(कई रिपोर्ट्स के मुताबिक, पाकिस्तानी वायु सेना ने गुरुवार सुबह ईरान में स्थित कथित बलूच अलगाववादी शिविरों पर हवाई हमले किए.)
ईरान और पाकिस्तान असल में बहुत लंबे समय से अच्छे दोस्त नहीं रहे हैं. हालांकि, वे कट्टर दुश्मन भी नहीं हैं. 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति के बाद के जटिल रुख ने उनके रिश्ते को परिभाषित किया. लेकिन इस हफ्ते की शुरुआत में, उनके बीच का नाजुक संतुलन बिगड़ गया, जोकि पहले कभी नहीं हुआ था.
बलूचिस्तान का इलाका ईरान और पाकिस्तान के बीच बंटा हुआ है और सुरक्षा की दृष्टि से 9/11 के बाद यह काफी हद तक असुरक्षित बना हुआ था. दोनों देशों में मामूली विद्रोह सक्रिय है और अशांत बलूच अपनी-अपनी केंद्रीय सरकारों के खिलाफ लड़ रहे हैं. हालांकि, दोनों देशों में नाराजगी की वजह अलग-अलग है.
पाकिस्तान के मामले में, यह उप-राष्ट्रवाद का मामला है. ईरान के मामले में, उप-राष्ट्रवाद के साथ-साथ सुन्नी संप्रदायवाद भी एक वजह है. इसके अलावा दोनों देशों में उग्रवाद घातक होता जा रहा है.
जबकि बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) और सहयोगी ग्रुप ने बॉर्डर के इस तरफ पाकिस्तानी और चीनी हितों के खिलाफ कई हमले किए हैं. एक तरफ 'जुंदल्लाह' संगठन और बाद में जैश उल अदल जैसे ग्रुप ने इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स (आईआरजीसी) के रैंकों और फाइलों में तबाही मचा रखी है और दूसरी तरफ स्थानीय पुलिस ने. ऐसे में कई तरह से दोनों एक दूसरे के लिए खतरा हैं.
इसलिए, पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में ईरान द्वारा किए गए बॉर्डर पार हमले ने इस्लामाबाद में उच्चाधिकारियों को चौंका दिया. जबकि ईरान कई सालों से पाकिस्तान स्थित ग्रुप्स के खिलाफ एकतरफा कार्रवाई की धमकी देता रहा है, लेकिन किसी ने नहीं सोचा था कि वह अपनी धमकी पर अमल करेगा.
ईरान को उसकी धरती से सक्रिय बलूच ग्रुप पर लगाम लगाने के लिए पाकिस्तान लगभग जैसे को तैसा के अंदाज में धमकी देता रहा है. हालांकि, कल तक दोनों पक्ष एक-दूसरे की संप्रभुता का सम्मान करते थे. इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जब इस आर्टिकल को लिखने वाले लेखक ने अपने सोर्स से इस्लामाबाद का मूड जानने की कोशिश की, तो आम शब्द में जवाब था "विश्वासघात".
जुंदल्लाह से लेकर जैश उल अदल तक
जबसे 2018-2019 के बाद से जैश-उल-अदल के खिलाफ शत्रुता बढ़ी है, दोनों पड़ोसियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का खेल कोई नई बात नहीं है. अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के बाद, ईरान ने अपने सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत और दूसरे नजदीकी प्रांतों में बलूच विद्रोहियों द्वारा घातक हमलों में अचानक तेजी देखी थी. तब मुख्य रूप से जुंदल्लाह सक्रिय ग्रुप था, जिसका आधार पाकिस्तान के बलूचिस्तान में था और उसे अमेरिकियों का आशीर्वाद प्राप्त था, जो उस समय पाकिस्तान के अंदर अपनी मनमर्जी से काम कर रहा था.
जैसे-जैसे हमले घातक होते गए, ईरान ने आतंकवादी समूह पर लगाम लगाने के लिए इस्लामाबाद पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. पाकिस्तान ने असहायता जाहिर की. वहीं ईरान को एक अहम मौका मिला जब 2010 में जुंदल्लाह के हेड अब्दोलमलेक रिगी को पकड़ने और खत्म करने में कामयाबी मिली.
तब कहा गया था कि इसकी खुफिया जानकारी पाकिस्तान ने ही मुहैया कराई थी. फिर, पाकिस्तान में रेमंड डेविस उपद्रव हुआ, जहां सीआईए (सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी) एजेंट ने दो पाकिस्तानी खुफिया एजेंट की गोली मारकर हत्या कर दी. इसके बाद की कार्रवाई में पाकिस्तान ने जुंदल्लाह को अपनी जमीन से बाहर कर दिया, लेकिन उसे अफगानिस्तान में एक अमेरिकी अड्डे के आसपास शरण मिल गई. हालांकि, ये ग्रुप जल्दी ही खत्म हो गया, क्योंकि अफगानिस्तान के पश्चिमी क्षेत्र में जहां स्थानीय लोगों में बड़े पैमाने पर ईरान समर्थक भावनाएं थीं, वहां से इसे ऑपरेट करना मुश्किल साबित हुआ.
हालांकि, कुछ ही समय बाद, जुंदल्लाह के कुछ सदस्यों ने एक और ग्रुप की स्थापना की और इसका नाम जैश उल अदल रखा. इस समूह ने अपने शुरुआती दिनों में कुछ चौंकाने वाले ऑपरेशन किए, लेकिन यह किसी भी सार्थक तरीके से ईरान को परेशान करने में कामयाब नहीं हुआ. इसके कई नेताओं को या तो ईरान ने मार डाला या पाकिस्तान ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और फांसी के लिए ईरान को सौंप दिया. एक मौके पर, ईरान ने जो खुफिया जानकारी उपलब्ध करायी थी, उसके आधार पर अफगानिस्तान तालिबान ने जैश उल अदल के एक नेता की हत्या कर दी थी.
हालांकि, ये गुट पिछले कुछ सालों में अपने हमलों में और अधिक साहसी नजर आता है और खास तौर से सरवन शहर और उसके आसपास ईरानी सुरक्षा तंत्र को तहस-नहस कर चुका है. पिछले दो सालों में ईरानी सेना के साथ-साथ आईआरजीसी के कई उच्च पदस्थ अधिकारी मारे गए हैं. पिछले साल महसा अमीनी की मौत के बाद हुए खूनी संघर्ष के दौरान बलूच उग्रवादियों ने जाहेदान शहर पर कब्जा करने की कोशिश की थी.
हालांकि, कोशिश नाकामयाब कर दी गई, लेकिन बड़े पैमाने पर जान और माल का नुकसान हुआ. इससे तेहरान बुरी तरह बौखला गया और उसने पाकिस्तान पर और ज्यादा दबाव बनाना शुरू कर दिया. जबकि पाकिस्तान ने बार-बार अपनी सीमा के अंदर जैश उल अदल के कुछ नेताओं को गिरफ्तार किया या मार डाला. इसके अलावा मैदानी इलाके की वजह से उनकी गतिविधियों को पूरी तरह से रोकना मुश्किल हो गया था.
न तो ईरान और न ही पाकिस्तान लड़ाई के लिए कोई नया मोर्चा खोलना चाहेगा
पाकिस्तान के पास भी ईरान से शिकायतों का अंबार है. शुरुआत में यह दावा किया गया है कि बीएलए और सहयोगी ग्रुप ईरान से ऑपरेट करते हैं और अक्सर पाकिस्तान में हमलों के बाद ईरान भाग जाते हैं. यह भी लंबे समय से कहा जा रहा है कि ईरानी खुफिया एजेंसी भारत के साथ मिल कर बलूचिस्तान में अशांति फैला रही है. ड्रग कार्टेल के सदस्य और दोनों देशों के पासपोर्ट रखने वाले आम अपराधी अक्सर एक-दूसरे के क्षेत्रों में पकड़े जाते हैं. इससे अविश्वास और बढ़ता है.
यही नहीं और भी कई आरोप हैं. पाकिस्तान इस बात से भी नाराज है कि उसके कई नागरिकों को ईरान ने सीरिया में लड़ने के लिए भर्ती किया था. सीरियाई गृहयुद्ध के दौरान, आईआरजीसी ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान की शिया आबादी से फातेमियाउन डिवीजन और जैनबियुन डिवीजन नामक सैन्य ग्रुप को खड़ा किया और ट्रेनिंग दी.
जैनबियुन डिवीजन, जिनके लड़ाकों को मीडिया ने कई साल पहले सीरिया के पलमायरा क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई में कवर किया था, वो उत्तरी पाकिस्तान के शिया-बहुल पारचिनार क्षेत्र से आए थे. लाहौर और कराची के कई पंजाबी और उर्दू भाषी शिया भी इसका हिस्सा थे. जब उनके लड़ाके इस्लामिक स्टेट को हराने के बाद पाकिस्तान वापस आए, तो उनमें से कई को पूछताछ के लिए उठाया गया और उन्हें कालकोठरी में बंद कर दिया गया. पाकिस्तान अपने उन नागरिकों से घबराया हुआ था जो ईरान समर्थक और युद्ध-मिजाज लड़ाके थे. इस मामले का पुरजोर विरोध हुआ लेकिन ईरान ने मामले को रफा-दफा कर दिया.
और जबकि ज्यादातर शिकायतों को राजनयिक स्तर पर निपटाया गया था, ऐसे में दो दिन पहले ईरान के हमले को इस्लामाबाद द्वारा क्षेत्रीय संप्रभुता के घोर उल्लंघन के रूप में देखा जा रहा है. पाकिस्तान ने भी ईरान में एयरस्ट्राइक कर जवाबी कार्रवाई की है.
हालांकि, न तो ईरान-जो कि इजरायल के खिलाफ लड़ाई को आगे बढ़ाने में पूरी तरह से शामिल है और न ही पाकिस्तान- आर्थिक संकट में फंसा हुआ है- लड़ाई का कोई नया मोर्चा खोलना चाहेगा.
(सौरभ कुमार शाही एक पत्रकार हैं जो पश्चिम और दक्षिण एशियाई मामलों में विशेषज्ञ हैं, और अंतर-धार्मिक और अंतर-इस्लामिक संघर्ष के मुद्दे पर खास पकड़ रखते हैं. यह एक ओपीनियन आर्टिकल है, ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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