कुछ दिन पहले ही न्यूयार्क टाइम्स में दिल्ली के स्कूली शिक्षा व्यवस्था (Delhi Education System) के ऊपर एक आलेख प्रकाशित हुआ था. उस लेख पर काफी विवाद हुआ कि यह एक प्रायोजित लेख है. यहां हम प्रकाशन की राजनीति के बारे में कोई चर्चा नहीं करने जा रहें. लेकिन हां, इसी बहाने सरकारी स्कूलों की स्थिति पर एक छोटी बहस करने का प्रयास जरूर है, जो कि आज पूरे देश में बदहाल है.
उत्तरी क्षेत्र हो या दक्षिणी, सभी जगह स्थिति एक जैसी
हिंदुस्तान का उत्तरी क्षेत्र हो या दक्षिणी, सभी जगह स्थिति कमोबेश समान ही है. सरकारी शोध के दौरान अक्सर तेलंगाना के सुदूरवर्ती जिलों में हमारा जाना होता था और वहां हमने पाया कि सरकारी स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति बहुत ही कम है. बच्चे और उनके अभिभावक सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूलों को अधिक प्राथमिकता देते हैं.
संगारेड्डी जिले में गुम्माडीडाला मंडल के अनंतराम गांव में तो एक सरकारी स्कूल की तो स्थिति बहुत ही आश्चर्यजनक थी. उस स्कूल का परिसर बेहद ही भव्य और बड़ा था. वहां कम से कम बीस कमरे और एक बड़ा खेल का मैदान भी था. साथ ही कम से कम पंद्रह शिक्षक और शिक्षिकाएं वहां थीं, लेकिन छात्रों की संख्या मुश्किल से बीस रही होगी.
यह स्थिति तब थी जब वहां के निजी स्कूलों के बारे में भी अभिभावकों के अनुभव सुखद नहीं थे. वे निजी स्कूलों की मनमानी और लूट से परेशान भी दिखें. इसके बावजूद ऐसे अनगिनत लोग थे जिन्होंने अपने बच्चों को निजी स्कूलों में ही दाखिला दिलाने के लिए कर्ज भी ले रखा था. वे जो सरकारी स्कूलों में पढ़ रहें थे अपने भविष्य के प्रति बहुत सशंकित दिखें. उनका मानना था कि यहां वे मजबूरी में पढ़ रहे हैं और यहां से पढ़कर वे एक बेहतर जीवन नहीं जी सकते. उनका मानना था कि सरकारी स्कूल बदली हुई दुनिया के अनुरूप नहीं है. वे आज भी पारंपरिक ढर्रे पर ही चल रहें हैं.
बातचीत में एक अभिभावक ने कहा- “मैं खेती-किसानी करने वाला आदमी हूं. मेरे ऊपर पहले से ही बहुत कर्ज है, मैं अपने बच्चे को निजी स्कूलों में कैसे भेज सकता हूं? वे बहुत पैसा मांगते हैं. मेरा बच्चा बस थोड़ा लिखना-पढ़ना सीख जाये फिर किसी तरह जीवन जी ही लेगा. सरकार को इस बारे में सोचना चाहिए. अगर सरकारी स्कूलों में बेहतर पढाई हो तो लोग अपने बच्चों को कर्ज लेकर क्यों निजी स्कूलों में भेजेंगे?”
दिल्ली सरकार की स्कूली शिक्षा पर विशेष पहल आशाओं से भरा कदम
भारत की एक बड़ी आबादी आर्थिक रूप से कमजोर है. उनमें इतना सामर्थ्य नहीं कि वे सभी अपने बच्चों को महंगे निजी स्कूलों में भेज सके. और जबकि निजी स्कूलों का अंतिम लक्ष्य केवल पैसा बनाना हो तो ऐसे में वो भला क्यों कमजोर तबकों के बारे में सोचेंगे!
आमतौर पर निजी स्कूलों का दर्शन मुनाफे का दर्शन होता है. इसका शायद ही कोई जन-सरोकार होता है. और इसलिए राज्यों की भूमिका और हस्तक्षेप का यहां महत्त्व बढ़ जाता है. और इस सन्दर्भ में देखें तो दिल्ली सरकार की स्कूली शिक्षा की प्रशंसा वैश्विक स्तर पर की गई है.
आज जब देश में पूंजी की आंधी में सरकारी शिक्षा व्यवस्था तहस-नहस हो गए हैं. ऐसे में दिल्ली सरकार की स्कूली शिक्षा पर विशेष पहल आशाओं से भरा कदम है. दिल्ली सरकार ने अपनी समावेशी नीतियों के तहत शिक्षा के ऊपर पर्याप्त खर्च किये हैं ताकि गुणवत्तायुक्त और सस्ती शिक्षा सबको उपलब्ध कराई जा सके. शिक्षण तंत्र को बदले हुए समय और परिस्थितियों के अनुकूल बनाने पर जोर दिया गया ताकि बच्चों का सम्पूर्ण विकास हो सके. उनमें परानुभूति, आलोचनात्मक दृष्टिकोण, समस्या समाधान करने की कला के अलावा संचार और सहयोग आदि गुणों का भी विकास हो.
इसपर भी विशेष ध्यान दिया गया. दिल्ली स्कूली शिक्षा में हुए इस बदलाव को बढे हुए साक्षरता दर में भी देखा जा सकता है जिसमें पिछले कुछ वर्षों में वृद्धि हुई है. और यह वृद्धि महिला और पुरुष दोनों में ही देखी जा सकती है.
सब आसानी से नहीं हुआ, दिल्ली सरकार को अतिरिक्त प्रयास करने पड़े
स्कूली शिक्षा में भवन और अन्य आधुनिक उपकरणों का बहुत महत्त्व होता है. यह केवल सौंदर्य ही नहीं, बल्कि सुरक्षा और गुणवत्ता से जुड़ा मामला होता है. लेकिन दुर्भाग्य से आमतौर पर इस मामले में सरकारी स्कूलों की स्थिति दयनीय है. जहां इमारते हैं. वहां उसका रख-रखाव नहीं है. जहां संसाधन हैं, वहां उसका प्रबंधन नहीं है. दिल्ली सरकार ने संसाधनों की उपलब्धता के साथ-साथ उसके प्रबंधन पर भी अच्छा कार्य किया.
स्कूलों में स्मार्ट-क्लासेज के साथ स्विमिंग पुल, पुस्तकालय, प्रयोगशालाएं की सुविधाएं भी उपलब्ध कराई गई हैं. 2020-21 के आर्थिक सर्वे के अनुसार 20 नई पक्की इमारतें, और 8000 अतिरिक्त कमरों का निर्माण कराया गया. सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2019-20 में करीब 459 स्कूलों में CCTV कैमरे भी लगाये गए और करीब 4513 लाइब्रेरी की स्थापना प्राथमिक विद्यालयों में की गई और इन इनमें करीब 733874 किताबों को खरीदकर रखा गया.
सभी स्कूलों में छात्रों और छात्राओं के लिए अलग-अलग स्वच्छ शौचालयों का भी निर्माण कराया गया. पीने के पानी का प्रबंध, बिजली और चारदीवारी का भी पर्याप्त प्रबंध किया गया. और यह सब आसानी से नहीं हुआ, बल्कि इसके लिए सरकार को अतिरिक्त प्रयास करने पड़े. उन्होंने शिक्षा पर अपने बजट में वृद्धि किया. वर्ष 2014-15 में सरकार ने शिक्षा, खेल, और अन्य गतिविधियों के लिए करीब 6555 करोड़ रूपये खर्च किये जिसे इसने लगातार बढाया और जिसे बढाकर वर्ष 2020-21 में 15102 करोड़ कर दिया गया.
स्कूली शिक्षा पर खर्च: दिल्ली से दूसरे राज्यों की तुलना
स्कूली शिक्षा पर किये गए खर्च को अन्य राज्यों से अगर दिल्ली की तुलना की जाए तो दिल्ली अन्य सभी राज्यों से बेहतर स्थिति में दिखती है. वर्ष 2014-15 में केवल असम ही इससे आगे था, लेकिन बाद के सालों में यह भी पीछे चला गया. जहां दिल्ली का कुल बजट 21.2 प्रतिशत था तो वहीं असम का 24.7 प्रतिशत था. लेकिन इसके बावजूद दिल्ली, केरल समेत अन्य सभी राज्यों से अधिक खर्च शिक्षा पर कर रहा था.
केरल, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, उत्तर-प्रदेश का कुल खर्च क्रमशः 16.4, 15.2, 16.9, 14.3 और 15 प्रतिशत था, जो कि दिल्ली के कुल खर्च से बहुत पीछे ही माना जा सकता है. और वर्ष 2020-21 में तो दिल्ली का कुल खर्च बढ़कर 23.2 प्रतिशत तक पहुंच गया, जो अन्य सभी राज्यों से अधिक था.
वहीं असम का बजट (18.7 प्रतिशत) कम कर दिया गया. गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, उत्तर-प्रदेश के कुल खर्च क्रमशः 13, 15.9, 12.2, 13.6, 16.8, और 12.9 प्रतिशत थे. शिक्षा पर किये गए ऐसे निवेश के परिणाम भी सकारात्मक आये. इसने बच्चों और अभिभावकों को सरकारी स्कूलों में नामांकन कराने के लिए प्रेरित किया. और यह लगातार बढ़ता गया. इस मामले में दिल्ली ने देश की तुलना में भी अधिक बेहतर प्रदर्शन किया.
वर्ष 2018-19 में, प्रारंभिक स्कूलों में नामांकन में यह वृद्धि 120.15 प्रतिशत तक थी, तो वहीं देश का 101.25 प्रतिशत तक ही था. इसी तरह प्राइमरी, एलीमेंट्री, सेकेंडरी, और हायर स्तर तक दिल्ली में यह वृद्धि क्रमशः 120.15, 120.15, 110.43, 70.07 प्रतिशत था, तो वहीं देश का 87.74, 96.1, 76.90, और 50.14 प्रतिशत तक था.
सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए दिल्ली सरकार ने इसके अलावा और भी कुछ अतिरिक्त प्रयास किये. जैसे एनट्रेप्रेंनर्शिप डेवलपमेंट प्रोग्राम, डिजिटल शिक्षा के लिए प्रतिभा फेलोशिप, हैप्पीनेस पाठ्यक्रम (इसके अंतर्गत बच्चों में सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों के विकास पर ध्यान दिया गया). इसी तरह अंग्रेजी शिक्षा पर भी विशेष ध्यान दिया गया.
इसमें कोई शक नहीं कि मूल या मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं. मातृभाषा में ही चिंतन और तर्कशीलता का विकास होता है, लेकिन इसके अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा भी समय और परिस्थिति की एक जरूरत है. दुनिया की आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां अब वैश्विक स्तर पर हो रही है, इसलिए बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा का ज्ञान भी उतना ही जरूरी है जितना कि मातृभाषा का.
जैसा कि हमने तेलंगाना के गांवों में भी देखा कि अभिभावकों का मानना था कि सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी के ज्ञान पर कोई खास ध्यान नहीं दिया जाता है, जबकि आज के समय में अंग्रेजी के ज्ञान के बिना नौकरी मिलना मुश्किल है. हम देशी और क्षेत्रीय भाषाओं के लिए कितने भी नारे लगा लें या दिवस मना लें, लेकिन आज भी ये भाषाएं रोजगार से समुचित तरीके से नहीं जुड़ पाई है. दिल्ली सरकार ने इस सन्दर्भ में 40000 अतिरिक्त विशेष कक्षाओं का प्रावधान किया, जिसमें बाहरी एजेंसी की भी सहायता ली गई.
दिल्ली सरकार ने स्कूली शिक्षा पर कोई नई खोज नहीं की है
ऐसा नहीं है कि दिल्ली सरकार ने स्कूली शिक्षा पर जो महत्वपूर्ण कार्य किया है यह कोई बिल्कुल ही नई खोज या अवधारणा है, बल्कि दिल्ली सरकार ने पहले से ही संविधान में वर्णित प्रावधानों के तहत इसपर एक ठोस रणनीति के तहत कार्य मात्र किया है. यहां तक कि पहले भी सरकारी शिक्षा पर देश के तमाम राज्य ठीक-ठाक कार्य कर रहे थे, लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में नई आर्थिक नीतियों के बवंडर में ये या तो ध्वस्त हो गए या कर दिए गए. और इनका स्थान निजी स्कूलों ने लिया.
एक तरह से सरकारी स्कूल पिछड़ेपन के प्रतीक बनकर रह गए थे, और निजी स्कूल प्रगतिशीलता के. लेकिन दिल्ली ने ऐसे प्रतीकों को बदल डाला और एक बड़ा संदेश दिया कि अगर किसी भी तंत्र में दोष है तो उसे ठीक किया जा सकता है अगर राजसत्ता में इसे करने की नीयत हो. तमाम राजनीतिक मतविभिन्नताओं के बावजूद दिल्ली के सरकारी स्कूल एक नए आदर्श हैं जिसे अन्य राज्यों को अनुकरण करने में संकोच नहीं करना चाहिए. यह देश की आनेवाली पीढ़ी के भविष्य का सवाल है.
(लेखक केयूर पाठक सामाजिक विकास परिषद्, हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट हैं और ताजुद्दीन मोहम्मद वर्तमान में गीतम यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं और क्विंट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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