1885 में बनी कांग्रेस ने महात्मा गांधी के राजनीतिक परिदृश्य में आने और खास 1919 के असहयोग आंदोलन के बाद एक अद्भुत अखिल भारतीयता और काफी हद तक सर्व स्वीकार्यता हासिल कर ली थी. गांधी की कांग्रेस एक साथ समाज के ज्यादातर तबकों में पैठ बना पाई, जबकि इन तबकों के हित आपस में टकरा रहे थे.
कांग्रेस एक ऐसी पार्टी बन पाई, जो एक साथ देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों को भी पसंद थी और गांव के भूमिहीन मजदूर को भी. वह काम उद्योगपतियों का कर रही थी, लेकिन भूमिहीन मजदूर को सपना आ रहा था कि कांग्रेस उसकी गरीबी दूर कर देगी.
आजादी के बाद भी कांग्रेस का नेतृत्व उद्योपतियों के पक्ष में नीतियां बनाता रहा और गरीबों को खुशहाली के सपने बेचता रहा. ये दोनों काम कांग्रेस एकसाथ सफलतापूर्वक कई साल तक कर पाई.
सामाजिक धरातल पर देखें, तो गांधी के समय कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर सवर्ण हिंदू पुरुष नेतृत्व में काम करती थी, लेकिन गांव आते-आते उसके कार्यकर्ताओं में पिछड़े और दलितों का भी समावेश हो जाता था.
कांग्रेस के शिखर नेतृत्व ने पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन के साथ होने वाले समाज सुधार सम्मेलनों का सिलसिला बंद कर दिया, क्योंकि सवर्णों को सामाजिक ढांचे में बदलाव की बात पसंद नहीं थी.
कांग्रेस भी मान रही थी कि आजादी मिलने तक जातिभेद और समाज सुधार के सवाल पीछे रखे जाने चाहिए, ताकि समाज में फूट न पड़े. बाबा साहेब ने ‘गांधी, राणाडे और जिन्ना’ किताब में इसके लिए कांग्रेस की आलोचना की है. कांग्रेस ने अरसे तक उत्तर भारत में ब्राह्मण, मुसलमान और दलित समीकरण पर सफलतापूर्वक अमल किया. जब तक कांग्रेस की राजनीति इन दो स्तरों पर चलती रही, उसकी सत्ता बनी रही.
नरेंद्र मोदी की बीजेपी 21वीं सदी में काफी हद तक वह कर पा रही है, जिसकी विशेषज्ञता कभी कांग्रेस को हासिल थी. नरेंद्र मोदी खुद कहते हैं कि उद्योगपतियों के साथ खड़े होने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है.
बीजेपी की आर्थिक नीतियों के बारे में विपक्ष का आरोप है कि इन नीतियों के केंद्र में औद्योगिक घरानों का हित है. इस बात की सरकारी आंकड़ों से भी पुष्टि होती है कि बीजेपी के शासनकाल में उद्योगपतियों का एनपीए यानी बैंक से लिया गया डूबने की आशंका वाला कर्ज बढ़ गया है.
इसी शासन काल में विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी भारतीय बैंकों का पैसा लेकर विदेश भाग चुके हैं. राहुल गांधी एक आद्योगिक घराने पर आरोप लगा चुके हैं कि राफेल विमान सौदे में सरकार ने उसे गलत तरीके से लाभ पहुंचाया है.
लेकिन ये बीजेपी की पूरी तस्वीर नहीं है...
बीजेपी की छवि सिर्फ अमीरों की पार्टी नहीं है. दरअसल बीजेपी गरीबों की थाली और जेब में भी कुछ डालती हुई नजर आ रही है. जनधन योजना के तहत काफी बड़ी आबादी पहली बार बैंकिंग सिस्टम के दायरे में आई है. मुद्रा योजना के असर की समीक्षा का समय अभी नहीं आया है कि लेकिन इसके तहत काफी लोगों को छोटा कर्ज मिला है.
उज्ज्वला योजना के तहत दावा किया जा रहा है कि 4 करोड़ परिवारों में पहली बार गैस कनेक्शन पहुंचा है. हालांकि कितने लोग दूसरे और तीसरे सिलेंडर ले पा रहे हैं यह और बात है, लेकिन पहली बार किसी किचन में गैस पहुंचना छोटी बात नहीं है. अब सरकार आरोग्य योजना के तहत 10 करोड़ परिवारों यानी लगभग 50 करोड़ लोगों को स्वास्थ्य बीमा योजना में शामिल करना चाहती है. हालांकि इसके लिए मौजूदा बजट मे सिर्फ 1200 करोड़ रुपए हैं, जो प्रति परिवार के हिसाब से बेहद मामूली रकम है, लेकिन यह योजना ढेर सारी उम्मीदें जरा रही है.
सरकार के एक और बड़े कदम नोटबंदी के बाद कोई अमीर बैंकों की लाइन में नहीं खड़ा हुआ, इसके बावजूद सरकार यह छवि बनाने की कोशिश कर रही है कि नोटबंदी से गरीबों को फायदा हुआ है और सारी तकलीफें भ्रष्ट अमीरों के हिस्से में आई हैं, क्योंकि उनका कालाधन खराब हो गया है.
यानी गरीब बेशक खुद को मिलने वाले फायदे से खुश न हो पाए, लेकिन वह इस बात का आनंद ले सकता है कि भ्रष्ट अमीरों को मोदी जी ने टाइट कर दिया. इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि अमीरों को सचमुच कोई तकलीफ हुई है या नहीं. कुल मिलाकर मामला छवियों का है, जिसे बनाने में बीजेपी जुटी हुई है.
अगर बीजेपी अमीर-गरीब का संतुलन बिठा ले जाती है, तो वह आजादी के समय वाली कांग्रेस का करिश्मा कर ले जाएगी. इस संतुलन का सूत्र है- अमीरों को देना और गरीबों को देते हुए दिखना.
सामाजिक स्तर पर भी बीजेपी वही कांग्रेसी करिश्मा दोहराने में लगी है. बीजेपी का राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर का नेतृत्व लगभग पूरी तरह हिंदू सवर्ण पुरुषों द्वारा संचालित है. बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व की लिस्ट में एससी, एसटी और ओबीसी के नेता अपने जाति समूहों को प्रकोष्ठ के नेता के तौर पर ही नजर आते हैं. अध्यक्ष, महामंत्रियों, उपाध्यक्षों जैसे महत्वपूर्ण पदों पर सवर्ण वर्चस्व है. बीजेपी के संगठन में एक बहुत महत्वपूर्ण पद राज्यों के प्रभारी का होता है. इस पद पर एससी-एसटी और ओबीसी लगभग लापता है.
केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी सवर्ण आधे से ज्यादा हैं. सारे महत्वपूर्ण केंद्रीय मंत्रालय जैसे वित्त, विदेश, रक्षा, मानव संसाधन, रेल, कानून, कृषि ये सब सवर्ण नेताओं के पास हैं. बीजेपी का एकमात्र दलित मंत्री सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री है और एकमात्र आदिवासी मंत्री आदिवासी मंत्रालय संभालता है. उसी तरह जैसे कैबिनेट का एकमात्र मुसलमान, अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री है. किसी ओबीसी नेता के पास कोई महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं है.
लेकिन यही बीजेपी जिला, ब्लॉक और गांव स्तर पर आकर बदल जाती है. यहां उसके नेता और कार्यकर्ताओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ओबीसी जातियों से आता है. बीजेपी इन दिनों विभिन्न ओबीसी जातियों के सम्मेलन कर रही है.
आदिवासी इलाकों में भी बीजेपी-आरएसएस वनवासी कल्याण आश्रमों और तमाम अन्य संगठनों के जरिए काम कर रही है. प्रतीक के तौर पर बीजेपी ने अनुसूचित परिवार में जन्मे एक व्यक्ति को राष्ट्रपति के पद बिठाया है. बीजेपी और खुद नरेंद्र मोदी अपनी पिछड़ी जाति की पृष्ठभूमि की चर्चा सार्वजनिक रूप से दर्जनों बार कर चुके हैं.
खासकर चुनावी भाषणों में तो वे अक्सर अपने पिछड़े होने का जिक्र करते हैं. बीजेपी दलितों को बाबा साहेब नाम पर पंचतीर्थ दे रही है. बाबा साहेब का नाम बीजेपी नेता जोरों से लेते हैं और तमाम दलित पिछड़ी जातियों के प्रतीकों को लेकर उत्सव मनाए जा रहे हैं. इससे इन जातियों का सशक्तिकरण तो नहीं हो रहा है, लेकिन इनकी राजनीतिक गोलबंदी जरूर हो रही है.
इस कदर खुलकर जातियों की गोलबंदी सामाजिक न्याय के नेताओं ने भी कभी नहीं की, जिन पर जातिवादी होने के आरोप लगते हैं. मिसाल के तौर पर, लालू प्रसाद या मुलायम सिंह यादव ने कभी यादव सम्मेलन नहीं किया. बीजेपी इस मामले में खुल कर खेल रही है.
बीजेपी प्रधानमंत्री के पिछड़ा होने की बात जोर-शोर से करती है, लेकिन प्रधानमंत्री के पिछड़े होने से सत्ता संरचना में पिछड़ों की मौजूदगी पर कोई फर्क नहीं पड़ा है. नौकरशाही से शीर्ष पदों से लेकर सरकारी निगमों, उच्च न्यायपालिका और गवर्नरों तथा कुलपतियों-प्रोफेसरों की नियुक्ति में सरकार का सवर्ण रुझान स्पष्ट नजर आता है.
यानी यहां भी बीजेपी दरअसल दे सवर्णों को रही है, लेकिन साथ ही वह पिछड़ों को साधने की कोशिश भी कर रही है.
कुल मिलाकर देखें, तो बीजेपी के अंदर दो बीजेपी मौजूद है. एक बीजेपी कॉरपोरेट घरानों और सवर्णों का हित साध रही है. वहीं एक और बीजेपी है, जो गरीबों और नीचे की जातियों की राजनीतिक गोलबंदी कर रही है और उनके लिए कई योजनाएं भी चला रही है. सवाल उठता है कि यह बारीक संतुलन बीजेपी कब तक बनाए रख पाएगी?
यहां कांग्रेस और बीजेपी की रणनीति में फर्क है. कांग्रेस जब इस काम को कर रही थी, तब स्वाधीनता आंदोलन और आजादी के फौरन बाद का समय था. इस दौर में राष्ट्र निर्माण के नाम पर गरीबों और दलितों जातियों को कांग्रेस जोड़ पाई थी. कांग्रेस ने इन समुदायों की जिंदगी बदलने के लिए कोई काम नहीं किया, लेकिन राष्ट्रनिर्माण का झंडा इतना बड़ा था कि तबकाई और वर्गीय सवाल इसके नीचे ढक गए.
गरीब को लगा कि कांग्रेस सबका देश बना रही है, जहां उसकी जिंदगी भी बदलेगी. यह राष्ट्रनिर्माण का सपना था, जिसमें गरीबों और दलितों के सपने समाहित थे.
बीजेपी के पास अमीरों और गरीबों, सवर्णों और पिछड़ों को जोड़ने का जो झंडा है, वह हिंदुत्व का है. इसका इस्तेमाल करके बीजेपी जातियों के अंतर्विरोधों को ढकने की कोशिश करती है. जैसा कि बाबा साहेब ने एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में लिखा भी है, “सिर्फ दंगों के समय ही विभिन्न जातियां हिंदू बन जाती हैं, बाकी समय वे अपने अपने बिलों में रहती हैं.”
बीजेपी जमीनी स्तर पर हिंदू और मुसलमान अंतर्विरोधों को तेज करने की कोशिश करती है. यह देखना होगा कि दलितों और पिछड़ों के उभार के इस दौर में क्या हिंदुत्व का नारा उतना ही कामयाब हो पाएगा. हिंदुत्व के झंडे को बड़ा करके दलितों, पिछड़ों और वंचितों के सवालों को बीजेपी कब तक ढक पाएगी, यह भारतीय राजनीति की दिशा तय करने वाला एक महत्वपूर्ण पहलू होगा.
अगले चुनाव में बीजेपी की संतुलन साधने की राजनीति कसौटी पर कसी जाएगी.
(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं.)
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