राम मंदिर निर्माण का शोर जारी है. शोर इसलिए कि जो आवाजें उठ रही हैं, उसमें कहीं कोई जिम्मेदारी नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में हो रही सुनवाई में देरी पर नाराजगी है, अध्यादेश लाने की मांग है और मंदिर निर्माण शुरू करने की जिद है.
पूरी स्क्रिप्ट लिखने वाले लोग चुनाव की तारीख का पूरा खयाल रखते हैं. किसे कब क्या बोलना है, वह भी तय है. फिलहाल ये तय लगता है कि सरकारें नहीं बोलेंगी, चाहे वह केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार. ऐसा शायद इसलिए कि कहीं सुप्रीम कोर्ट का कोपभाजन न बनना पड़े. तय ये भी है कि गैर-सरकारी स्तर पर कोई मौका न छोड़ा जाए, जिससे राम मंदिर का ये शोर थमे.
अनिर्णय ही विहिप के धर्म संसद की खासियत
विश्व हिन्दू परिषद धर्म संसद करे. साधु-संतों का जमावड़ा हो. कोई निर्णय हो. भले ही वह अनिर्णय हो. जैसा कि इस बार अयोध्या में धर्म संसद का अनिर्णय सामने आया है. मंदिर का निर्माण जल्द से जल्द होना चाहिए. पूरी विवादित जमीन हमें चाहिए.
हिन्दू धर्म संसद की गम्भीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहां मौजूद एक धर्माचार्य ने एक मंत्री से बातचीत के हवाले से बिना नाम बताए उस आश्वासन का जिक्र किया कि प्रधानमंत्री स्वयं इस मामले में 11 दिसम्बर के बाद फैसला करेंगे. जरा सोचिए, बोलने वाला माध्यम, जिस मंत्री से बातचीत हुई, वह भी माध्यम. फिर भी विहिप की धर्मसंसद को विश्वास है कि प्रधानमंत्री फैसला कर लेंगे. विश्व हिन्दू परिषद से सवाल पूछा जाना चाहिए कि:
1. ऐसे विश्वास के लिए क्या होती है धर्म संसद?
2. क्या पीएम तक धर्म संसद की पहुंच नहीं है?
3. वे धर्म संसद कर क्यों रहे थे, संकल्प लेने के लिए?
बीजेपी की कमी पूरी करने के लिए शिवसेना?
केन्द्र और राज्य सरकार की विवशता के बीच सत्ताधारी दल की कमी पूरी करने के लिए शिवसेना मौजूद रही. अपनी राजनीतिक विवशता के कारण वह बीजेपी को कोसती हुई दिखी. एक नारा उद्धव ठाकरे ने उठाया, 'पहले मंदिर, फिर सरकार'.
लेकिन इस नारे का मतलब कितनों को समझ में आया? सरकार तो है ही. उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र से आए, वहां भी एनडीए की सरकार है. जहां अयोध्या पहुंचे, वहां भी है और केन्द्र में भी. ऐसे में ‘पहले मंदिर फिर सरकार’ का मतलब तो वही समझ सकते हैं.
खुद उद्धव ने जो इस नारे का मतलब समझाया है, उसके मुताबिक पहले मंदिर बने, तब सरकार बनाने में वह बीजेपी का साथ देगी. मंदिर कौन बनवाएगा? क्या बीजेपी बनवाएगी मंदिर? बीजेपी में कुव्वत होती, तो अब तक मंदिर बन गया होता. सरकार ही को मंदिर बनाना पड़ेगा या कम से कम फैसला लेना पड़ेगा. जब फैसला सरकार लेगी, तो वह नारा क्या हुआ- पहले मंदिर, फिर सरकार. राम मंदिर के शोर में उद्धव पहेलियां छोड़ गये.
खतरनाक है मोहन भागवत का बयान
सबसे अहम है आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का बयान. खतरनाक भी है उनका बयान, जो साफ-साफ सुप्रीम कोर्ट से नाराजगी जताता है. वे कहते हैं:
“यह मामला कोर्ट में है, इसका फैसला जल्द होना चाहिए. यह भी सिद्ध हो चुका है कि राम मंदिर उसी जगह पर था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट मामले को प्राथमिकता नहीं दे रहा. अगर किसी वजह से अपनी व्यस्तता के कारण या पता नहीं, अपने समाज की संवेदना को न जानने की वजह से न्यायालय की प्राथमिकता में राम मंदिर नहीं है, तो सरकार को सोचना चाहिए कि मंदिर को बनाने के लिए कानून कैसे बन सकता है. सरकार जल्द कानून को लाए, यही उचित है.’’
असल संदेश यही है. सुप्रीम कोर्ट के प्रति लोगों में नफरत फैलाया जाए, ताकि जरूरत पड़ने पर सुप्रीम फैसले की भी अवहेलना की जा सके. यही भावना अयोध्या में मचे पूरे शोर में दिख रही है.
न्यायसम्मत तरीके से हो मंदिर निर्माण: शंकराचार्य स्वरूपानन्द
धार्मिक मामलों में शंकराचार्य से बढ़कर हिन्दू धर्म में कोई नहीं होता. शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द ने स्पष्ट रूप से कहा है:
1. मंदिर निर्माण न्यायसम्मत तरीके से होना चाहिए.
2. विध्वंस करके हमने पहले कहने का मौका दिया है कि वहां मस्जिद थी.
3. अध्यादेश लाकर एक बार फिर हम साबित करेंगे कि हमारे पास तथ्य या सबूत नहीं है.
अध्यादेश क्यों गलत है. मोहन भागवत की ओर से उठायी जा रही यह मांग क्यों गैर जरूरी है, इससे विश्वसनीय जवाब और कुछ नहीं हो सकता. आखिर शंकराचार्य की बात क्यों नहीं मानते मोहन भागवत?
संघ ने लिखी है पटकथा
आरएसएस की ओर से लिखी जा रही इस पटकथा में मध्य प्रदेश और मिजोरम चुनाव के लिए धार्मिक उन्माद है, तो राजस्थान और तेलंगाना के लिए भरोसा कि चुनाव प्रचार खत्म होते ही राम मंदिर पर अध्यादेश आने वाला है. 2019 के लिए पूरी रणनीति है. आखिरी दांव मोदी सरकार खेलेगी.
अध्यादेश के दांव पर ही वह चुनाव मैदान में उतरेगी. मगर इसमें अभी वक्त है. तब तक जनवरी में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई भी शुरू हो चुकी होगी. अब तो अयोध्या मुद्दे पर शोर के पीछे की कूटनीति भी साफ हो चली है.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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