उसका नाम एक आम भारतीय (जिसे दोस्त 'ओये' के नाम से पुकारते हैं) है. देश के लाखों नागरिकों की तरह ओये घर पर थोड़ा-बहुत नकद जरूर रखता था- इससे वह सुरक्षित महसूस करता था. नवंबर 2016 में उसकी शादी होने वाली थी. उसकी मां खुश थी. उस महीने की आठवीं तारीख को, मां ने घर में गोदरेज की अलमारी से 1000 रुपए के करारे नोटों की गड्डी निकाली ताकि अपनी खूबसूरत बहू के लिए जेवर खरीद सकें. फिर जौहरी को कुछ जगमगाते नगीने दिए जिन्हें हार में जड़ता था और हार की कीमत के आधे पैसे नकद में चुकाए.
उसी दिन शाम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1000 रुपए के नोटों पर पाबंदी लगा दी. नोटबंदी का ऐलान कर दिया. ओये और उसकी मां हैरान परेशान होकर बाजार भागे. लेकिन जौहरी भी हैरान परेशान होकर अपनी दुकान बंद कर चुका था. उसने किसी भी तरह के लेन-देन से इनकार कर दिया. वह पहले ही अपनी दुकान में काम करने वाली दर्जनों शॉपगर्ल्स और सुनारों को काम से निकाल चुका था.
ओये को अपनी शादी के सारे आयोजन रद्द करने पड़े. उसके वेडिंग प्लानर ने भी अपना काम बंद कर दिया था. करीब 100 अर्धकुशल कामगारों- जिनमें बिजली का काम करने वाले, खाना पकाने वाले, वेटर, बैंड वाले शामिल हैं- को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा. ओये की मां ने कसम खाई कि वह अब कभी “छोटे दुकानदारों” के पास नहीं जाएंगी. उन्होंने तय किया कि आगे से वह सारे जेवर टाइटन से खरीदेंगी, जोकि “सबसे विश्वसनीय समूह टाटा” का ब्रांड है. ओये टीवी के सामने उदास बैठा रहा. टीवी पर गुस्से से भरे अर्थशास्त्री किसी की “मौत” पर होहल्ला मचा रहे थे- बिल्कुल, वे किसी “भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था” की मौत पर हंगामा कर रहे थे. पर ओये की बला से!
गुड और सिंपल टैक्स (GST)... पर क्या वाकई ऐसा है
ओये के परिवार ने घर पर नकदी रखनी बंद कर दी. वे डिजिटल वॉलेट्स जैसे गूगल पे को बखूबी इस्तेमाल करना सीख गए हैं. धीरे-धीरे जिंदगी पटरी पर दौड़ने लगी. काम चलने लगा. ओये ने अपनी छोटी सी कंपनी को दोबारा शुरू किया. उसकी फैक्ट्री में सस्ते डेस्कटॉप्स एसेंबल होते थे. इनके लिए पार्ट्स ढूंढे जाते थे, चुराए गए कंपोनेंट्स खरीदे जाते थे या चीन से स्मगल किए जाते थे. यह एक कुटीर उद्योग था. इसके लिए कोई टैक्स नहीं देना पड़ता था या कोई औपचारिक निगरानी नहीं होती थी.
ओये किसी भी तरह से पेमेंट लेता था, नकद में, चेक में या डिजिटल तरीके से. कई बार इन तीनों तरीकों से एक साथ. वह कोई रिकॉर्ड नहीं रखता था, और न ही इनवॉयस बनाता था. उस बेरहम नोटबंदी के करीब आठ महीने बाद 30 जून, 2017 को शुक्रवार की रात ओये एक लोकल पब में था- शराब की खुमारी में, थोड़ा बहुत फ्लर्ट करता हुआ.
इस बात से अनजान कि संसद में आधी रात तक क्या हो रहा था. संसद में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भारत के गुड्स और सर्विस टैक्स, जीएसटी का श्रीगणेश कर रहे थे. अपने अनोखे अंदाज में प्रधानमंत्री ने इसे “गुड और सिंपल टैक्स” कहा था.
लेकिन उस आधी रात को ओये का हैंगओवर उड़नछू हो गया. कंपनियां ऐसी जीएसटी रजिस्टर्ड यूनिट्स की तलाश करने लगीं जिनके इनवॉयस मौजूदा व्यवस्था के तहत उन्हें टैक्स क्रेडिट देते. उन कंपनियों ने ऐसे विक्रेताओं को नजरंदाज कर दिया जो नकदी में कारोबार करते थे. ओये चकरा गया. चूंकि उसके ज्यादातर कंपोनेंट सप्लायर्स “अंडरग्राउंड” थे, वह उनसे टैक्स क्रेडिट का दावा नहीं कर सकता था. उसकी लागत 18% तक पहुंच गई और मार्जिन कम होता गया. बड़े इलेक्ट्रॉनिक रीटेलर्स जैसे क्रोमा और रिलायंस डिजिटल जीत गए. देश के लाखों छोटे कारोबारियों की तरह ओये का बिजनेस ठप्प पड़ गया.
एक बार फिर ओये दुखी भाव से टीवी के आगे बैठ गया. इस बार भी अर्थशास्त्री दोबारा किसी की मौत का मातम मना रहे थे- वे कह रहे थे कि “उसकी एक बार फिर से मौत हुई है”.... वे फिर से किसी “भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था” का जिक्र कर रहे थे. लेकिन ओये इस बार भी बेपरवाह था.
डिजिटल गुफाओं में इक्कीस महीने का लॉकडाउन
धीरे धीरे और अजीब तरीके से, ओये ने तीसरी बार अपनी जिंदगी समेटी. अपने दोस्त के साथ मिलकर उसने पटपड़गंज में कबाब का एक रेहड़ी जमा ली. हार्ड डिस्क और पेन ड्राइव की दुनिया से बहुत दूर वह फ्राइड फिश टिक्का, काठी रोल और चिकन विंग्स बेचने लगा. अच्छी कमाई होने लगी. ओये तनाव मुक्त हो गया था. उसने अपने तीन साल के बच्चे से वादा किया कि वह उसे मुंबई के एम्यूजमेंट पार्क जरूर ले जाएगा.
पर बुधवार 25 मार्च, 2020 का वह बदकिस्मत दिन आ गया. ओये का परिवार खुशी खुशी खरीदारी और पैकिंग कर ही रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टीवी स्क्रीन पर अवतरित हुए. लॉकडाउन! चार घंटों में. 21 दिनों तक कोई घर से बाहर नहीं निकल सकता था. ओये के बच्चे के सपने टूट गए. कबाब की दुकान आनन-फानन में बंद हो गई. 21 दिन खिंचकर 21 महीने हो गए... ओये देखता रहा कि उसके ग्राहक स्वाद का लुत्फ उठाने के लिए जोमैटो और स्विगी की तरफ लपक रहे हैं.
रहा कि उसके ग्राहक स्वाद का लुत्फ उठाने के लिए जोमैटो और स्विगी की तरफ लपक रहे हैं. वह जानता था कि वह एक बार फिर हार गया है. इस बार पूरी तरह से. क्योंकि चाहे कोविड-19 ओझल हो जाए, तब भी डिजिटल दुनिया की यंग और मालदार ब्रिगेड उसका कारोबार रौंद चुकी होगी. ओये ने अपने कुक्स और वेटर्स को काम से निकाल दिया. गहरी सांस भरी और टीवी के आगे बैठ गया. अर्थशास्त्री खीझकर किसी “भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था” की “अटल मृत्यु” पर बकबक कर रहे थे. ओये ने स्क्रीन की तरफ मिडिल फिंगर तानी. वह थक चुका है.
ओये की त्रासद कहानी, और ऐसी करोड़ों कहानियां- जोकि गहरी-अंधी खाई पैदा करती हैं
भारत की “करिश्माई”- लेकिन संकटग्रस्त भी- अर्थव्यवस्था का यही कड़वा सच है. टाइटन, क्रोमा, रिलायंस डिजिटल, जोमैटो और स्विगी जैसी बड़ी मछलियों ने हमारी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की संघर्षशील छोटी मछलियों को निगल लिया है. बड़ी कंपनियों के राजस्व, मुनाफे और कीमतों में बढ़ोतरी दर्ज हुई है- बाजार में उनकी हिस्सेदारी बढ़ी है.
पूरी दुनिया भारत के कसीदे काढ़ रही है कि किस तरह उसने सबसे तेज रफ्तार से अपनी “अर्थव्यवस्था का औपचारीकरण और डिजिटलीकरण” किया है. अनुमान है कि अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा 2016 से पहले जीडीपी के 60 प्रतिशत से ज्यादा था लेकिन सिर्फ पांच साल में वह आधा रह गया है. यह क्रूर है. इसके अलावा यह भारतीय अर्थव्यवस्था की दो खाइयों की तरफ भी इशारा करता है:
कॉरपोरेट टैक्स में 75% की वृद्धि हुई है, जबकि कुल जीडीपी दो वर्षों में स्थिर रही है
शेयर बाजार रिकॉर्ड ऊंचाई पर हैं (2021 के अंत तक लगभग 10% की नरमी के बाद भी), जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था महामारी के चलते लड़खड़ाई हुई है
निजी अंतिम उपभोग व्यय (पीएफसीई) दो साल पहले की तुलना में कम है, लेकिन उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में चढ़ रही हैं; एफएमसीजी कंपनियां खुद की प्राइसिंग पावर से हैरान हैं
बड़ी कंपनियों, खासकर तेजी से डिजिटल होने वाली- वेतन की घटत-बढ़त से जूझ रही हैं. अकुशल मजदूर बेरोजगार हैं; गांवों के गरीब लोग मनरेगा जैसी योजनाओं के लिए रिकॉर्ड संख्या में अर्जियां लगा रहे हैं.
इन दो खाइयों को एक वाक्य में समेटा जा सकता है- भारत की औपचारिक अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है, लेकिन अनौपचारिक अर्थव्यवस्था, जोकि पचास करोड़ लोगों की रोजी-रोटी थी, तबाह हो चुकी है.
मुझे गलत मत समझिए. मैं यह नहीं कहना चाहता कि अर्थव्यवस्था का औपचारीकरण कोई बुरी बात है. यह चाहत तो काफी पुरानी है लेकिन मेरा विरोध उस संक्रमण की रफ्तार से हैं.
हम अपनी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को ऊंची खड़ी चट्टान से नीचे धक्का दे रहे हैं. इसकी बजाय हमें उसे धीमे-धीमें धकेलने के लिए एक महफूज रास्ता तैयार करना चाहिए. यह पक्का करना चाहिए कि इस तकलीफदेह दौर में उन्हें सामाजिक सुरक्षा मिलती रहे. वे बचे रहें.
हमें उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा देनी चाहिए, दोबारा से कुशल बनाना चाहिए, और मैन्यूफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्रों के उद्योगों में उन्हें शामिल करना चाहिए. इसमें लंबा समय लगेगा, शायद दसियों साल. इस दौरान औपचारिक अर्थव्यवस्था धीरे धीरे अनौपचारिक क्षेत्रों की जगह ले लेगी. कुछ सालों में, न कि कुछ महीनों में!!
तो, बजट 2022 की यही चुनौती है.
शायद इसीलिए ब्लूमरबर्गक्विंट ने इस थीम को चुना है- बजट 2022- कोई भारतीय न छूट जाए.
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