दोस्ती के बारे में कई विचारों में से एक सवाल जो दिमाग में आता है, वह है 'दोस्ती' की भावना के बारे में, कि नफरत के इस दौर में क्या सीमा पार रहने वालों से दोस्ती करना संभव है.
गुलज़ार की कविता 'दस्तक' में सरहद पार रहने वालों का जिक्र जिस मिठास से किया है, उससे लगता है कि शायद ये मुमकिन है.
इस फ्रेंडशिप डे पर पेश है ये कविता, जिसमें अपनेपन की महक आती है.
सुब्ह सुब्ह इक ख्वाब की दस्तक पर दरवाजा खोला' देखा
सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आए हैं
आंखों से मानूस थे सारे
चेहरे सारे सुने सुनाए
पांव धोए, हाथ धुलाए
आंगन में आसन लगवाए
और तन्नूर पे मक्की के कुछ मोटे मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान मिरे
पिछले सालों की फसलों का गुड़ लाए थे
आंख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था
हाथ लगा कर देखा तो तन्नूर अभी तक बुझा नहीं था
और होंटों पर मीठे गुड़ का जायका अब तक चिपक रहा था
ख्वाब था शायद!
ख्वाब ही होगा!!
सरहद पर कल रात, सुना है चली, थी गोली
सरहद पर कल रात, सुना है
कुछ ख्वाबों का खून हुआ था
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