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जम्मू-कश्मीर: चुनाव से पहले आरक्षण में बदलाव नौकरी खोज रहे युवाओं के लिए कैसे झटका है?

जम्मू-कश्मीर में उठाए गए इस कदम ने कुल आरक्षण कोटा को 70 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है,

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J&K Reservation Policy: 29 साल के साहिल पर्रे इंजीनियरिंग ग्रेजुएट हैं और दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले से ताल्लुक रखते हैं. उन्होंने साल 2022 में जम्मू और कश्मीर (J&K) में पुलिस सब-इंस्पेक्टर की भर्ती के लिए लिखित परीक्षा दी थी. परीक्षा के नतीजे पिछले साल घोषित किये गये थे. हालांकि, वह क्वालिफाई नहीं कर पाए. परीक्षा आयोजित करने वाली एजेंसी पर धांधली का आरोप लगा और पूरा मामला मुकदमेबाजी की लंबी प्रक्रिया में फंस गया.

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लेकिन साहिल ने इस झटके से अपना हौसला कम नहीं होने दिया. वह इस वर्ष सिविल सेवाओं सहित अधिक कंपटीटिव भर्ती परीक्षाओं में शामिल होने के लिए दृढ़ संकल्पित थे.

लेकिन जम्मू-कश्मीर प्रशासन के एक नए आदेश ने साहिल और उनके जैसे लाखों अन्य क्षेत्रीय अभ्यर्थियों को हमेशा के लिए निराशा की स्थिति में डाल दिया है.

जम्मू-कश्मीर सरकार ने बदला कोटा

16 मार्च को, जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने यहां के पहाड़ी भाषी लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को मंजूरी दे दी. यह दस लाख की आबादी वाला भाषाई समुदाय है, जिसे पिछले साल दिसंबर में अनुसूचित जनजाति (ST) श्रेणी में शामिल किया गया था.

जम्मू-कश्मीर सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग (एसईबीसीसी) के अनुसार पहाड़ी लोग वे हैं जिन्होंने "पहाड़ निवासियों की एक खास संस्कृति विकसित की है" और "अपेक्षाकृत मुख्यधारा के समाज से कटे हुए हैं और एक निश्चित भौगोलिक नुकसान का सामना कर रहे हैं."

हालांकि इस मुस्लिम-बहुल क्षेत्र में आरक्षण शायद ही कभी एक विवादित मुद्दा रहा हो, लेकिन कोटा के प्रतिशत ने राजनीतिक आक्रोश पैदा कर दिया है.

संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान जम्मू-कश्मीर से संबंधित तीन विधेयकों को पारित हुए. इसके बाद सरकार ने इस केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) में एसटी श्रेणी में नए जोड़े गए समूहों के लिए नए आरक्षण लागू करते हुए, जम्मू-कश्मीर आरक्षण नियम (2005) में संशोधन किया.

इन तीन विधेयकों में "कमजोर और वंचित वर्गों (सामाजिक जातियों)" के नामकरण को "अन्य पिछड़ा वर्ग" (OBC) में बदलते हुए अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) सूची में नई जातियों को शामिल करने का प्रावधान किया गया है.
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जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल के एक प्रवक्ता ने कहा, “संसद द्वारा जम्मू-कश्मीर में लागू अनुसूचित जनजाति आदेश में चार नई जनजातियों यानी पहाड़ी जातीय समूह, पद्दारी जनजाति, कोलिस और गद्दा ब्राह्मणों को शामिल करने के बाद, प्रशासनिक परिषद ने नए जोड़े गए लोगों के पक्ष में 10% आरक्षण को मंजूरी दे दी. इसके साथ एसटी समुदाय के लिए कुल आरक्षण 20% तक हो गया है.”

इसके अलावा, सरकार ने ओबीसी सूची में 15 नई जातियों को भी जोड़ा और उनका आरक्षण 4 प्रतिशत से बढ़ाकर 8 प्रतिशत कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन

हालांकि जम्मू-कश्मीर में उठाए गए इस कदम ने यहां कुल आरक्षण कोटा को 70 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है, जबकि 'ओपन मेरिट' श्रेणी के तहत दाखिल करने वाले आवेदकों को शेष 30 प्रतिशत तक सीमित कर दिया है.

कानूनी विशेषज्ञों और पीड़ित अभ्यर्थियों ने द क्विंट को बताया कि ऐसा करके आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट (एससी) के ऐतिहासिक फैसले का उल्लंघन किया गया है.

इस पूर्व राज्य की युवा आबादी (जम्मू-कश्मीर की आबादी का 29.3 प्रतिशत 15-29 वर्ष आयु वर्ग के बीच है) पहले से ही बढ़ती बेरोजगारी दर (34.80 प्रतिशत) से जूझ रही है. ऐसे में कश्मीर में लोकसभा चुनाव से पहले बड़ी राजनीतिक अनिश्चितता के बीच घटते आर्थिक अवसरों को लेकर इस नए कदम ने चिंता पैदा कर दी है.

साहिल पर्रे ने कहा, "यह दिनदहाड़े हत्या है... मुझे उम्मीद थी कि अगर मैंने पर्याप्त मेहनत की तो मैं किसी दिन क्वालीफाई कर लूंगा. लेकिन अब यह भी संभव नहीं है.”

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साहिल पर्रे एक पुलिस अधिकारी के बेटे हैं. वे जनता की सेवा के लिए खुद पुलिस अधिकारी बनना चाहते हैं. उन्होंने कहा, “पुलिस सेवा में काम करने के पर्याप्त अवसर हैं. यदि आपके इरादे अच्छे हैं, तो आप समुदाय के लिए बहुत सारे अच्छे काम कर सकते हैं.. मैं ऐसे परिवार से हूं जहां बहुत सारे पुलिसकर्मी हैं, मैंने इसे प्रत्यक्ष रूप से देखा है."

जम्मू-कश्मीर में आरक्षण प्रणाली का विषम पैटर्न

2020 तक, जम्मू-कश्मीर में कुल 56 प्रतिशत नौकरियां और प्रवेश आरक्षित श्रेणियों के लिए आरक्षित किए गए थे. 2019 से पहले यह आंकड़ा 52 प्रतिशत था. इनमें एससी के लिए 8 प्रतिशत, एसटी के लिए 10 प्रतिशत, ओबीसी के लिए 4 प्रतिशत, पिछड़े क्षेत्रों के निवासियों के लिए 10 प्रतिशत, वास्तविक नियंत्रण रेखा/अंतर्राष्ट्रीय सीमा (ALC/LB) से सटे क्षेत्रों के निवासियों के लिए 4 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 10 प्रतिशत शामिल थे.

पूर्व सैनिकों और दिव्यांगजनों (PWD) के लिए क्षैतिज/हॉरिजॉन्टल आरक्षण के रूप में 10 प्रतिशत आगे निर्धारित किया गया था.

लेकिन नए बदलावों के बाद अब आरक्षण कोटा बढ़कर 70 फीसदी हो गया है. कानूनी विशेषज्ञों का मानना ​​है कि आरक्षण के प्रतिशत को इतना आगे बढ़ाना 1992 के इंद्रा साहनी मामले के फैसले का उल्लंघन है जहां सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की पीठ ने आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा लगा दी थी.

जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाई कोर्ट के वकील मोहसिन डार ने कहा, “सरकारें कोई भी बदलाव लाने से पहले इस फैसले का पालन करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य हैं. मुझे आश्चर्य है कि सरकार यह संशोधन कैसे लेकर आई.. दुर्भाग्य से, हमें समझ नहीं आता कि ये मुद्दे चुनाव के समय क्यों होते हैं."

मोहसिन डार ने कहा कि इस साल की शुरुआत में संसद में आरक्षण से संबंधित तीन विधेयकों के पारित होने के बाद बदलाव हुए क्योंकि जम्मू-कश्मीर की अपनी (जो पहले राज्य था) विधायिका निष्क्रिय बनी हुई है.

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कश्मीर में स्थानीय लोगों के लिए यह भी दुख की बात है कि केंद्र सरकार उन्हें शामिल किए बिना ही उनकी ओर से ऐसे निर्णय लेने में सक्षम है जिसका प्रभाव दूरगामी होगा.

“जम्मू-कश्मीर लोकसभा में छह सांसद भेजता है. दुर्भाग्य से, उनमें से कोई भी इस मामले पर हमारी गलतफहमियों को व्यक्त करने में सक्षम नहीं था... नए आरक्षण कोटा का आवंटन पूरी तरह से असंवैधानिक है. 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू-कश्मीर की लगभग 75 प्रतिशत आबादी सामान्य श्रेणी में है और अब वे केवल 30 प्रतिशत वैकेंसी के लिए कम्पीट करेंगे. यह कैसे उचित है?”
मोहसिन डार

पहाड़ी आंदोलन का इतिहास

पहाड़ियों के लिए आरक्षण का लाभ बढ़ाना एक लंबे समय से लंबित मांग थी जिसके लिए समुदाय 1991 से आंदोलन कर रहा था. 1991 में सरकार ने जम्मू-कश्मीर (अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) अधिनियम को अधिसूचित किया था जिसने गुज्जरों की खानाबदोश जनजाति को एसटी सूची में ला दिया.

पहाड़ियों ने दावा किया कि वे गुज्जरों जैसी ही परिस्थितियों में रहते थे, और इस प्रकार, उन्हें गलत तरीके से बाहर छोड़ दिया गया था.

2014 में, पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य विधानसभा ने पहाड़ियों को एसटी का दर्जा देने के लिए एक विधेयक पारित किया था. लेकिन विधेयक को तत्कालीन राज्यपाल एनएन वोहरा ने इस आधार पर लौटा दिया था कि राज्य के समाज कल्याण विभाग को अभी तक पिछड़ा वर्ग आयोग से उन क्षेत्रों की पहचान करने की सिफारिश प्राप्त नहीं हुई है जहां ये लोग रहते हैं.

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बता दें कि इस तरह के आयोग की स्थापना का उद्देश्य उन मानदंडों को स्थापित करना था जिनके आधार पर पहाड़ी भाषी लोगों को आरक्षण का लाभ देने के लिए एक विशिष्ट समुदाय के रूप में पहचाना जा सके.

फरवरी 2018 में, पहाड़ी भाषी लोगों के विकास के लिए जम्मू-कश्मीर राज्य सलाहकार बोर्ड ने पहाड़ी लोगों का पहला जनसंख्या सर्वे जारी किया. इसमें पाया गया कि जम्मू-कश्मीर में दस लाख से अधिक पहाड़ी भाषी थे, जो पूर्व राज्य की आबादी का 8.16% था. उनमें से अधिकांश राजौरी (56.10%) और पुंछ (56.03%) जिलों में केंद्रित थे.

2020 में, नये बने केंद्र शासित प्रदेश के उपराज्यपाल प्रशासन ने पहाड़ियों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की श्रेणी में शामिल करने के लिए 2005 के नियमों में संशोधन किया, जो समुदाय को 4 प्रतिशत आरक्षण का हकदार बनाता है.

उसी साल, जम्मू-कश्मीर में शिक्षाविद् जीडी शर्मा की अध्यक्षता में सामाजिक और शैक्षिक पिछड़े वर्गों के लिए एक आयोग की स्थापना की गई थी.

अक्टूबर 2022 में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की जम्मू-कश्मीर यात्रा से ठीक तीन दिन पहले, आयोग ने पहाड़ियों को एसटी का दर्जा देने की सिफारिश की. इस प्रकार, शीतकालीन सत्र के दौरान संसद में पेश किए गए तीन कानूनों का यह आधार बन गया.
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बीजेपी की चुनावी रणनीति में इसकी भूमिका?

जम्मू-कश्मीर के राजनीति को करीब से फॉलो करने वालों का मानना ​​है कि लेटेस्ट जनगणना के अभाव में और 2022 में चुनावी सीटों के परिसीमन को देखते हुए, आरक्षण कोटा का विस्तार करना स्पष्ट रूप से आगामी चुनावों से पहले बीजेपी की चुनावी रणनीति का एक हिस्सा है.

जैसा कि क्विंट हिंदी ने 2022 में रिपोर्ट किया था, लोकसभा सीटों के परिसीमन में पुंछ और राजौरी (पहले जम्मू लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का हिस्सा) के क्षेत्र को कश्मीर में अनंतनाग संसदीय सीट से जोड़ा गया है. इन्हीं दोनों जगह पहाड़ी आबादी का एक बड़ा हिस्सा है.

श्रीनगर स्थित एक एक्सपर्ट ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र में अब दो अलग-अलग मतदान पैटर्न वाले दो प्रांतों में 18 विधानसभा क्षेत्र हैं."

उन्होंने कहा, “बीजेपी कश्मीर की 11 विधानसभा सीटों पर चाहेगी की कम मतदान हो ताकि राजौरी-पुंछ के 7 क्षेत्रों में उच्च मतदान उसके पक्ष में काम कर सके. और वे जानते हैं कि यह कैसे करना है. उन्होंने अतीत में कश्मीर के पड़ोसी जिलों में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ शुरू करके यह तरकीब निकाली की कैसे वोटिंग का बहिष्कार करवाना है.''

आरक्षण के मुद्दे के इस गहन राजनीतिक संदर्भ से युवा कश्मीरी भी अनजान नहीं हैं.

साहिल पर्रे जैसे अभ्यर्थियों का कहना है कि उन्हें कश्मीर में अपना कोई भविष्य नहीं दिखता. उन्होंने कहा, “सिर्फ इसलिए कि वे दक्षिण कश्मीर की इस सीट को पाने के लिए बेताब हैं, वे हमारी उम्मीदों की हत्या कर रहे हैं. एक तरफ, वे जम्मू-कश्मीर को देश के बाकी हिस्सों के साथ एक करने का दावा करते हैं, लेकिन दूसरी तरफ, यहां उठाए जा रहे राजनीतिक कदम इसे अपवाद का राज्य बनाते जा रहे हैं."

(शाकिर मीर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उन्होंने द वायर.इन, आर्टिकल 14, कारवां मैगजीन, फर्स्टपोस्ट, द टाइम्स ऑफ इंडिया और अन्य के लिए भी लिखा है. वह @shakirmir ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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