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“भूख क्या है जानता हूं, इसलिए 5 रुपये में वड़ा-पाव बेचता हूं’’

स्पेशल वड़ा पाव-भरना है गरीब बच्चों के घाव  

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कैमरा: संजोय देब और गौतम शर्म

एडिटर: वीरू कृष्णा मोहन

प्रोड्यूसर: दिव्या तलवार

सतीश गुप्ता मुंबई के सायन में वड़ा पाव का स्टॉल लगते हैं. इस स्टॉल की खास बात ये है कि सतीश अपने कारोबार में ज्यादा फायदा-नुकसान नहीं देखते हैं. उनका लक्ष्य गरीब और बच्चों की भूख मिटाना होता है जिनके पास एक वक्त के खाने के पैसे नहीं होते.

सतीश के स्टॉल पर जो भी बच्चे स्कूल ड्रेस में आते हैं उन्हें वो 5 रुपये में वड़ा पाव देते हैं, क्यों? क्योंकि वो नहीं चाहते कि कोई बच्चा भूखा रहे और खाली पेट सोए. सतीश जी की कहानी बताती है कि अच्छा काम करने के लिए जरूरी नहीं जेब भारी हो, कई बार बस दिल बड़ा होना चाहिए.

सतीश बहुत गरीब परिवार से आते हैं, उनके पिता उन्हें 7वीं से ज्यादा पढ़ाने में सक्षम नहीं थे. सतीश के पास कोई रास्ता नहीं बचा था इसिलए उन्होंने कई जगहों पर छोटे-मोटे काम करने शुरू कर दिए थे. सायन में साधना स्कूल के करीब उन्होंने कैंटीन से शुरुआत की लेकिन कुछ वक्त बाद वो बंद हो गई और किराया चुकाना मुश्किल हो गया था.

सतीश करीब 2-3 महीने तक बेरोजगार रहे, उनका आर्थिक तनाव भी बढ़ रहा था और परिवार के 6 सदस्यों को पालने में काफी कठिनाई आ रही थी.

सतीश कहते हैं, “मैंने कार साफ की, केटरिंग लाइन में काम किया, वहां मैंने कपड़े भी धोए, पूरी बनाई, सब कुछ किया. मुझे वहां से बचा हुआ खाना एक प्लास्टिक के बैग में मिलता था जो मैं अपने बच्चों के खाने के लिए लाता था. ऐसे जीवन गुजरा.”

“मैंने कभी खाने की चोरी नहीं की. मुझे भूख पता है इसलिए मैं आज बच्चों को 5 रुपये में ही वड़ापाव बेचता हूं. मुझे नहीं पता किसके पास पैसे हैं या नहीं और कौन नहीं खरीद सकता. मुंबई में अपने बच्चों को पालने के लिए लोग बहुत जद्दोजहद करते हैं. जैसे हमने किया. जब मैं उन बच्चों को वड़ा पाव खिलाता हूं तो मुझे काफी संतोष मिलता है.”
सतीश गुप्ता, वड़ा पाव स्टॉल के मालिक

सतीश के बेटे को आर्थिक तंगी के कारण स्कूल छोड़ना पड़ा, अपने पिता का हाथ बंटाने वो भी तैयार थे. सतीश अपने बड़े बेटे के बहुत शुक्रगुजार हैं. वो कहते हैं, "हमने उसे साथ खड़े रहे. और उसने भी सभी मुश्किलों में हमारा साथ दिया.”

सतीश कहते हैं, “ये हमारा पहला स्ट्रीट स्टॉल था, हमें आदत नहीं थी गाली सुनने की, लेकिन लोग आते जाते गलियां दे जाते थे, मेरे बेटे ने बहुत गलियां सुनी, मेरा बेटा तब सिर्फ 14 साल का था वो आगे पढ़ना चाहता था, लेकिन हमारे हालात ऐसी हो गई थी कि आगे पढ़ाना तब मुमकिन था, इसलिए उसने स्कूल छोड़ दिया. मैं कभी नहीं भूल सकता जो मेरे बड़े बेटे ने मेरे लिए कुर्बानी दी.”

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