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चीन को हराना है तो सरकार को ये ‘चक्रव्यूह’ तोड़ना होगा

हमारा कारोबारी कानूनी चक्रव्यूह में फंसा हुआ है. लालफीताशाही का मकड़जाल उसका दम निकाल रहा है

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वीडियो एडिटर: दीप्ति रामदास

चीन को हमारी सेना हरा देगी. कूटनीति में भी शायद हम उसे कूट देंगे. लेकिन अगर चीन को घुटनों पर लाना है तो हमें चाहिए आर्थिक मोर्चे पर जीत. इस जीत का मतलब ये कि जब इस लंबे युद्ध से निकलें तो हम हों एशिया के इकनॉमिक पावरहाउस. लेकिन क्या हम ये जंग जीत पाएंगे, जब घर में ही युद्ध है? हमारा कारोबारी कानूनी चक्रव्यूह में फंसा हुआ है. लालफीताशाही का मकड़जाल उसका दम निकाल रहा है. आज हम आपको बताते हैं कि कैसे इस चक्रव्यूह के अंदर हमारा कारोबारी 7 तरह के कानूनी घेरे और 12 तरह की लालफीताशाही का वार झेल रहा है.

देश की आर्थिक तरक्की का जिम्मा कारोबारियों का है. वो आगे बढ़ेंगे तो देश आगे बढ़ेगा. लेकिन टीमलीज की स्टडी के मुताबिक देश में 7 तरह के कानूनी मकड़जाल हैं. इनकी संख्या इतनी ज्यादा है कि कारोबारियों का रास्ता रुकता है.

7 तरह के कानूनी मकड़जाल

  1. लेबर
  2. वित्त
  3. टैक्स
  4. पर्यावरण
  5. हेल्थ
  6. सेफ्टी
  7. खास इंडस्ट्री के खास नियम

इन सबके साथ फाइलिंग वगैरह के काम को मिला दें तो आप पूछेंगे कि भाई कारोबारी अपना काम करेगा, अपने प्रोडक्ट को बेहतर करेगा, सेल्स पर ध्यान देगा या इन कानूनी पचड़ों में दिन बिताएगा?

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ये तो हुआ कानून लेकिन लालफीताशाही भी कम नहीं हैं. उसके अलग वार हैं. कुल 12 तरह के.

लालफीताशाही का मकड़जाल - 12 फंदे

  1. लाइसेंस
  2. रजिस्ट्रेशन
  3. परमिशन
  4. मंजूरी
  5. रिटर्न
  6. डिस्प्ले बोर्ड
  7. रजिस्टर
  8. चालान
  9. पेमेंट
  10. रीमिटंस
  11. रिन्यूवल
  12. नोटिस
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सिर्फ लेबर कानूनों की ही बात करेंगे तो किसी भी कारोबारी का सिर चकरा जाएगा.

कुल मिलाकर हम भले ही विश्व बैंक की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में 2009 के मुकाबले 69 अंक ऊपर आ गए हों लेकिन सच्चाई ये है कि आज भी लालफीताशाही और कानूनी उलझनें इतनी हैं कि कारोबार चलाना मुश्किल है.

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विडंबना देखिए कि हमारे यहां बंदूक का लाइसेंस लेना आसान है लेकिन रेस्टोरेंट खोलना मुश्किल.

और ये सब यहीं खत्म नहीं होता...अगर किसी को लगता है कि वो तो पुराना खिलाड़ी है, सारे कानूनी दांव-पेंच जानता है तो एक सच्चाई ये है कि देश में औसतन हर साल 3000 कानून बदल जाते हैं यानी उनमें संशोधन होता है. इस सबका नतीजा ये है कि कारोबारियों को इन्हीं पचड़ों हर साल 12 लाख रुपए खर्च करने पड़ जाते हैं.

मसले और भी हैं

जब कानून में अंधेरे कोने होते हैं तो वहां पनपता है भ्रष्टाचार, वहां होती है पारदर्शिता की कमी और वही लालफीताशाही को अपना हुनर दिखाने मौका मिलता है जो कारोबारी के हुनर को कुंद कर देता है. इसके बाद कानून-व्यवस्था में कमी के कारण कारोबारी से कभी कोई रंगदारी मांगता है तो कभी कोई अपराधी उसे धमकाता है. दंगे-फसाद, हड़ताल, जैसे पचड़े तो हमने अभी गिनाए ही नहीं हैं. टैलेंट को आगे बढ़ने में रोकने के लिए हमारे यहां हजार बैरिकेड हैं, जातिगत भेदभाव और भाई भतीजावाद...

तो सार ये है कि इस जर्जर सिस्टम में कारोबारी का काम करना मुश्किल है उसका संपन्न होना मुश्किल है और वो संपन्न नहीं होगा, आगे नहीं बढ़ेगा तो हमारी आर्थिक स्थिति कैसे मजबूत होगी, हम कैसे बनेंगे आत्मनिर्भर और हम कैसे चीन जैसे दुश्मनों को जवाब देंगे?

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