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एग्जिट पोल अक्सर गलत साबित क्यों होते हैं? वोटर्स की चुप्पी को नहीं पढ़ने में छिपा जवाब

एग्जिट पोल का सर्वे करते वक्त जवाब देने वाले के 'झुठ' को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, लेकिन इसके पीछे एक सिद्धांत है.

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हमारे देश में लोगों को कॉन्सपिरेसी थ्योरिज (षडयंत्र सिद्धांत) बहुत पसंद हैं. जब एग्जिट पोल (Exit Poll) ने बीजेपी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को 542 सदस्यीय लोकसभा में 350 से अधिक सीटें जीतते हुए दिखाया तो शेयर बाजार झूम उठा और फिर वास्तविक आंकड़े 290 के करीब पहुंचने पर बाजार सीधे क्रैश कर गया.

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मुझे इस बात पर आश्चर्य नहीं हुआ कि वास्तविक नतीजे आने और शेयर बाजार के गिरने के बाद लोग दबे जुबान फुसफुसाने लगे. कुछ लोग इस बात की पड़ताल करना चाहते हैं कि क्या एग्जिट पोल करने वाले लोग शेयर बाजार में हेराफेरी करने वालों के साथ मिले हुए थे?

हालांकि, जमीनी स्तर पर चुनावों को कवर करने वाले व्यक्ति के रूप में, मुझे लगता है कि इसे देखने का एक और तरीका भी है, और यही बात कुछ गलती करने वाले सर्वेक्षणकर्ता भी शर्म के साथ स्वीकार कर रहे हैं. मतदाताओं ने सच छुपाया या उसे घुमा कर बताया!

इसका कारण समझने के लिए, मैं अपने कॉलेज के दिनों का एक चुटकुला शेयर करना चाहता हूं, जो एक सामान्य पहेली पर आधारित है. इस चुटकुले में कहा जाता है कि, "एक चींटी कह रही है कि मेरे आगे दो चींटियां हैं, दूसरी कहती है कि मेरे पीछे दो चींटियां हैं, फिर तीसरी कहती है कि एक चींटी मेरे आगे है और एक पीछे है. अंत में सवाल किया जाता है कि बताओ कितनी चीटियां हैं?"

इस सवाल का क्लासिक उत्तर है "तीन", लेकिन एक बार एक शराराती स्टैंडअप कॉमिक एक्ट में, एक लड़के ने चुटकुले के सवाल के जवाब में कहा: "तीसरा झूठ बोल रहा था!"

सर्वे करते वक्त झुठ को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, लेकिन इसके पीछे एक सिद्धांत है. लोग भूल जाते हैं कि राजनीति में लोकतांत्रिक चुनावों में गुप्त मतदान शामिल होता है. गोपनीयता लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया का अहम हिस्सा है जिसमें वोट देने वालों को अक्सर कई तरह के दबाव, प्रलोभन और यहां तक कि धमकियों का सामना करना पड़ता है.

मतदाता जितना शिक्षा, समुदाय या लिंग के मामले में जितना गरीब या पिछड़ा होगा, उसके इन प्रलोभन, धोखाधड़ी, झूठ में फंसने और गुमराह होने की संभावना ज्यादा होगी. मैं इसे शक्ति विषमता की समस्या कहता हूं. कंपनियों की शेयरधारक बैठकों में जहां वोटर अपने विचारों को स्वतंत्र तौर पर सामने रखते हैं लेकिन गरीब व्यक्ति के लिए नेता का चुनाव इसके बिलकुल उलट होता है. गरीबों को अक्सर राजनीतिक चुनावों में एक तय तरीके से बोलने या मतदान करने के लिए मजबूर किया जाता है.

चुनाव में अक्सर लाभ को अधिकतम करने और हानि को न्यूनतम करने का खेल भी शामिल होता है.

मैं अक्सर मजाक में कहता हूं कि जब भारतीय सरकारी नौकरी चाहते हैं तो वे अपनी जाति छोटी कर लेते हैं, लेकिन जब वे शादी करना चाहते हैं तो उसे ऊंचा कर लेते हैं. वास्तविक साक्ष्यों से पता चलता है कि राज्य से फायदा उठाने के लिए जाति और आर्थिक पहचान के साथ अक्सर छेड़छाड़ की जाती है. यह कमोबेश वैसा ही है जब कंपनी या व्यक्ति बैंक से लोन लेने के लिए अधिक कमाई, ज्यादा नकदी या अपनी संपत्ति का विवरण दिखाते हैं.

इस साल के आम चुनावों में, खासतौर पर उत्तर प्रदेश में, जहां चुनावी पंडित बुरी तरह गलत साबित हुए हैं, इसका मुझे कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने "बुलडोजर" शासन के लिए कुख्यात हो गए, यह साबित करने के लिए कि वे लॉ-एंड-ऑर्डर लागू करते हैं. उन्होंने लोगों के घरों और इमारतों को एक झटके में गिरा दिया. अयोध्या में भगवान श्री राम का मंदिर हजारों गरीब लोगों को विस्थापित कर, उन्हें परेशानी में डाल कर और केंद्र सरकार के लगातार दबाव के बाद बना है.

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ऐसे में, क्या आप उन लोगों से, जो सत्ता में बदलाव चाहते हैं, उनसे यह उम्मीद करते हैं कि वह सरल भाषा में आपके सवालों का जवाब दें? मेरा मानना है कि यह सोचना गलत है.

मेरे पास शेयर करने के लिए अपनी एक कहानी है. 1991 में, मेरे अधिकांश चुनावी अनुमान गलत साबित हुए. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि एक भोले-भाले युवा पत्रकार के तौर पर मैं चुनाव अभियान के दावों को सच मान लेता था. राजनीतिक प्रचारक अक्सर कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करने या प्रेरित करने और उनका मनोबल बढ़ाने के लिए अपने जीत की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं. यह बात थोड़ी बहुत बीजेपी के नारे "अब की बार 400 पार" को स्पष्ट करती है.

बीजेपी के कार्यकाल में गरीबों ने शांति से पासा पलटा

राजनीति में शामिल लोग इस बात को अच्छे से जानते हैं कि भारतीय चुनाव में मतदाता अपना वोट बर्बाद करना पसंद नहीं करते और इसलिए अक्सर उन्हें वोट दे देते हैं जिनका पलड़ा भारी दिख रहा हो. और यही चीज देश में चुनावी लहर को जन्म देती है. पार्टियां अक्सर इसी कारण से चुनाव में अपने कार्यकर्ता या 'पार्टी का लहर' होने का दावा करती हैं. इस चुनावी लहर के बयानबाजी में अक्सर असलियत नजरअंदाज हो जाती है. 2024 लोकसभा चुनाव में कुछ ऐसा ही देखने को मिला.

1993 के हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों को कवर करते समय मुझे अपनी सफलता मिली. चुनाव में मौजूदा बीजेपी सरकार के जीतने की उम्मीद थी. मैं अभियान के दावों को अंतिम सच मान कर नहीं चल रहा था. जब मैंने गांव के गरीब लोगों से बातचीत की, तो मैंने उनकी आवाज के लहजे, उनकी आंखों की हरकतों और बातों को गोपनीय रखने की उनकी प्रवृत्ति का अध्ययन किया.

मैंने अनुमान लगाया कि यहां सत्ता विरोधी लहर है. मैं एक कदम आगे बढ़कर बीजेपी के हार का अनुमान लगाया, जो आखिर सच निकला और इसके लिए मुझे अपने संपादकों से शाबाशी भी मिली.

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लेकिन यह उन एग्जिट पोलक करने वालों के लिए मुश्किल हो सकता है, जिनकी टीम एक लय में सवाल पूछती हैं. मतदाता के बॉडी लैंगवेज और बात करने के लहजे या शब्दों के चुनाव को समझना उतना ही कठिन है जितना कि शेयर बाजारों में वायदा और विकल्प में मुनाफा करना. एक्जिट पोल करने वालों के पास वस्तुतः कोई विकल्प नहीं है. एग्जिट पोल एक फिसलन भरा रास्ता है जो गरीब मतदाताओं द्वारा फेंके गए रणनीतिक भ्रमों के कारण और भी बदतर हो गया है!

मैं उन कॉन्सपिरेसी थ्योरी देने वालों पर ज्यादा विश्वास करता हूं जो कहते हैं कि जो टीवी चैनल इन सर्वों को एक्सक्लूसिव इवेंट के तौर पर हाईप देते हैं, उन्हें शेयर बाजार के सट्टेबाजों की तुलना में अधिक लाभ होने की संभावना होती है. आंखों देखी चीजे स्टॉक मार्केट के चाल से ज्यादा तेज और निश्चित होती हैं.

एक ऐसे व्यक्ति के रूप में, जिसने दशकों तक बीजेपी के तीखे अभियान देखे हैं, मैं यह कहना चाहूंगा कि इस पार्टी के लिए एग्जिट पोल के गलत होने का खतरा दूसरों के मुकाबले ज्यादा है. पार्टी के समर्थक अपनी ही सफलता के दावे खुद सबसे जोर-शोर से करते हैं, रैलियों में और घर-घर जाकर प्रचार करने में सबसे आक्रामक होते हैं. वह अपना शक्ति और प्रभुत्व होने का ऐसा माहौल बना देते हैं कि कुछ क्षेत्रों में यही चीज पार्टी पर प्रतिकूल प्रभाव डाल देती है.

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यहीं पर जहां विभिन्न प्रकार से सम्पन्न लोग इतने साहसी होते हैं कि वह खुलेआम अपने मतों और विचारों को जाहिर कर देते हैं, वहां गरीब लोगों रणनीतिक चुप्पी साधे अपने मतों से अपना जवाब देते हैं. शुरूआत में शक्ति की विषमता अभिव्यक्ति की विषमता के साथ जुड़ी होती है. लोग बुदबुदाते हैं, मतदाताओं के शब्दों को कोड किया जाता है या अक्सर अपेक्षाओं और वास्तविकता के बीच एक लंबी परत डालती आंखे अपने अपने अंदर सब कुछ समाहित कर लेती हैं.

मुझे इस बात पर आश्चर्य नहीं है कि 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सत्ता खोनी पड़ी, क्योंकि बीजेपी का "इंडिया शाइनिंग" अभियान विफल हो गया था. कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार द्वारा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यह सवाल लगातार किए जा रहा था कि "शाइनिंग फॉर हूम."

रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, एक्सिस माई इंडिया के प्रदीप गुप्ता, जिन्हें अतीत में कई एग्जिट पोल सही साबित करने के लिए सराहना मिली थी, इस सप्ताह की मतगणना की पराजय के बाद अपनी गलती बेहद शांति से स्वीकार ली. एक्सिस माई इंडिया का सर्वे "उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में समाज के पिछड़े वर्गों के मतदाताओं के बीच बदलाव को पकड़ने में विफल रहा."
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बता दें, एक्सिस माई इंडिया का एग्जिट पोल मतदान करके लौटे 582,000 वोटर्स से बात करके तैयार किया गया था. इस सर्वे को करने के लिए 900 लोगों को नियुक्त किया गया था. प्रदीप गुप्ता ने अपने पोल के फेल होने का एक कारण यह भी बताया कि कई मामलों में महिलाओं ने अपने परिवार के पुरुषों से उनकी ओर से जवाब देने को कहा. यहां पोल के आंकड़ों का अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि यह संभव है कि एक ही परिवार की महिलाएं और पुरुष अक्सर अलग-अलग पार्टियों को वोट दे सकते हैं.

आखिर में जो बचता है, वह है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मतदान केंद्रों के अंदर चुप्पी की शक्ति. यह चुप्पी भ्रामक दावों और जोरदार प्रचार से भरे शोरगुल, विवादास्पद अभियानों के लिए एक घात है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं और रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड, और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम कर चुके हैं. उनसे ट्विटर @madversity पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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