिख निकायों और बादलों के बीच शक्ति संबंधों में बदलाव हो सकता है (सिख निकायों के पक्ष में).
सुखबीर बादल को भी अकाल तख्त और एसजीपीसी को नेतृत्व करने देने में कोई आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि उनकी पहल से अधिक विश्वसनीयता बन सकती है.
3. बीजेपी समर्थित अकाली असंतुष्ट अभी भले ही शांत हों, लेकिन भविष्य में फिर से मुखर होंगे
असंतुष्ट अकालियों द्वारा, शायद बीजेपी द्वारा समर्थित, बादल परिवार को कुर्सी से हटाने के प्रयास बंद होने की संभावना नहीं है. हालांकि प्रकाश सिंह बादल के निधन के कारण वे कुछ समय के लिए शांत हो सकते हैं.
हाल ही में बीजेपी ने जालंधर उपचुनाव में समर्थन के लिए एसजीपीसी की पूर्व प्रमुख बीबी जगीर कौर से संपर्क किया था. भले ही बातचीत बेनतीजा रही लेकिन असंतुष्ट अकालियों का बीजेपी के साथ जुड़ाव जगजाहिर है. मनजिंदर सिरसा बीजेपी में शामिल हो गए, सुखदेव ढींडसा ने उनके साथ गठबंधन कर लिया और अन्य अभी भी बीजेपी के साथ बातचीत की प्रक्रिया में हैं.
ऐसा लगता है कि बीजेपी का उद्देश्य अकाली दल को अपने स्वयं के प्रतिनिधियों के साथ बदलना है और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी तरह एसजीपीसी को अपने नियंत्रण में लेना है, जिस तरह पार्टी की पकड़ अब दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी में है.
अकाल तख्त और एसजीपीसी के लगातार हिंदुत्व विरोधी रुख पिछले कुछ समय से बीजेपी को परेशान कर रहे हैं.
हालांकि, बीजेपी और उसके बड़े पारिस्थितिकी तंत्र/इकोसिस्टम ने सार्थक बातचीत की दिशा में काम करने के बजाय सिख निकायों के साथ टकराव का रास्ता अपनाने में गलती की है.
4. पंथिक तत्वों से चुनौती
बादल परिवार की शक्ति में गिरावट 2015 के बेअदबी के मामलों और उसके बाद पुलिस फायरिंग में प्रदर्शनकारियों की मौत के बाद शुरू हुई. इसके बाद उसी साल सरबत खालसा का आयोजन किया गया. सिख मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के बीच उनकी विश्वसनीयता गिर गई और इसने अधिक मुखर पंथिक तत्वों को भी मजबूत किया.
उस सेक्शन में मंथन जारी रहा है. हाल ही में सिमरनजीत सिंह मान का फिर से उठ खड़ा होना और अमृतपाल सिंह का अचानक उभरना और उसकी गिरफ़्तारी तक, इसी मंथन का हिस्सा हैं.
जब तक 2015 की बेअदबी और फायरिंग की घटना की कांटा बादलों के गले में है, तब तक इस चुनौती के कहीं जाने की संभावना नहीं है.
5. 2015 बरगाड़ी बेअदबी और कोटकपूरा मामले
अकाली दल, विशेष रूप से सुखबीर बादल के साथ आगे क्या होता है, यह 2015 की बरगाड़ी बेअदबी और कोटकपूरा फायरिंग की जांच पर निर्भर करेगा. मृत्यु के दिन भी, प्रकाश सिंह बादल के खिलाफ एक पूरक आरोप पत्र दायर किया गया था. जब तक यह मामला रहेगा सुखबीर बादल कमजोर विकेट पर रहेंगे और पंथिक राजनीतिक क्षेत्र के भीतर चुनौतियों का सामना करेंगे.
6. राष्ट्रीय स्तर पर अकाली दल का रुख क्या रहेगा?
यह सवाल 2024 के लोकसभा चुनाव की दौड़ में अहमियत हासिल करेगा. वर्तमान में, बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन को छोड़कर, अकाली दल राष्ट्रीय स्तर पर अलगाव का सामना कर रहा है.
पंजाब में इसकी मुख्य चुनौती - कांग्रेस और आम आदमी पार्टी - राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी विरोधी गठबंधनों के बारे में चर्चाओं पर हावी हैं. इसलिए देर-सवेर बादल पर बीजेपी के साथ फिर से गठबंधन करने का दबाव महसूस हो सकता है.
सुखबीर बादल के लिए एक बहुत ही वास्तविक दुविधा है. एक तरफ तो इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस और AAP अकाली दल के मुख्य चुनावी विरोधी हैं, बीजेपी के नहीं. दूसरी ओर, बीजेपी ही अकाली दल को खत्म करने की कोशिश करती दिख रही है. फिर यह भी तथ्य है कि अकाली दल के ग्रामीण सिख आधार के बीच बीजेपी के प्रति बहुत मजबूत नकारात्मक भावना है.
अंत में, सुखबीर बादल के लिए सबसे सुरक्षित तरीका पार्टी को जमीन पर पुनर्जीवित करना और उस स्थिति तक पहुंचना होगा जहां वह पंजाब में स्पष्ट वरिष्ठ भागीदार के रूप में बीजेपी के साथ बातचीत की मेज पर बैठ सके.
गौरतलब है कि बीजेपी पंजाब इकाई के प्रमुख अश्विनी शर्मा ने शनिवार को कहा कि अकाली दल के साथ बीजेपी के फिर से गठबंधन की संभावना नहीं है. भगवा पार्टी पंजाब में सभी चुनाव अपने दम पर लड़ेगी.
7. 'अकाली दल का विचार' हमेशा रहेगा
अब, यह समझना महत्वपूर्ण है. अकाली दल का विचार वर्तमान में मौजूद अकाली दल और उसके सभी टूटे हुए दलों से बड़ा है. यह निश्चित रूप से बादल परिवार से बड़ा है.
अकाली दल भारत की दूसरी सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है. यह गुरुद्वारा सुधार आंदोलन के परिणाम के रूप में पैदा हुआ था. इस अर्थ में अकाली दल का विचार सिख पहचान से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है.
एसएडी-बादल ने 1996 की मोगा घोषणा के साथ इसे पंजाब-केंद्रित पहचान में बदल दिया लेकिन सिख पहचान अभी भी इसके मूल में बनी हुई है.
सुखबीर बादल चाहे कुछ भी करें और चाहे अकाली दल पुनर्जीवित हो न हो, लेकिन सिख-केंद्रित, पंजाब-केंद्रित राजनीतिक दल- अकाली दल के लिए जगह हमेशा बनी रहेगी. इस जगह को न तो कांग्रेस और AAP जैसी दिल्ली संचालित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भर सकती हैं और न ही बीजेपी जैसी दिल्ली/नागपुर संचालित हिंदुत्व पार्टी.
अगर सुखबीर बादल इस जगह को नहीं भर सकते हैं, तो इसे एक और सिख-केंद्रित, पंजाब-केंद्रित नेता को भरना होगा.
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