व्यक्तित्व, साहस ,प्रतिबद्धता, करुणा. 'फ्लाइंग सिख' मिल्खा सिंह शायद ही कभी ठहरे हों, लेकिन अगर उनकी विरासत को आधार देने के लिए चार स्तंभों की जरूरत होगी तो यह चार खूबियां उससे न्याय कर सकेंगी. भारत में आजादी के बाद के नायकों के बीच मिल्खा सिंह के व्यक्तित्व की इमारत अजेय शिखर के रूप में ऊंची खड़ी मिलेगी.
मिल्खा ने भारत की भावना को मूर्त रूप दिया और अपनी शारीरिक क्षमता के बल पर इसे ऊंचाइयों तक पहुंचाकर उसमें विश्वास की परवरिश की. इस महान व्यक्ति की विरासत स्पोर्ट्स के बाहर तक विस्तृत है. ब्रिटिश युग के खंडहर से फिर से खड़े होते भारत को बनाने में मिल्खा सिंह जितना उत्कृष्ट योगदान बहुत कम लोगों का होगा.
किसान परिवार में पैदा और पले-बढ़े मिल्खा की परवरिश मिट्टी के घर में हुई. गोविंदपुर से स्कूल जाने के लिए 10 किलोमीटर का रास्ता तय करना पड़ता था. विभाजन की त्रासदी युवा मिल्खा पर गहरा जख्म छोड़ गई ,जहां उसने हिंसक भीड़ को अपने मां-बाप तथा परिवार को मारते देखा. पिता ने जान बचाने के लिए भागने को कहा तो मिल्खा ट्रेन पकड़कर भारत चला आया.उसके शरीर में आग की लपटें और परिवार के दर्दनाक मौत से आंखों में खून के आंसू थे.
इस बेसहारा नौजवान की क्षमता को अनुभव करने के लिए राष्ट्र को पूरे एक दशक का इंतजार करना पड़ा. वह आगे इस युद्ध में उलझे राष्ट्र को अपनी उल्लेखनीय गति से खुश होने के कई मौका देने वाला था. उसने गौरव के साथ लंबे-लंबे कदम नापे. मिल्खा ने दुर्लभ ईमानदारी से बात की.
उस समय आर्मी इस नवयुवक के लिए एकदम सही जगह थी, जो उन अशांत दिनों के दौरान उन्मादी भीड़ के कारण अचानक अनाथ हो गया था. आर्मी ने उसे खुद के जीवन से बड़ी पहचान और जीने की वजह दी. मैच्योर वॉरियर्स की संगति ने उसके अंदर मौजूद आग को महत्वाकांक्षा में बदलने का काम किया. उसकी आत्मा को भड़काने वाला उग्र क्रोध समय के साथ कम हो गया. आर्मी का जीवन इसके लिए एकदम सही आउटलेट की तरह था.
लेकिन वहां जवानों को अपनी काबिलियत साबित करने के लिए 5 मील की क्रॉस-कंट्री दौड़ लगाना होता था. यह मिल्खा के लिए एक अकल्पनीय भविष्य से साक्षात्कार साबित हुआ. दौड़ ने उसके अंदरूनी जज्बे को बाहर लाने का काम किया और जल्द ही उसने अपने से ज्यादा स्वस्थ और शारीरिक क्षमता वाले पुरुषों को चुनौती देना शुरू किया. हार के जख्मों ने मिल्खा को हाथ-पांव और मांसपेशियों के दर्द से भी ज्यादा दर्द दिया. मिल्खा अपने जुनून और मेहनत के दम पर उन हारों को पीछे छोड़ता गया. आखिरकार वह बस दौड़ता नहीं था, मिल्खा उड़ता था और उसे पकड़ना टेढ़ी खीर थी.
विडंबना यह है कि मिल्खा को हम रोम ओलंपिक से जानते हैं. 45.73 सेकेंड, नेशनल रिकॉर्ड. नया-नया आजाद हुआ राष्ट्र भारत अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही मिल्खा के पंखों पर सवार होकर उम्मीद के साथ रोमांस करना सीख गया था. लेकिन यह रोम के हार की निराशा और टूटते दिलों की कहानी रही. यह एक ऐसी स्मृति है जिसे मिल्खा के साथ देश भी बार-बार याद करता है.
खुद वह इंसान उस दौड़ के बीच अपनी गति को कम करने के गंभीर चूक को कभी नहीं भूल सका.अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे दौड़ते मिल्खा ने सोचना शुरू कर दिया. एक क्षण का संदेह उसे उस पोडियम से दूर करने के लिए पर्याप्त था जिसे उसने लगभग पा लिया था और जिसके लिए उसने हर चीज त्याग दी थी. इस दौड़ ने उसे अमर प्रसिद्धि दी लेकिन इसके साथ-साथ उसे मिला स्थायी पछतावा.
रोम के अलावा मिल्खा सिंह अपने हर रेस में जीते. उन्होंने 1958 और 1962 के दो एशियन गेम्स में 4 गोल्ड मेडल जीता लेकिन कार्डिफ में कॉमनवेल्थ के दौरान जीत उनके लिए सबसे ज्यादा मायने रखती थी. क्योंकि यह जीत अंतरराष्ट्रीय जॉइंट एथलीटों के ऊपर थी. इन जीतों मे मिल्खा सिंह की सफलता के कारण उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया. शायद यह इस अवार्ड के लिए भी उतने ही सम्मान की बात थी जितना मिल्खा सिंह के लिए.
घर के करीब उन्होंने पाकिस्तान के अब्दुल खालिक के ऊपर दो बार जीत हासिल की, जिससे उन्होंने बहुत सम्मान अर्जित किया. लाहौर जाने और अब्दुल खालिक से कंपटीशन करने के लिए मिल्खा को समझाने के लिए खुद जवाहरलाल नेहरू को मेहनत करनी पड़ी. मिल्खा की जीत ने अयूब खान को यह टिप्पणी करने के लिए प्रेरित कर दिया कि “सिंह दौड़ा नहीं, वह उड़ा”. और यह टिप्पणी मिल्खा के साथ हमेशा के लिए जुड़ गई.
1995 में मिल्खा सिंह श्रीलंका में दौड़ने गये. यहीं पर उनकी मुलाकात भारतीय वॉलीबॉल टीम की पूर्व कप्तान निर्मल कौर से हुई. 7 साल बाद उन दोनों की शादी हो गई.उनकी तीन बेटियां और एक बेटा जीव मिल्खा सिंह था. बेटियों में से एक सोनिया सांवल्का ने मिल्खा सिंह की विस्तृत आत्मकथा 'द रेस ऑफ माय लाइफ' (2013) लिखने में मदद की. यह कहानी बाद में एक बहुचर्चित फिल्म के रूप में भी सामने आई, जिसको निभाने के लिए फरहान अख्तर ने खूब मेहनत की.
जीव मिल्खा एक प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय गोल्फ खिलाड़ी हैं. उनके पास यूरोपीय, जापान और एशियन टूर पर जीते गए 13 खिताब हैं. इसके अलावा 2008 PGA चैंपियनशिप में T9 भी है ,जो गोल्फ के चार मेजर्स में से एक है. उन्हें 1999 में अर्जुन पुरस्कार और 2007 में पद्मश्री से नवाजा जा चुका है.
मिल्खा अंत तक खेल जगत और भारत से पूरी तरह से जुड़े रहे. उन्होंने पंजाब सरकार के अंतर्गत डायरेक्टर ऑफ स्पोर्ट्स के रूप में काम करते हुए अनगिनत युवा एथलीटों का मार्गदर्शन किया. 1999 में मिल्खा ने हवलदार बिक्रम सिंह के 7 वर्षीय बेटे को गोद तब लिया जब बिक्रम सिंह टाइगर हिल की लड़ाई में शहीद हो गये.
2003 में स्थापित मिल्खा सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट उन युवा एथलीटों की मदद कर रहा है जिनके पास खेल के संसाधन उपलब्ध नहीं हैं. अपनी आत्मकथा के राइट्स को तो मिल्खा सिंह ने फिल्म निर्माता को ₹1 में बेचा लेकिन साथ ही यह सुनिश्चित किया कि फिल्म से हुई प्रॉफिट का एक हिस्सा फाउंडेशन के लिए भी जाये.
पिछले दो दशकों में उम्र दराज होने के बावजूद सक्रिय रहने से उन्होंने बहुत गर्व महसूस किया. मिल्खा सिंह ने भारतीय एथलीटों के साथ यात्रा करना और उनको प्रोत्साहित करना जारी रखा. वह गोल्फ कोर्स पर भी लगातार मौजूद रहे और अपने बेटे को दुनिया भर में यादगार गोल्फ खेलते देखने के लिए साथ-साथ घूमते रहे.
मिल्खा को एक ऐसे भारतीय एथलीट की उम्मीद थी जिसके पास पोडियम पर सबसे ऊपर भारत का झंडा लहराने के लिए आवश्यक चरित्र,अनुशासन और कड़ी मेहनत हो. फ्लाइंग सिख को इससे बड़ी श्रद्धांजलि की कल्पना नहीं की जा सकती और शायद इसे आने वाले वर्षो में पूरा भी किया जा सकता है. मिल्खा सिंह अपने पीछे एक समृद्ध विरासत और एक अधूरी ख्वाहिश छोड़ गये हैं.
(आनंद डाटला एक स्पोर्ट्सराइटर और सोशल वर्कर हैं. उन्हें दुनियाभर से साहस और दर्द की कहानियों को बयां करने का दो दशकों से ज्यादा का अनुभव है. आनंद क्रिकेट, बैडमिंटन, गोल्फ और टेनिस के कई इंटरनेशनल स्पोर्टिंग इवेंट्स की रिपोर्टिंग कर चुके हैं.)
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