9 नवंबर 2019 को मैं उबर कैब से एक जगह मध्यस्थता करने के लिए जा रहा था, तब चीफ जस्टिस रंजन गोगोई (Ranjan Gogoi) ने कोर्ट की ओर से सर्वसम्मत फैसले को पढ़ना शुरू किया था और मैं अपने कैब ड्राइवर को ये फैसला उसी तरह सुनाता रहा जैसे युगों-युगों पहले मेरे ही नाम के एक शख्स ने एक नेत्रहीन राजा को बताया था. सभी अपडेट जैसे कि तोड़फोड़ को फैसले में गलत बताया गया. वादी अपना दावा भी कोर्ट में कानूनी तौर पर साबित कर नहीं पाए. सेकुलरिज्म अभी भी देश की नींव है, ये सब बातें फैसले में थी.
मेरा कैब ड्राइवर थोड़ा अब घबराने लगा था और वो कुछ कुछ आशंकित होने लगा. तब तक कोर्ट 116 नंबर पेज से 125 पर पहुंचने और विशेष पूजा अधिनियम एक्ट 1991 पर करीब 9 पेज जो लिखा था, उसे भी पढ़कर सुनाया. कोर्ट ने कानून की तारीफ करते हुए बताया कि कैसे इस कानून ने भविष्य की बहुत सी लड़ाइयों को होने से रोका. इसमें सिर्फ अपवाद के तौर पर बाबरी मस्जिद विवाद को कोर्ट के जरिए सुलझाने की बात कही गई.
इसके बाद वो ड्राइवर को खुद को रोक नहीं सका. उसने अपनी पत्नी को फोन किया और कहा कि कोर्ट ने मुस्लिमों के पक्ष में फैसला दिया है और शहर में कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है, इसलिए उसे सावधानी बरतनी चाहिए और घर में ही रहना चाहिए.
जब उस दिन अयोध्या का फैसला आया
फिर इसके बाद क्लाइमेक्स आया. ऑपरेशन पूरी तरह सफल रहा. मरीज को एक विकल्प के तौर पर जमीन का प्लॉट दिया गया. कोर्ट ने दूसरे लोगों, उपद्रवियों की तरह माना कि भगवान राम का जन्म विवादित स्थल पर ही हुआ था और यह उसी पक्ष को कानूनी तौर पर सौंप दिया जाना चाहिए.
अयोध्या का फैसला उस दिन की एकमात्र अभूतपूर्व घटना नहीं थी. जैसे-जैसे दिन ढला पांचों न्यायाधीशों ने एक ग्रुप फोटो खिंचवाई, जिसे मीडिया को जारी किया गया. इसके बाद दिन बीतते-बीतते हमें पता चला कि रंजन गोगोई अपने न्यायाधीशों को एक पांच सितारा होटल ले गए, बढ़िया डिनर और अच्छी शराब के लिए.
इसके बाद एक और ग्रुप फोटोग्राफ आया. इस बार सभी पांचों जज एकजुटता में एक साथ हाथ जोड़े हुए थे! रंजन गोगोई ने यह सुनिश्चित किया कि यह तस्वीर भी उनकी किताब में शामिल हो.
जैसा कि न्यायाधीश अपने शानदार डिनर के बाद फ्री हुए तो देश भी रात होते-होते राहत की सांस लेने लगा था क्योंकि इस अहम फैसले की प्रतिक्रिया में कोई अप्रिय घटना या उत्पात कहीं से भड़कने की सूचना नहीं मिली.
1991 का कानून अभी भी विवादित
यह निर्णय जो लिखा गया था और इसमें जो परिशिष्ट शामिल किया गया था जिसमें न्यायाधीशों के विचार था, न्यायिक इतिहास में किसी मास्टरपीस से कम नहीं है. यह फैसला इतिहास में निष्पक्ष जैसा दिखने में कामयाब रहा जबकि इसमें कई सम-विषम चीजें थीं.
एक पाठक इसकी सुंदरता. निष्पक्षता और संवैधानिक दृष्टि के दृढ़ पालन से इतना प्रभावित होगा कि अगर वो इसे समझने में पहली बार में नाकाम होता तब भी उसे माफ किया जा सकता है. क्योंकि आखिरकार फैसला कानून के हिसाब से नहीं बल्कि विश्वास के आधार पर दिया गया है. इसमें तोड़फोड़ करने वालों को उस जगह से हटने का निर्देश दिया गया.
इसलिए फैसले को तुरत समझने और प्रारंभिक प्रतिक्रिया देने में उस कैब ड्राइवर और इस लेखक को जो गलतियां हुईं उसके लिए उन्हें सही मायने में दोषी नहीं माना जा सकता.
फैसले का सकारात्मक नतीजा यह था कि सुप्रीम कोर्ट ने पूजा के स्थान (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को अपनी स्वीकृति दे दी थी. अब जिस पर बाद की कार्यवाही में सॉलिसिटर जनरल ने कानूनी सवाल उठाए हैं. 1991 का कानून इस मायने में बहुत खास था क्योंकि तब एक नारा चलाया गया था "ये तो सिर्फ झांकी है काशी-मथुरा बांकी है" ("यह [यानी अयोध्या], सिर्फ शुरुआत है, काशी और मथुरा के मुद्दे को सुलझाना अभी भी बाकी है")
1991 का कानून किसी भी कोर्ट में किसी भी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र के संबंध में यथास्थिति को बदलने के लिए किसी भी कानूनी कार्यवाही को प्रतिबंधित करता है क्योंकि यह भारत की आजादी के वक्त जो जैसा था उसे बचाए रखने की बात करती है. हालांकि, इसने बाबरी मस्जिद विवाद को एक अपवाद माना.
ज्ञानवापी विवाद के साथ इतिहास खुद को दोहरा रहा
इस निषेध को खत्म करने के लिए ही कुछ महिलाओं के नाम पर एक सिविल सूट बनाया गया था, जो वाराणसी में शिव मंदिर के स्थान पर बनी ज्ञानवापी मस्जिद में गौरी पूजा करना चाहती थीं.
प्रतिवादियों ने मुकदमे को जड़ से खत्म करने के लिए 1991 के कानून पर भरोसा किया. हालांकि, सिविल जज ने एक सर्वे का निर्देश दिया जिसके कारण अब प्रसिद्ध "शिवलिंग" की खोज हुई. मुस्लिम पक्ष ने सर्वे प्रक्रिया के खिलाफ अपील की. प्रतिवादियों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की अदालत में मामले की अपील की, वही चंद्रचूड़ अब भारत के नामित चीफ जस्टिस हैं.
इस तथ्य को देखते हुए कि अयोध्या के फैसले को लिखने वाले लेखक बार काउंसिल के सबसे खराब रहस्य में से एक हैं.
कई लोगों को उम्मीद थी कि कोर्ट भानुमती के बक्से को खोलने का जोखिम नहीं उठाएगा. इसके लिए उसे केवल अयोध्या पर जो फैसला आया और जिसमें 1991 के पूजा अधिनियम पर इतना जोर दिया गया था उस पर ही कोर्ट को भरोसा करना था.
कार्बन डेटिंग कराने की याचिका खारिज
इस सरकार को 8 साल हो चुके हैं लेकिन सरकार ने 1991 के कानून को संशोधित करने के लिए कोई कोशिश नहीं की. दरअसल, भारत सरकार आज तक इस कानून पर सुप्रीम कोर्ट के सामने स्टैंड नहीं ले पाई है.
दरअसल यह आदेश जब भी आएगा तो वो धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सौहार्द पर सबसे बड़ा हमला हो सकता है. इसलिए अदालत ने कानूनी कार्यवाही रद्द करने से इनकार करने की जगह समझौते का विकल्प चुना और केस को एक वरिष्ठ न्यायाधीश की अदालत में भेज दिया. अभी सिविल जज ने प्रतिवादियों के दायर केस को खारिज करने की वादी पक्ष की अपील खारिज कर दी है. लंबी कानूनी लड़ाई को देखते हुए इसने हाल ही में वादी की ओर से दायर कथित 'शिवलिंग' के कार्बन डेटिंग कराने की याचिका को भी खारिज कर दिया है.
यह एक सकारात्मक कदम है क्योंकि कार्बन डेटिंग कराने से कोई मकसद पूरा नहीं होता है. ये तो सब जानते हैं और इस पर कोई विवाद ही नहीं है कि औरगंजेब ने काशी मंदिर पर हमला किया था या नहीं. मुद्दा यह है कि क्या हम एक समाज के तौर पर जो ऐतिहासिक गलतियां हुईं हैं उससे आगे बढ़ना चाहते हैं या नहीं.
1991 के कानून ने दो दशकों से अधिक समय तक अमन चैन बनाए रखना है, यह एक ऐसी अवधि भी है जिस दौरान भारत में जबरदस्त विकास हुआ है. कुछ लोग कह सकते हैं कि 1991 के कानून ने वास्तविक विवाद को दरकिनार कर दिया है और इतिहास के घावों को अनदेखा कर दिया है. दोनों ही बातों में दम है और दूरियां बढ़ाने वाली बातों के लिए ये तर्क भी सही हैं .. पर एक प्राचीन चीनी अभिशाप है." आप दिलचस्प समय में रह सकते हैं" –लेकिन शायद आपका वर्तमान ज्यादा दिलचस्प नहीं रह सकता है!
(लेखक दिल्ली के हाईकोर्ट और भारत के सुप्रीम कोर्ट में अभ्यास करने वाले एक सीनियर वकील हैं. उन्हें @advsanjoy पर ट्वीट किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन लेख है और व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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