(लेखक अमृत माथुर 1992 में पहली बार दक्षिण अफ्रीकी दौरे पर गई और 2003 में दक्षिण अफ्रीका में विश्व कप मुकाबलों में भाग लेने वाली भारतीय क्रिकेट टीम के मैनेजर रहे हैं)
भारत और दक्षिण अफ्रीका को एक-दूसरे के साथ क्रिकेट खेलते हुए 25 साल हो चुके हैं. अपकमिंग सीरीज को ब्रॉडकास्टर की ओर से महामुकाबले के रूप में पेश किया जा रहा है, जिसमें भारत पिछला हिसाब चुकता करेगा और पहले मिली हारों के निशान धो डालेगा.
ये बात जोरशोर से बार-बार कही जा रही है कि भारत बदला लेना चाहता है ताकि कई पराजयों और कथित अपमानों की ‘भरपाई’ हो सके. इनमें से कुछ अपमान हमारे क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर से भी जुड़े बताए जा रहे हैं. जाहिर है कि इस सीरीज में दिलचस्पी पैदा करने के लिए मामले को बेवजह बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है, सतही बातें की जा रही हैं और मार्केटिंग की बेवकूफाना तरकीबें आजमाई जा रही हैं. हालांकि खेल में जान तो कंपटीशन से ही आती है और इस सीरीज का प्रचार कर रहे लोग 5 जनवरी से शुरू हो रही तीन टेस्ट मैचों की सीरीज से पहले इससे जुड़ी तमाम बातों को हवा देने में जुटे हुए हैं.
केपटाउन के जाने माने न्यूलैंड्स मैदान में जब दोनों टीमें इस मुकाबले में आमने-सामने होंगी ( दिलचस्प बात यह है कि मुकाबला विराट बनाम ए बी डीविलयर्स का है, न कि विराट बनाम फाफ ड्यूप्लेसिस का ! ) तो यह बात याद रखी जानी चाहिए कि भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच क्रिकेट से जुड़ी दोस्ती और सहयोग का एक इतिहास है. अपनी रंगभेदी नीतियों के कारण दक्षिण अफ्रीका लंबे समय तक अंतरराष्ट्रीय खेलों से अलग-थलग पड़ा रहा क्योंकि टेस्ट मैच खेलने वाले सभी देशों ने उससे क्रिकेट संबंध तोड़ लिए थे. हालांकि विभिन्न समुदायों को एकजुट करते हुए अली बाकर ने जब दक्षिण अफ्रीका में एक क्रिकेट संस्था बनाई तो उन्हें वापस अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में लाने में मदद करने का पहला हाथ भारत ने बढ़ाया था.
बीसीसीआई अध्यक्ष ने आईसीसी में उनको दोबारा शामिल कराने की प्रक्रिया की अगुवाई की और दक्षिण अफ्रीका ने इसका धन्यवाद अपनी टीम को एकदिवसीय मुकाबलों के लिए भारत भेजकर किया
क्लाइव राइस की टीम के भारत पहुंचने से पहले पर्दे के पीछे काफी काम किया जाना था. बड़ी बाधा राजनीतिक थी, न कि क्रिकेट से जुड़ी हुई और क्रिकेट शुरू होने से पहले कई आपत्तियों को दूर करना था. राजनीति और सिद्धांतों के मामलों में भारत और दक्षिण अफ्रीका एक-दूसरे के बिल्कुल विरोधी छोरों पर थे. यहां तक कि प्रिटोरिया सरकार को भारत ने मान्यता नहीं दी थी और भारत ने उसके साथ किसी भी तरह का संबंध नहीं रखा था, चाहे वो कूटनीतिक हो या कोई और. मतभेद इतने गंभीर थे कि दक्षिण अफ्रीका के साथ कोई भी संबंध अवैध था और भारतीय नागरिकों के पासपोर्ट पर ऐसे आदेश का ठप्पा लगा होता था, जिसमें दक्षिण अफ्रीका की यात्रा करने की सख्त मनाही थी.
इन बाधाओं को पार करने के लिए बाकर एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल के साथ भारत आए, जिसमें जो पैमेंस्की (उनकी क्रिकेट संस्था के प्रमुख) और क्रिस मकरधज (मंडेला की अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के एक प्रभावशाली सदस्य) शामिल थे.
दक्षिण अफ्रीका के साथ क्रिकेट संबंध शुरू करने के लिए बीसीसीआई अध्यक्ष माधवराव सिंधिया ने पूरा जोर लगाया और जरूरी मंजूरियां हासिल करने के लिए साउथ ब्लॉक के राजनीतिक गलियारों में सक्रियता दिखाई. एक चार्टर्ड फ्लाइट से दक्षिण अफ्रीका के खिलाड़ी जब अंतत: कलकत्ता(अब कोलकाता) पहुंचे तो उनका शानदार तरीके से स्वागत किया गया और उस वन-डे सीरीज ने दोनों देशों के बीच एक टिकाऊ क्रिकेट साझेदारी का माहौल बना दिया. रंगभेदी नीतियों के खात्मे के बाद 1992 में भारत दक्षिण अफ्रीका का दौरा करने वाला पहला देश बना. उस ऐतिहासिक और अनोखे दौरे पर भारतीय टीम की कमान मुहम्मद अजहरुद्दीन के हाथों में थी.
उसे ‘फ्रेंडशिप सीरीज’ कहा गया और भारत-दक्षिण अफ्रीका के संबंधों के राजनीतिक पहलू, दक्षिण अफ्रीका में उथल-पुथल और वहां तेजी से बदलती सामाजिक स्थिति को देखते हुए वह दौरा ऐतिहासिक था. उस मुश्किल दौर में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट बहुत अहम बदलाव का संकेत देने और सद्भाव और मेलमिलाप का एक दमदार संदेश देने के लिए तैयार था. अजहर की टीम का डरबन में गर्मजोशी से स्वागत किया गया. भारत के बाहर सबसे बड़ी भारतीय आबादी वाला शहर डरबन ही है. टीम के सदस्यों को खुली कारों में बैठाकर शहर के मध्य भाग के करीब समुद्री किनारे के पास मौजूद लकदक होटल एलेंजेनी में ले जाया गया. इस आवाभागत का संदेश बिल्कुल साफ था. बमुश्किल छह महीने पहले ही इसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था क्योंकि डरबन शहर का यह हिस्सा ‘केवल गोरे लोगों’ के इलाके के रूप में जाना जाता था. इस इलाके में किसी अश्वेत का पांव रखना भी अपराध था, जिसकी कानून के तहत सजा तय थी.
इस शुरुआती क्रिकेट मुकाबले में टेस्ट और एकदिवसीय, दोनों तरह के मैचों में भारत का पलड़ा हल्का रहा.
यह बात साफ दिखी कि दूसरे देशों से मुकाबले की होड़ से बाहर होने के बावजूद दक्षिण अफ्रीका में क्रिकेट का हाल बेहतरीन था. इसके कई खिलाड़ी काउंटी मैचों में नियमित रूप से खेला करते थे और विभिन्न केंद्रों, यहां तक कि ईस्ट लंदन और ब्लूमफोंटेन सरीखे कम चर्चित केंद्रों पर भी क्रिकेट का बुनियादी ढांचा शानदार था.
भारत के लिहाज से देखें तो कपिल देव पोर्ट एलिजाबेथ टेस्ट को छोड़कर कहीं भी अपने शबाब पर नहीं दिखे. पोर्ट एलिजाबेथ टेस्ट में उन्होंने यादगार शतक बनाया. उस मैच में भारतीय टीम एक समय 31 रन पर छह विकेट गंवा चुकी थी और तब कपिल ने 129 रनों की पारी खेली. अजहर अपना फॉर्म ही तलाशते रहे, रवि शास्त्री घुटने की तकलीफ से परेशान रहे और सचिन रमेश तेंदुलकर के शानदार स्तर के लिहाज से यह एक नरम दौरा रहा. सचिन के लिए सबसे यादगार बात यह रही कि टेलीविजन रीप्ले देखने के बाद थर्ड अंपायर की ओर से आउट करार दिए जाने वाले वह पहले बल्लेबाज बने. सकारात्मक बात यह रही कि प्रवीण आमरे ने अपने पहले ही टेस्ट मैच में डरबन में शतक जड़ा और अनिल कुंबले ने भारत के नंबर वन स्पिनर के रूप में यह दौरा खत्म किया. एलन डॉनल्ड,शुल्ज और मैकमिलन की तूफानी रफ्तार के सामने भारतीय बल्लेबाज जूझते नजर आए. अधिकतर मौकों पर भारतीय बल्लेबाज इतने रन ही नहीं बना सके, जिनके दम पर भारतीय गेंदबाज पलटवार कर पाते.
फिर भी यह एक यादगार दौरा रहा और यह इसलिए भी खास बन गया क्योंकि भारतीय टीम नेल्सन मंडेला से मुलाकात की. मंडेला ही वह कद्दावर नेता थे, जिन्होंने अपने देशवासियों में उम्मीद भरी, उनके जख्मों पर मरहम लगाया और सामाजिक बदलाव की एक अतुल्य प्रक्रिया की अगुवाई की.
पेशेवर खिलाड़ियों का समय मैदान पर उनके प्रदर्शन पर निर्भर करता है, लेकिन इस ऐतिहासिक दौरे की तरह ऐसे मौके भी आते हैं, जब उन्हें अहसास होता है कि खेलों के सिवा भी जिंदगी में बहुत कुछ है. इसका कैनवास और इसके खेल का मैदान 75 गज की बाउंड्री से कहीं बड़ा होता है. भारतीय टीम का 1992 का दक्षिण अफ्रीका दौरा एक ऐतिहासिक अवसर था, जब क्रिकेट ने खेलों के दायरे से कहीं बड़ी भूमिका निभाई थी.
(अमृत माथुर वरिष्ठ पत्रकार हैं, वह बीसीसीआई के जनरल मैनेजर और भारतीय क्रिकेट टीम के मैनेजर रहे हैं उनसे @AmritMathur1 पर संपर्क किया जा सकता है)
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