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इमरान खान: पाकिस्तान में अस्थिरता भारत और दक्षिण एशिया के लिए अच्छी खबर नहीं

Pakistan: PM मोदी ऐसे नेता नहीं हैं जो वाजपेयी की तरह पाकिस्तान के साथ 'भरोसे का कदम' उठाने में यकीन रखते हैं.

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पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने पाकिस्तान (Pakistan) के पूर्व प्रधानमंत्री और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) के अध्यक्ष इमरान खान (Imran Khan) की गिरफ्तारी को गैरकानूनी घोषित कर दिया और अल-कादिर ट्रस्ट मामले में उनकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया है. आरोप है कि पाकिस्तान सरकार इमरान खान के खिलाफ अजीब और बदले की भावना से सियासी कार्रवाई करने में लगी हुई है.

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देश के हालिया घटनाक्रम बताते हैं कि इमरान खान को कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है. पाकिस्तान के गृह मंत्री (इंटीरियर मिनिस्टर ) राणा सनाउल्लाह ने एक इंटरव्यू में इमरान खान को "ब्लफ मास्टर" बताया. उन्होंने इमरान की गिरफ्तारी के बाद देश में भड़की हिंसा का आरोप भी पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान पर मढ़ा.

दूसरी ओर, इमरान खान ने ट्वीट में कहा,

"हमारे लोकतंत्र, हमारी न्यायपालिका, हमारे संविधान और कानून के शासन को मौजूदा फासीवादी सिस्टम ने पूरी तरह से मजाक बना दिया है".

उन्होंने लिखा कि ये सभी राजनीतिक अराजकता सिर्फ PTI को सरकार बनाने से "रोकने के लिए" फैलाई गई है.

पाकिस्तान जो उदाहरण लगातार पेश कर रहा है, वो बहुत परेशानीजनक है और विशेष रूप से भारत के लिए चिंता का विषय है. पाकिस्तान में जितनी अधिक राजनीतिक अस्थिरता जारी रहेगी, भारत और दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्रों के लिए उतनी ही अधिक चुनौतियां पैदा होंगी.

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चौराहे पर कूटनीति

पाकिस्तान के अशांत राजनीतिक इतिहास और राजनीति में पाकिस्तानी सेना के हस्तक्षेप ने हमेशा उसका पड़ोसी देशों और विशेष रूप से भारत के साथ रिश्ते में एक निर्णायक भूमिका निभाई है. देश में राजनीतिक अस्थिरता ने कई बार दोनों देशों के बीच शांति की यथास्थिति पर भी असर डाला है. हालांकि, शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी दोनों ही परमाणु संपन्न देशों की है.

यह भी समझना चाहिए कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज), जिसके ऐतिहासिक रूप से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ पहले अपेक्षाकृत बेहतर संबंध रहे हैं, उनका सामना अभी अटल बिहारी वाजपेयी से नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी से है.

नरेंद्र मोदी पाकिस्तान के साथ वाजपेयी की तरह 'भरोसे का कदम ' लेने वाले नेता नहीं हैं. वाजपेयी ने संदेह और अविश्वास को दूर करने के लिए एकतरफा राजनयिक हस्तक्षेप किया, चाहे वह लाहौर और दिल्ली के बीच बस सेवाओं को फिर से खोलना हो या पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ को कारगिल युद्ध के तुरंत बाद आगरा शिखर सम्मेलन के लिए न्योता देना हो. मोदी की राजनीति जरा हटके हैं. यह बयानबाजी का मिश्रण है और इसमें जोर सीमा पार ताकत दिखाने में है.

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अपने आर्थिक और सुरक्षा हितों के लिए, इमरान खान और शहबाज शरीफ सहित पाकिस्तान की अधिकांश सरकारों ने चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका (US) दोनों के साथ बेहतर संबंध बनाने के लिए कड़ी मेहनत की है. हालांकि चीन और अमेरिका दोनों का रणनीतिक सहयोगी भारत रहा है. भारत की विरासत के लिए अभूतपूर्व सम्मान रहा है, दोनों देश ही 'न्यू इंडिया' को लेकर सतर्क भी हैं.

रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत के रुख ने अमेरिका को थोड़ा पसोपेश में डाला है. उसने पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंध बनाने की कोशिश भी की. जबकि भारत-चीन सीमा गतिरोध जारी है.

रूस पर कड़ा रुख अपनाकर भारत अपनी सामरिक हालात को प्रभावित नहीं करना चाहता है क्योंकि देश की प्रमुख रक्षा आवश्यकताएं अभी भी रूस ही पूरा करता है. इस तरह, चीन और अमेरिका दोनों के लिए, पाकिस्तान एक स्वाभाविक सहयोगी है.

जहां अमेरिका अगले महीने पीएम मोदी की राजनयिक यात्रा की अगवानी करने वाला है, वहीं उसने भारत में धार्मिक स्वतंत्रता पर एक तीखी रिपोर्ट जारी की है. अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन ने हालांकि प्रेस को अपने संबोधन में भारत का जिक्र नहीं किया, लेकिन इसके बाद की ब्रीफिंग ने भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ लगातार हो रहे हमलों पर प्रकाश डाला. इसी समय, भारत में अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने पाकिस्तान में परेशान करने वाले राजनीतिक घटनाक्रमों से संबंधित भारतीय चिंताओं को साझा करते हुए कहा, "हम पाकिस्तान में स्थिरता चाहते हैं."

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डूरंड रेखा पर कबड्डी

धीरे-धीरे, हालांकि रणनीतिक रूप से, भारत और अन्य देशों ने अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को किसी न किसी रूप में स्वीकार कर लिया है. पाकिस्तान ने हाल ही में तालिबान सरकार से मुलाकात की और दोनों देशों के बीच व्यापार को सुचारू करने का संकल्प लिया.

भारत और तालिबान के बीच भी औपचारिक बातचीत हुई है, जिसमें तालिबान ने भारत को भरोसा दिया है कि वह अपनी धरती को भारत विरोधी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देगा.

अफगानिस्तान से अमेरिका की नाटकीय वापसी ने सरहदों पर चिंताएं बढ़ाई हैं. पाकिस्तान में शहबाज शरीफ की सरकार के माध्यम से अमेरिका ने तालिबान पर नजर रखने की कोशिश की. इसके अलावा, चार दशकों से अधिक समय तक अमेरिका की पाकिस्तान नीति प्रमुख रूप से अफगानिस्तान में उसके युद्ध हितों से प्रेरित थी. पाकिस्तान में उसके रणनीतिक सहयोगी हमेशा खुफिया और सेना रहे हैं, कभी भी कोई चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार नहीं.

इस बीच, रिपोर्ट्स से यह भी संकेत मिलता है कि तालिबान के विदेश मंत्री पाकिस्तानी प्रशासन में आला अफसरों के साथ बैठक कर रहे हैं. इसका अर्थ ये भी है कि दोनों पक्ष अपने संबंधों को सुधारने के लिए काम कर रहे हैं. ऐसे में ये दोनों प्रशासन भारत के खिलाफ नॉन स्टेट एक्टर्स को बढ़ावा दे सकते हैं. यही एक कारण है कि भारत राजनीतिक रूप से स्थिर पाकिस्तान चाहता है.

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भारतीय हित इस बात में निहित है कि पाकिस्तान और भारत दोनों ही अफगानिस्तानी तालिबान से निपटने का रास्ता खोजते हैं. क्योंकि तालिबान शासित अफगानिस्तान भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए खतरा है. अगर पाकिस्तान अस्थिर रहा तो डूरंड रेखा के भीतर और बाहर चरमपंथियों की हरकतें बढ़ सकती हैं.

खराब अर्थनीति और आतंक का खतरा

शायद आज का पाकिस्तान न केवल सियासी हिचकोले खाने वाला देश है, बल्कि डूबती अर्थव्यवस्था वाला मुल्क भी यह बन गया है. क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडी इन्वेस्टर सर्विस के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से बेलआउट के बिना देश के डिफॉल्ट होने का खतरा है.

इसलिए, जम्मू-कश्मीर के अनुभवी राजनेता चेतावनी दे रहे हैं. जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्रियों - फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती ने सावधान किया है कि राजनीतिक रूप से अस्थिर और आर्थिक रूप से कमजोर पाकिस्तान भारत के लिए खतरा है. और ठीक ही तो है, देश में सेना के पास जो अभूतपूर्व शक्तियां हैं, उन्हें देखते हुए वे कश्मीर क्षेत्र में अप्रिय घटनाओं को भड़काने के इरादे से सीमा पार आवाजाही की कोशिशों को अंजाम दे सकते हैं.

कश्मीर के लिए आतंकवादी समूहों और सेना का हाथ मिलाना आम बात है. दोनों ही इस मुद्दे पर एक हो जाते हैं. दूसरी ओर, भारतीय कश्मीरी थोड़े नाराज, निराश और अपमानित महसूस कर रहे हैं. खासकर कश्मीरी आबादी अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद अपमानित और ठगा हुआ महसूस करती है.

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पिछले कुछ महीनों में भारत-पाकिस्तान संबंधों में प्रगति

दोनों देशों के बीच जो सबसे महत्वपूर्ण बात हुई है, वह है नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम की घोषणा, जो अब एक वर्ष से अधिक समय से कायम है. भले ही इमरान खान की सरकार हो या शहबाज शरीफ की, उन्होंने हमेशा भारत के साथ बातचीत के लिए तैयार रहने की बात कही है, लेकिन साथ ही सभी वैश्विक मंच पर पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को उठाने से बाज नहीं आया.

तनाव के बावजूद, दोनों सरकारें भारतीय तीर्थयात्रियों के लिए पाकिस्तानी क्षेत्र में चार किलोमीटर वीजा-मुक्त मार्ग करतारपुर कॉरिडोर पर आगे बढ़ीं. साथ ही, पिछले साल, जब पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी, तब पूर्व पाकिस्तानी पीएम के सलाहकार ने भारत और पाकिस्तान के बीच व्यापार की अपील की थी. इसे भारत सरकार ने सराहा. भारत ने यह भी कहा कि वे पाकिस्तान सहित सभी देशों के साथ अच्छे व्यापारिक संबंध चाहते हैं.

भारत और विशेष रूप से मोदी सरकार ने कहा है कि पाकिस्तान के साथ "बोली और गोली" साथ-साथ नहीं चल सकती, जबकि पाकिस्तान का कहना है कि "कश्मीर" के बिना कोई बातचीत संभव नहीं है.

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हालांकि यह महत्वपूर्ण है कि भारत पाकिस्तान में राजनीतिक घटनाक्रमों पर कड़ी नजर रखे. उसे रणनीतिक रूप से अपने पड़ोसी का समर्थन करने के लिए भी खुला होना चाहिए. उसे अमेरिका या चीन के साथ खुला खेल करने के लिए छोड़ नहीं देना चाहिए. यह दोनों परमाणु-सशस्त्र राष्ट्रों की साझी जिम्मेदारी है कि उनके राजनयिक संबंधों को हमेशा सुरक्षा से हांका नहीं जाना चाहिए, बल्कि सांस्कृतिक कूटनीति का भी संकल्प लेना चाहिए और मुद्दों के समाधान पर जोर देना चाहिए.

भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों के नेतृत्व को समझदारी दिखानी चाहिए और शांति सुनिश्चित करने की दिशा में काम करना चाहिए. अपने विशाल रक्षा खर्चों को कम से कम सरहद पर जो खर्च हैं उसे चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए काम करना चाहिए.

(रोहिन कुमार एक लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं जो मानवतावादी संकटों के बारे में लिख रहे हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखकों के अपने हैं.द क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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