हम घबराए हुए हैं. जो शारीरिक रूप से कोरोना की चपेट में नहीं, उनका मानसिक स्वास्थ्य भी खतरे में है. कोरोना नावेल है, इसलिए हम इस वायरस के बर्ताव के बारे में ज्यादा नहीं जानते. जानते हैं तो सिर्फ यह कि उसके चलते हजारों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. इस स्थिति में हमारी सामूहिक मानसिक सेहत पर भी असर हो रहा है. अनिश्चित समय का अलगाव, वित्तीय संकट की आशंका और सामान्य जीवन न जी पाने की छटपटाहट, यह सब लोगों को मानसिक संत्रास की ओर धकेल रहा है.
यह सिर्फ अपने देश में नहीं, पूरी दुनिया में हो रहा है. यूएस, यूके और कनाडा जैसे देशों में अवसादग्रस्त लोगों की मदद करने वाली एसएमएस सर्विस क्राइसिस टेक्स्ट लाइन में 80 प्रतिशत टेक्स्ट कोरोना संबंधी एन्जाइटी से ही जुड़े हैं. यह बात और है कि भारत में शारीरिक रोगों के इलाज पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है. मानसिक स्वास्थ्य अपने यहां कोई मुद्दा ही नहीं है.
क्या है देश में मानसिक रोगियों की स्थिति
फिलहाल कोरोना जैसी महामारी दहलीज के भीतर दाखिल हो चुकी है. ऐसे में स्वास्थ्य संबंधी सारा इंफ्रास्ट्रक्चर उसी में लगा है. बाकी के रोगों के शिकार लोगों पर किसका ध्यान जाने वाला है. मानसिक स्वास्थ्य का तो और भी बुरा हाल है. पहले से मानसिक रूप से बीमार लोग इस महामारी के चलते और तनाव झेल रहे हैं. हमारे यहां उनकी तरफ ध्यान कम ही जाता है.
WHO की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की 7.5 प्रतिशत आबादी किसी न किसी प्रकार के मानसिक विकार की शिकार है. इनमें से अधिकतर को कोई देखभाल नहीं मिलती.
निम्हांस के 2015-16 के अध्ययन में कहा गया था कि लगभग 15 करोड़ मानसिक रोगियों को चिकित्सकीय मदद की जरूरत है, पर सिर्फ 3 करोड़ को ही यह मदद मिल पाती है. इसके अलावा इंडियन जरनल ऑफ साइकाइट्री के 2019 के एक अध्ययन के अनुसार, मेंटल हेल्थकेयर एक्ट, 2017 को लागू करने के लिए सरकार का अनुमानित खर्च 94,073 करोड़ रुपए है पर मौजूदा खर्च इससे बहुत कम है.
कोरोना ने एन्जाइटी को बढ़ाया है, जिससे पहले से देश के बहुत से लोग झेल रहे हैं. लान्सेट साइकाइट्री नामक जरनल की एक स्टडी में बताया गया है कि भारत में डिप्रेशन और एन्जाइटी सबसे सामान्य मानसिक विकार हैं. यहां हर पांच में से एक व्यक्ति एन्जाइटी से जूझ रहा है.
WHO पहले ही कह चुका था कि 2020 तक लगभग 20 प्रतिशत भारतीय लोग मानसिक बीमारियों का शिकार होंगे. इसका सीधा-सीधा मतलब यह है कि मौजूदा वक्त में 20 करोड़ से अधिक लोग मानसिक रूप से बीमार हैं. हमारे देश में लगभग नौ हजार मनोचिकित्सक हैं. हर एक लाख लोगों पर एक डॉक्टर. यूं यह आंकड़ा एक लाख पर तीन डॉक्टर होना चाहिए. मतलब हमारे यहां हजारों मनोचिकित्सकों की कमी है. दुखद यह है कि डब्ल्यूएचओ का अनुमान कोरोना के हाहाकार से पहले का था.
मनोदशा पर महामारियों और आपदाओं का असर
यूं सारी आपदाओं और महामारियों का असर व्यक्ति की मनोदशा पर पड़ता है. डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट ‘मेंटल हेल्थ इन इमरजेंसीज़’ में कहा गया है कि इमरजेंसी के शिकार सभी लोग मनोवैज्ञानिक तनाव झेलते हैं पर अधिकतर लोग कुछ समय बाद उनसे बाहर निकल आते हैं. पिछले दस सालों में ऐसे तनाव झेलने वाले हर 11 में से एक व्यक्ति को मानसिक विकार हो जाता है. हर पांच में से एक को डिप्रेशन, एन्जाइटी या सिजोफ्रेनिया होता है. औरतें पुरुषों के मुकाबले डिप्रेशन की ज्यादा शिकार होती हैं. उम्र के साथ डिप्रेशन और एन्जाइटी बढ़ते जाते हैं. किसी न किसी प्रकार की इमरजेंसी का अनुभव करने वाले लोगों को मेंटल हेल्थ केयर की जरूरत पड़ती है.
चीन, जहां कोरोना की शुरुआत हुई, वहां भी सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य का संकट गहराया था. चीन पहले 2003 में सिवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम यानी सार्स जैसी बीमारी को झेल चुका था. कोविड 19, सार्स से ज्यादा संक्रामक है. मृत्यु दर भी ज्यादा है. इसके संक्रमण ने लोगों में अतिरिक्त भय और एन्जाइटी पैदा की. लोगों में सरकार की नीयत को लेकर भी शक था.
क्वॉरन्टीन और घरों में बंद होने के चलते लोगों पर नकारात्मक असर हुआ. वुहान में अस्पतालों में मेडिकल स्टाफ, सुरक्षात्मक उपायों की कमी की खबरों ने लोग चिंता में घिरते गए. वॉशिंगटन की जॉर्जटाऊन यूनिवर्सिटी के स्कॉलर्स लू डोंग और जेनिफर ब्यूई के पेपर ‘पब्लिक मेंटल हेल्थ क्राइसिस ड्यूरिंग कोविड 19 पेंडामिक चाइना’ जिसे ‘इन्फोडेमिक’ कहता है, यानी सोशल मीडिया पर इनफॉरमेशन यानी मिस इनफॉरमेशन की बाढ़ ने लोगों की मानसिक सेहत और बिगाड़ी. मीडिया की पॉजिटिव खबरों ने भी लोगों को नहीं छोड़ा. लोग पेरानॉइड होने लगे और उनमें नेगेटिव क्यूरिऑसिटी बढ़ी.
कोरोना के बारे में चिंता करने का सही तरीका क्या है
कोरोना के बारे में चिंता करना लाजमी है. पर चिंता करने का भी एक सही तरीका है. जैसा कि हार्वर्ड और डर्टमाउथ मेडिकल स्कूलों की फैकेल्टी मेंबर और साइकाइट्रिस्ट डॉ. रिचा भाटिया ने अपने एक लेख में कहा है- आप अपनी एन्जाइटी को पहचानें. यह समझें कि यह भावना आती-जाती है, इसलिए कुछ देर बाद चली भी जाएगी. क्यों न हम चिंता करने का एक समय निश्चित कर लें जिसे शेड्यूल वरींग कहा जा सकता है.
एसोसिएशन फॉर बिहेवियरल एंड कन्जेनिटिव थेरेपी कहता है कि हमें रोजाना आधे घंटे का ‘वरी पीरियड’ तय कर लेना चाहिए- रोजाना एक समय और एक स्थान पर. इससे दिन का बाकी का समय अच्छा गुजरता है. उस वरी पीरियड में सोचें कि किस बारे में चिंता करके आप कुछ नहीं बदल सकते, और किस बारे में चिंता करने से कुछ बदला जा सकता है. आप रोजाना के अपने मीडिया के डोज़ को भी कम सकते हैं. कुछ वेबसाइट्स को कुछ निर्धारित समय के लिए ब्लॉक भी किया जा सकता है.
कोविड 19 लॉकडाउन गाइड लिखने वाली साइकोलॉजिस्ट आरती गुप्ता एन्जाइटी एंड डिप्रेशन एसोसिएशन ऑफ अमेरिका से जुड़ी हुई हैं. इस पेपर में उन्होंने लिखा है कि लॉकडाउन का मतलब यह नहीं कि आप भीतर फंसे हुए हैं. आपको स्लो डाउन का मौका मिला है. हर दिन एक प्रोडक्टिव काम कीजिए. उन कामों को पूरा कीजिए, जिसे करने के बारे में लंबे समय से सोच रहे या रही हैं. मानकर चलिए कि यह शारीरिक दूरी है, सामाजिक दूरी नहीं- यानी सोशल डिस्टेंसिंग नहीं, फिजिकल डिस्टेंसिंग है.
हमारी ही तरह, अगर आपको भी अपने मानसिक स्वास्थ्य को इस संकटकाल में बरकरार रखना है तो अपनी तरह से पहल खुद कीजिए. शारीरिक बीमारियों की ही तरह मानसिक बीमारियां भी दुरुस्त होती हैं. इसके लिए कई बार इस बात को मानने की भी जरूरत होती है कि हम बीमार हैं. बाकी, आपदाओं के संकट टलते हैं- कई बार धैर्य से. कई बार अनुशासन से.
(ऊपर लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है)
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