समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह यादव परिवार के भीतर आर-पार का घमासान जारी है. विधानसभा चुनाव भले ही 5 राज्यों में होने जा रहे हैं, लेकिन सारी महफिल उत्तर प्रदेश ही लूट ले जा रहा है. इन चुनावी चर्चा के बीच बिहार भी लगातार सुर्खियों में बना हुआ है, हालांकि वहां अभी कोई चुनाव नहीं होना है.
दरअसल, हाल के दिनों में बिहार के सीएम नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच नजदीकियां बढ़ने की चर्चा जोरों पर है. नीतीश और मोदी की राजनीतिक चालों को समझने और उनके दूरगामी असर का अनुमान लगाने वालों का मानना है कि बीजेपी-जेडीयू के बीच फिर से गठबंधन मुमकिन है.
ऐसी चर्चा है कि नीतीश प्रदेश में अपने सहयोगी आरजेडी से पल्ला छुड़ाकर फिर से बीजेपी का दामन थामने को आतुर हैं. हालांकि न तो नीतीश, न ही मोदी ने अब तक इस तरह की अटकल को शब्दों के जरिए हवा दी है.
हाल ही में गुरु गोविंद सिंह जी की 350वीं जयंती पर पटना में बेहद भव्य समारोह का आयोजन हुआ. इसमें नीतीश कुमार ने पीएम नरेंद्र मोदी के साथ न केवल मंच साझा किया, बल्कि दोनों ने एक-दूसरे की जमकर तारीफ की.
इससे ठीक पहले, नीतीश ने मोदी सरकार की नोटबंदी योजना की पुरजोर तारीफ करते हुए उन्हें बेमानी संपत्ति पर भी वार करने का सुझाव दिया था. ऐसे में इन दोनों दलों के बीच रिश्ते में गरमाहट की बात को खूब हवा मिली.
गठबंधन की राह की अड़चनें
सियासी गलियारों में भले ही बीजेपी और जेडीयू के बीच गठबंधन की संभावनाओं पर चर्चा हो रही हो, पर इस खयाल का आकार लेना इतना आसान भी नहीं कहा जा सकता. इसके पीछे कुछ ठोस वजह हैं.
'सांप्रदायिक ताकतों' से लड़ने के नारे का क्या होगा?
नीतीश 'सांप्रदायिक ताकतों' से लड़ने के नाम पर ही बीजेपी से अलग हुए थे. ऐसे में अगर वे फिर बीजेपी से दोस्ती गांठते हैं, तो इस बार उन्हें जनता के सामने इसकी सफाई पेश करने में भारी दिक्कत हो सकती है. ढुलमुल रवैया से उन्हें राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है.
लालू से दोस्ती तोड़ना भूल हो सकती है
लंबे वक्त तक एक-दूसरे की नीतियों की कड़ी आलोचना करने वाले नीतीश और लालू जब एक हुए थे, तो इसके पीछे कुछ ठोस आधार गिनाए गए थे. दोनों को बिहार में बीजेपी को कामयाब होने से रोकना था. प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकार उन्हें यह समझाने में कामयाब हुए थे कि 'एकता में बल है'. नतीजा भी दोनों पार्टियों के लिए पॉजिटिव ही रहा.
प्रदेश में सरकार चलाने में नीतीश के सामने कोई बड़ी बाधा नहीं है. रही बात आरजेडी सुप्रीमो के हस्तक्षेप की, तो ऐसा हर गठबंधन सरकार में थोड़-बहुत चलता ही रहता है. ऐसे में क्या नीतीश लालू से ‘कुट्टी’ करने का जोखिम मोल ले पाएंगे?
...तो पीएम कैसे बन पाएंगे 'सुशासन बाबू'?
आज के दौर में बीजेपी के विरोधी खेमे में नीतीश की धाक है. आने वाले दौर में वे बीजेपी के खिलाफ बनने वाले किसी कथित 'तीसरे मोर्चे' की अगुवाई कर पीएम उम्मीदवार बन सकते हैं. लालू प्रसाद केस की वजह से खुद चुनाव नहीं लड़ सकते. मुलायम सिंह यादव देर-सबेर अपने बेटे अखिलेश को ही राजनीतिक विरासत सौंपेगे. ऐसे में नीतीश ने अगर लालू-मुलायम को मना लिया, तो उन्हें पीएम दावेदार बनने का चांस मिल सकता है.
इसके उलट अगर नीतीश बीजेपी का दामन थामते हैं, तो वे केवल बिहार की सत्ता पर ही अपनी दावेदारी ठोस कर पाएंगे. ऐसे में पीएम बनने की उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का क्या होगा?
तो फिर बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की चर्चा का आधार क्या?
ऊपर दी गई बातों के बावजूद, ऐसी कई वजहें हैं, जिनसे जानकारों को ऐसा लगता है कि बदलते सियासी मौसम में बीजेपी-जेडीयू के बीच खड़ी बर्फ की दीवार पिघल सकती है. अब इन वजहों पर एक-एक कर गौर करते हैं.
मजबूत और टिकाऊ साथी की तलाश
मौजूदा हालात में नीतीश की नजर एक ऐसे टिकाऊ साथी पर होगी, जो उन्हें एक क्षेत्रीय पार्टी का मुखिया होने के बावजूद लंबे वक्त तक देश-प्रदेश की राजनीति में ठोस आधार दे सके.
‘पीएम मटेरियल’ करार दिए जाने के बावजूद नीतीश का सियासी कद उतना विस्तार नहीं पा सका, जिसकी संभावना वे खुद में जरूर देखते होंगे. नीतीश की यह जरूरत बीजेपी ही पूरी कर सकती है.
प्रदेश में भले ही आरजेडी व जेडीयू की गठबंधन सरकार चल रही हो, पर इसके 'टिकाऊपन' को लेकर सियासी पंडित संदेह जताते रहे हैं.
'दो नए साथी से एक पुराना साथी बेहतर'
ऐसी खबरें हैं कि नीतीश कुमार आरजेडी के साथ सरकार चलाने में घुटन महसूस कर रहे हैं. कामकाज में लालू प्रसाद की बढ़ती दखलंदाजी उन्हें कतई रास नहीं आ रही है. शायद नीतीश को अब ये पुरानी कहावत याद आ गई हो कि दो नए दोस्त (आरजेडी, कांग्रेस) से एक पुराना दोस्त (बीजेपी) ज्यादा भरोसेमंद साबित हो सकता है.
इसके पीछे का आधार भी ठोस है. नीतीश का बीजेपी की अगुवाई वाले नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) से पुराना रिश्ता रहा है. वे एनडीए सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं. प्रदेश में बीजेपी के साथ मिलकर लंबे वक्त तक सरकार चला चुके हैं. हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने बीजेपी से रिश्ता तोड़ लिया था. नरेंद्र मोदी को बीजेपी के प्रचार अभियान की कमान मिलने से वे नाराज थे. घोषित तौर पर उन्होंने इसकी वजह कुछ और बताई, जबकि उनके दिल में अपने बूते बड़ा मैदान मारने की आकांक्षा हिलोरें मार रही थी.
एक साल का अनुभव संतोषजनक नहीं
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद जमीनी हकीकत को देखते हुए नीतीश ने लालू से हाथ मिलाया. पर पिछले 1 साल का अनुभव उनके लिए ज्यादा संतोषजनक नहीं रहा. 'जंगलराज' पार्ट-2 का शिगूफा भले ही ज्यादा चल नहीं पाया, पर शहाबुद्दीन सरीखे बाहुबलियों का अक्सर सुर्खियों में रहना आने वाले दौर में उनके लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है.
'ब्रैंड नीतीश' को चमकाने का सही अवसर
नीतीश ने अल्पसंख्यक वोटरों को रिझाने के लिए बीजेपी से पल्ला झाड़ा, पर वे अपने इस मकसद में कामयाब होते नहीं दिख रहे. प्रदेश के मुसलमान आज भी लालू प्रसाद को ही अपना सर्वमान्य नेता मानते हैं. ऐसे में नीतीश के लिए अपनी रणनीति बदलना वक्त की मांग कही जा सकती है.
हाल ही में ‘प्रकाश पर्व’ को बेहद शानदार तरीके मनाकर नीतीश ने सिख समुदाय के प्रति श्रद्धाभाव तो दिखाया ही, साथ ही पंजाब चुनाव के लिहाज से अपनी पार्टी के लिए छोटा ही सही, पर ‘ग्राउंड’ तैयार कर लिया. इस आयोजन से उन्होंने संकेत दिया कि वे ‘ब्रैंड नीतीश’ को आने वाले दिनों में और मांज सकते हैं.
यहां गौर करने वाली बात यह है कि बीजेपी-जेडीयू के बीच गठबंधन की अभी सिर्फ संभावना ही पैदा हुई है. इस बारे में अभी से किसी ठोस नतीजे की उम्मीद करना जल्दबाजी होगी. ऐसे में लालू की टिप्पणी भी गौर करने लायक है. नीतीश और मोदी के बीच बढ़ती करीबी पर लालू ने कहा था, ‘छानिएगा जलेबी और निकलेगा पकौड़ी’.
वैसे राजनीति तो संभावनाओं का ही खेल है. पब्लिक यह जरूर देखना चाहेगी कि आने वाले दौर में जलेबी छाने जाने पर कड़ाई से क्या बाहर आता है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)