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आधुनिक गणतंत्र के दौर में रामराज? मोदी के संतुलन साधने की ये कला भी एक बानगी

मोदी द्वारा प्रचारित अर्थों में यही पूरी सटीक लोकतंत्र है. यही ‘जन इच्छा' का एक सिस्टम बनाने, उसे बढ़ावा देने और उस पर अमल करना है.

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भारत ने हाल में एक मस्जिद को गिराने के लिए दशकों के आंदोलन के बाद बने हिंदू भगवान राजा राम के मंदिर (Ram Mandir) के उद्घाटन के चार दिन बाद अपना 75 वां गणतंत्र दिवस मनाया है, घटनाओं के इस मोड़ पर कई सवाल उठते हैं, जैसे एक प्राचीन राजवंशीय शासक और एक आधुनिक लोकतंत्र में क्या संबंध है?

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नई दिल्ली में 26 जनवरी की शानदार परेड ने इसके पीछे की सोच, भव्यता और विस्तार के साथ इसका जवाब देने की कोशिश की, जिसके फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों भी मेहमान बने.

इस तरह एक विरोधाभासी धारणा का अहसास होता है कि आप एक ही समय में राजतंत्र और लोकतंत्र दोनों कैसे हो सकते हैं? संवैधानिक राजतंत्र का ब्रिटिश मॉडल नहीं है, जिसमें शाही परिवार का एक सदस्य निर्वाचित सरकार का शक्तिहीन प्रमुख होता है, जिसमें शासक निर्वाचित नहीं हो सकता है मगर फिर भी सरकार चलाता है और सरकार खुद को उसके प्रति जवाबदेह मानती है.

क्या आधुनिक लोकतंत्र में पारंपरिक धारणाएं काम कर सकती हैं?

कुछ आलोचकों द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन के बारे में बताने के लिए “निर्वाचित निरंकुशता” (Elected autocracy) शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन उनमें एक निरंकुश शख्सियत के अलावा और भी बहुत कुछ है. हालांकि, आमतौर पर उनकी अभिमानी छवि ज्यादा दिखाई देती है.

नई दिल्ली के आलीशान कर्तव्य पथ पर संस्कृति मंत्रालय की झांकी में भारत को “लोकतंत्र की जननी” कहा गया है– यह एक ऐसा विचार है जिसका आधुनिक संसार में खंडन भी किया जाएगा.

लेकिन परेड और उससे जुड़ी दूसरी चीजें दर्शाती हैं कि मोदी ने बड़ी चालाकी से धीरे-धीरे लोकतंत्र के लक्ष्यों को बदलने के लिए इस तरह सिद्धांतों को पेश किया है, जिससे वह आसानी से अपनी बात को सही साबित कर सकते हैं.

कठोर आधुनिक परिभाषा में लोकतंत्र एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें नेताओं को औपचारिक रूप से नागरिकों द्वारा शासन करने के लिए चुना जाता है. पारंपरिक भारत का इसपर कोई असर नहीं है. अगर आप लिच्छवी जैसे एक अल्पकालिक गणतंत्र को शामिल करते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व में उसमें निर्वाचित परिषदें थीं.

लेकिन जब वैकल्पिक नैरेटिव के रूप में पेश किया जा रहा नजारा इतना शानदार है तो अकादमिक चतुराई पर किसकी नजर जाती है?

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रामराज जैसे शासन करने का दृष्टिकोण

भारत के 75वें गणतंत्र दिवस की परेड में आज के तेलंगाना राज्य के लोग प्राचीन ग्रामीण पंचायत में बैठे हैं और शासन में मदद के लिए अपनी राय देते दिखाए गए हैं. या आप तमिलनाडु की झांकी को देख सकते हैं, जिसमें नजारा चोल-युग के सिस्टम को दर्शाता है, जिसमें ताड़ के पत्तों पर लिखे उम्मीदवारों के नाम को एक बर्तन में डालकर– जो आने वाले समय में मतपेटी का पूर्वज था, प्रशासनिक प्रतिनिधियों का चुनाव किया जा रहा है.

जांबाजी के करतब, रंगारंग नृत्य, कल्याणकारी स्कीम की नुमाइश और सैन्य साजो-सामान तथा महिलाओं से भरे वाहनों के साथ ऐसी झांकियां मोदी के समर्थकों और प्रशंसकों के लिए रामराज (Ram Rajya)– यानी सुशासन का आदर्श मॉडल प्रदर्शित कर रही थीं.

आलोचकों द्वारा मोदी पर न्यायपालिका और मीडिया जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने, और भावनात्मक मुद्दों, प्रचार के हथकंडों, विधायी हेराफेरी का सहारा लेने का आरोप लगाया जाता है.

लेकिन वही नेता अपने डिजिटल एप से नौजवानों को देश को बेहतर बनाने के लिए सुझाव भेजने के लिए कहता है, जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं को प्रोत्साहन देने की कसम खाता है और गरीबों पर लोकलुभावन योजनाओं की भरपूर बरसात करता है, जिससे कि जनता उसे 10 साल के कार्यकाल पूरा करने के बाद और 5 साल के लिए अपना नेता चुन ले.

परेड के बाद वे दूर तक पैदल चले और हजारों लोगों का हाथ हिलाकर अभिवादन किया, जिनमें ध्यान से चुने गए दर्शकों में उनकी कल्याणकारी योजनाओं के ‘लाभार्थियों’ सहित भारत के विभिन्न तबकों की नुमाइंदगी कर रहे लोग शामिल थे.

मोदी द्वारा प्रचारित अर्थों में यही पूरी सटीक लोकतंत्र है. यही ‘जन इच्छा' का एक सिस्टम बनाने, उसे बढ़ावा देने और उस पर अमल करना है.
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जन इच्छा (volonte generale) के विचार को 18वीं सदी के राजनीतिक दार्शनिक जीन-जैक्स रूसो द्वारा “समग्र रूप में लोगों की इच्छा” के रूप में पेश किया गया था.

राजधर्म के साथ नारी शक्ति का संतुलन

मोदी ने पद्म पुरस्कारों, जिसके लिए आम जनता से नामांकन आमंत्रित किए जाते हैं, के माध्यम से गणतंत्र दिवस पर बहुत से अनजाने सामाजिक कार्यकर्ताओं और एक्टिविस्ट को मान्यता देकर अपने लोकलुभावन तरीकों को मजबूती दी है.

परेड काफी हद तक समावेशी शासन की तस्वीर को पेश करती है, जो साझा हित वाले विपक्षी गठबंधन का जवाब है.

इस साल की परेड की तीन थीम थीं: नारी शक्ति, दुनिया भर में लोकतंत्र के उदय में भारत की अग्रणी भूमिका, और भारत को एक विकसित देश बनाने का लक्ष्य– यह सभी चमकीली कल्पनाओं और ख्वाहिशों का मिश्रण पेश करती हैं.

वाल्मीकि द्वारा लिखित मुख्य रामायण की अगली लोकप्रिय कड़ी उत्तर कांड में, भगवान राम अपनी पत्नी सीता को जंगल में निर्वासित कर देते हैं, जब वह सुनते हैं कि एक धोबी अपनी पत्नी को डांटते हुए कह रहा है कि वह राम नहीं है, जो दूसरे पुरुष के घर में रहने के बाद लौटी अपनी पत्नी को अपना लेगा.

कहा जाता है कि राम ने राजा के रूप में राजधर्म का पालन करने के लिए ऐसा किया. राजा ऐसा शख्स होता है, जो जनता की राय पर ध्यान देता है और खुद उदाहरण पेश कर अगुवाई करता है, उसमें लोकतांत्रिक जवाबदेही होती है. मुझे वह चुटकुला पसंद है कि धोबी आने समय के सोशल मीडिया इन्फ्लुएंशर का पूर्वज था, जिन पर शासकों को ध्यान देने की जरूरत होती है.

राम का अपनी पत्नी से दूरी बनाना मौजूदा दौर में इस साल गणतंत्र दिवस परेड में प्रदर्शित की गई नारी शक्ति का मजाक उड़ाने जैसा होगा. लेकिन एक आदर्श के रूप में देखें तो जनता की राय पर ध्यान देना जन इच्छा का पालन है.

कहने वाले कह सकते हैं कि पार्टी सहयोगियों और संसद सदस्यों से जुड़े यौन उत्पीड़न के आरोपों के मामलों में सत्तारूढ़ बीजेपी का रवैया उदासीनता भरा है.

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चुनावी साल में ग्रैंड शो के क्या मायने हैं?

प्राचीन काल के राम की तरह मोदी भी आलोचना के शिकार हैं. हालांकि, जैसा कि गणतंत्र दिवस परेड और उससे पहले होने वाले कार्यक्रमों में उनकी सरकार द्वारा सोचे-समझे कदमों से किए गए कामों से पता चलता है, जनता को लुभाने से यह पक्का होता है कि शासक लोकप्रियता के साथ और भी बहुत कुछ हासिल कर सकता है, जो कुछ तबकों में सीमित बारीक बहसों पर ध्यान देकर गंवा सकता है.

आप इसे रामराज 2.0 कह सकते हैं, या प्राचीन ढांचे पर तैयार किया आधुनिक लोकतंत्र का मॉडल.

नजरिया जो भी हो, इन्फ्रास्ट्रक्चर स्कीम, साइंस प्रोजेक्ट, टेक्नोलॉजी कौशल और विकसित भारत की परिकल्पना करने वाली भविष्य की महत्वाकांक्षाओं का गणतंत्र दिवस परेड के प्रदर्शन का चुनावी साल में नौजवान मतदाताओं के बीच अच्छा संदेश जाना चाहिए.

आखिरकार, यही वो लोग हैं, जो भविष्य में रहेंगे और 50% भारतीय 28 वर्ष की औसत उम्र से कम के हैं. लगातार नुक्ताचीनी के बजाय करीने से पेश की गई आशावाद की थाली नौजवान आबादी के लिए कहीं बेहतर काम करती है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

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