"बेशक, अपने प्रभाव के कारण यह सजा बहुत कठोर है." यह कहना है सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन लोकुर का. उन्होंने यह बात उस आपराधिक मानहानि के मामले के गुण-दोष पर विचार किए बिना कही, जिसके तहत कांग्रेस (Congress) नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को हाल ही में दोषी ठहराया गया है.
जस्टिस लोकुर ने कहा कि "आनुपातिकता/प्रोपोर्शनैलिटी के सिद्धांत की अनदेखी की गई है." साथ ही उन्होंने जानकारी दी कि राहुल गांधी को इस अपराध के तहत अधिकतम सजा सुनाई गई है.
राहुल गांधी को मिली 2 साल जेल की सजा के कारण उनकी लोकसभा सदस्यता भी चली गयी है. हम इस दो-पार्ट वाली एनालिसिस के पहले पार्ट में कारण और उसके पीछे के कानून की व्याख्या करने की कोशिश करेंगे.
इस बीच, गांधी की दोषसिद्धि और अयोग्यता पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वकील शादान फरासत ने कहा:
"राहुल गांधी को एक ऐसे मामले के चलते संसद की सदस्यता से अयोग्य ठहराया गया है, जिस पर मानहानि कानून लागू ही नहीं होता. यानी एक इनएप्लिकेबल मामले पर कानून का एप्लिकेशन किया गया है."
ऐसा कैसे है?
फरासत के अनुसार, ऐसा तीन वजहों से है.
वजह नंबर 1: पूरे 'वर्ग की मानहानि' का सवाल ही नहीं
"पहले तो मानहानि का कोई सवाल ही नहीं था, क्योंकि यह व्यक्तिगत मानहानि नहीं है, वे एक वर्ग की मानहानि का दावा कर रहे हैं."शादान फरासत, सुप्रीम कोर्ट के वकील
यह सही है कि आईपीसी की धारा 499 में कहा गया है कि मानहानि के आरोप "एक कंपनी या एक संघ या व्यक्तियों के समूह द्वारा लगाए जा सकते हैं.(स्पष्टीकरण 2)" लेकिन साथ ही यह गौरतलब है कि इसके अनुसार
"कोई लांछन किसी व्यक्ति की ख्याति की क्षति करने वाला नहीं कहा जाता जब तक कि वह लांछन दूसरों की नजर में प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उस व्यक्ति के नैतिक या बौद्धिक चरित्र की उपेक्षा न करे या उस व्यक्ति की जाति के या उसकी आजीविका के संबंध में उसके सम्मान की उपेक्षा न करे या उस व्यक्ति की साख को नीचे न गिराए या यह विश्वास न दिलाए कि उस व्यक्ति का शरीर घृणित दशा में है या ऐसी दशा में है जो साधारण रूप से निकॄष्ट समझी जाती है (स्पष्टीकरण 4).”
इसके अलावा, इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अपार गुप्ता ने डिजिटल न्यूज पब्लिकेशन स्क्रोल को बताया कि यह बात बहुत निश्चित होनी चाहिए कि जिस व्यक्ति ने मानहानि का दावा किया है, उसकी पहचान समूह के सदस्य के रूप में की जाती है.
अपार साफ कहते हैं कि एक ही सरनेम वाले लोग, प्रकृति से एक निश्चित समूह वाले नहीं होते (जिसे इनडेटरमिनेट क्लास कहते हैं), इसीलिए कोई व्यक्ति राहुल गांधी के बयान के आधार पर शिकायतकर्ता (पूर्णेश मोदी) के साथ खुद को नहीं जोड़ेगा.
सत्ताधारी पार्टी और उसके फॉलोअर्स तो खुद राहुल गांधी का मजाक उड़ाते और उन्हें बेइज्जत करते रहे हैं.
क्या राहुल की एक अनायास टिप्पणी ने सचमुच मोदी सरनेम के सभी लोगों के नैतिक या बौद्धिक चरित्र को कमतर कर दिया है?
क्या उन्होंने उसकी साख को ठेस पहुंचाई है?
राहुल गांधी का मजाक उड़ाने वालों को जो अभिव्यक्ति की आजादी मिली है, उसके मानदंड क्या राहुल पर लागू नहीं होते?
वजह नंबर 2: हर सूरज सितारा है, लेकिन हर सितारा सूरज नहीं
"तकनीकी रूप से उन्होंने यह नहीं कहा है कि 'सभी मोदी चोर हैं'. उन्होंने कहा है: ‘ऐसा क्यों है कि सभी चोरों के नाम मोदी हैं'. इसमें एक बुनियादी फर्क है."शादान फरासत, एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
शादान कहते हैं, "उन्होंने हर जगह, सभी मोदी लोगों के बारे में कुछ नहीं कहा, उन्होंने तो सिर्फ तीन नाम लिए- नीरव मोदी, ललित मोदी और प्रधानमंत्री का नाम," इसके बाद शादान का सवाल है कि "फिर शिकायतकर्ता पुर्णेश मोदी की तकलीफ क्या है?"
सीनियर वकील निया रामकृष्णनन ने आगे स्क्रोल से कहा कि राहुल गांधी के बयान ने सभी मोदी लोगों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाई है. “यह ऐसा ही है जैसे यह कहा जाए कि सभी इनसान नश्वर हैं, लेकिन इसका मतलब यह नही कि नश्वर होने वाले सभी इनसान हैं.”
हम इसे यूं भी कह सकते हैं कि हरेक सूरज एक सितारा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हरेक सितारा सूरज है.
तो पूर्णेश मोदी की तकलीफ क्या है? और अगर उनकी तकलीफ का पता नहीं चलता, तो उनका मामला कानूनी जांच के दायरे में कैसे आता है?
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 199(1) के तहत, शिकायतकर्ता कथित अपराध से पीड़ित व्यक्ति होना चाहिए.सीआरपीसी 199 (1)
कोई न्यायालय भारतीय दंड संहिता के अध्याय 21 (जिसमें मानहानि शामिल है) के अधीन दंडनीय अपराध का संज्ञान ऐसे अपराध से व्यथित किसी व्यक्ति की शिकायत पर ही करेग, वरना नहीं...
वजह नंबर 3: अधिकतम सजा क्यों?
पहली बार अपराधी होने के बावजूद राहुल गांधी को अधिकतम सजा कैसे मिली, यह भी स्पष्ट नहीं है.
"राहुल गांधी पहली बार अपराधी हैं और उन पर इससे पहले कोई दोष साबित नहीं हुआ. प्रोबेशन एक्ट और नियमों के अनुसार, पहली बार अपराध करने वाले को अधिकतम सजा नहीं दी जा सकती. तो ऐसे में उन्हें अधिकतम सजा कैसे दी गई है?"शादान फरासत, एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
फरासत कहते हैं कि अगर अदालत ने उन्हें 1 साल, 11 महीने और 29 दिन की जेल की सजा दी होती तो उनकी संसद सदस्यता नहीं छिनती.
फरासत कहते हैं, "उन्हें दो साल की सजा (इस अपराध के तहत अधिकतम सजा) इसलिए दी गई है ताकि उनकी सदस्यता रद्द की जा सके. तो यह पहली नजर में, यह जानबूझकर किया गया गलत बर्ताव लगता है."
फ्री स्पीच और लोकतंत्र का क्या?
2020 में मद्रास हाई कोर्ट ने "राज्य के खिलाफ आपराधिक मानहानि (जिसे पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने 199 (2) सीआरपीसी के तहत दायर किया था) के कथित मामलों को खारिज कर दिया था, और कहा था कि...
"आपराधिक मानहानि कानून अत्यंत जरूरी वास्तविक मामलों में सराहनीय उद्देश्य के लिए है, और इसे राज्य अपने विरोधी लोक सेवकों/संवैधानिक अधिकारियों से हिसाब बराबर करने के साधन के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर सकता. राज्य लोकतंत्र का गला घोंटने के लिए आपराधिक मानहानि के मामलों का इस्तेमाल नहीं कर सकता.”
इसके अलावा क्या चुनावी मजाक हमेशा एक दूसरे को चिढ़ाने के लिए नहीं किए जाते हैं? आप किसी को चोर चौकीदार कहकर पुकारते हैं, और किसी को पप्पू कहकर, उसकी हंसी उड़ाते हैं. कभी किसी की बराबरी रामायण में रावण की बहन से भी कर दी जाती है. अगर हमारे नेता हर हास-परिहास पर मुकदमा दायर करने लगें (और जीतने भी लगें!) तो संसद से ज्यादा, जेलों में मंत्रियों की इफरात हो जाएगी. वैसे पत्रकारों, एक्टिविस्ट्स, प्रदर्शनकारियों और राजनीतिक विरोधियों से पहले ही भरी पड़ी जेलों में जगह की बहुत कमी है.
चलिए कुछ गंभीर हो जाएं, और सोचें कि फ्री स्पीच पर क्या हमें और प्रतिबंध लगाने की जरूरत है? कम से कम सुप्रीम कोर्ट तो ऐसा नहीं सोचता.
"एक उचित, मजबूत दिमाग वाले, दृढ़ और साहसी इनसानों के लिहाज से (एक) कथित आपराधिक भाषण को समझने की जरूरत है, न कि कमजोर और अस्थिर दिमाग वाले, हर विरोधी नजरिए को अपने लिए खतरा मानने वाले इनसानों के लिहाज से."सुप्रीम कोर्ट, रमेश बनाम भारत संघ
(लीफलेट, स्क्रोल और लाइव लॉ के इनपुट्स के साथ)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)