ADVERTISEMENTREMOVE AD

फैज अहमद फैज की 'यौम-ए-पैदाइश' पर पढ़िए इश्क और इंकलाब के शायर की मशहूर रचनाएं

फैज साहब 1984 में नोबल पुरस्कार के लिए भी नामांकित हुए थे.

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
ADVERTISEMENTREMOVE AD

"गुलों में रंग भरे बाद ए नौबहार चले, चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले" यह शेर कहने वाले मशहूर शायर फैज अहमद फैज (Faiz Ahmad Faiz) का आज जन्मदिन है. फैज अहमद फैज का जन्म 13 फरवरी 1911 को अमृतसर (Amritsar) के पास काला कादिर नाम के कस्बे में हुआ था. उन्हें 1962 का लेनिन पीस प्राइज मिला था. फैज साहब 1984 में नोबल पुरस्कार के लिए भी नामांकित हुए थे.

फैज अहमद फैज के कुछ मशहूर कलाम/रचनाएं

फैज अहमद फैज को हिंदुस्तान और पाकिस्तान का दिग्गज शायर माना जाता है. हिन्दुतान में पैदा हुए फैज अहमद फैज बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे. लेकिन दोनों ही मुल्कों से फैज को बराबर मोहब्बतें मिलती रहीं. फैज अहमद फैज के जन्मदिन पर उनके कुछ मशहूर शेर और नज्में हम आपके बीच रखने जा रहे हैं.

"और भी दुःख है जमाने में मोहब्बत के सिवा, राहतें और भी है वस्ल की राहत के सिवा"

नाउम्मीदी पर फैज अहमद फैज ने लिखा "दिल नाउम्मीद नहीं नाकाम ही तो है, लम्बी है गम की शाम मगर शाम ही तो है"

फैज अहमद फैज के शेरों और नज्मों के साथ उनकी गजलों को भी खूब पसंद किया गया. फैज की तमाम मशहूर गजलों में से उनकी इस गजल को खूब पसंद किया गया और आज भी किया जाता है -

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के

वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुजार के

वीरां है मय-कदा ख़ुम-ओ-सागर उदास हैं

तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के

इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन

देखे हैं हम ने हौसले पर्वरदिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया

तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं गम रोजगार के

भूले से मुस्कुरा तो दिए थे वो आज 'फैज'

मत पूछ वलवले दिल-ए-ना-कर्दा-कार के

ADVERTISEMENTREMOVE AD

"मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न मांग" इस नज्म का जिक्र किए बिना तो फैज का जिक्र ही अधूरा है.

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न मांग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शा है हयात

तेरा गम है तो गम-ए-दहर का झगड़ा क्या है

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाए तो तकदीर निगू हो जाए

यू न था मैं ने फकत चाहा था यूँ हो जाए

और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म

रेशम ओ अतलस ओ कमखाब में बुनवाए हुए

जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाजार में जिस्म

खाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज के तन्नूरों से

पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजे

अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे

और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न मांग

बटवारे के बाद जब फैज पकिस्तान कूच कर गए और वहां के खराब हालत देखें तो उन्होंने वो नज्म लिखी जिसने 'फैज' को 'फैज' बनाने में अपना एक बड़ा योगदान दिया. वो नज्म थी- "ये दाग दाग उजाला ये शब-गजीदा सहर ,वो इंतिजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं."

ADVERTISEMENTREMOVE AD

फैज की शायरियों, नज्मो और गजलो का जिक्र खत्म कर पाना शायद किसी एक लेख में तो मुमकिन ना हो, लेकिन फैज के जिक्र को अगर खत्म करना हों, तो फैज के बेशुमार शेरों से महफिलों और फैज के जिक्र को विराम दिया जा सकता है. जैसे फैज के इस शेर के साथ हम इस लेख को मुकम्मल कर रहें हैं.

उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर, कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×