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प्रमोशन में आरक्षण और OBC का बंटवारा: दो दोधारी तलवारें

बीजेपी और एनडीए में एक अजीब सी खामोशी है.

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यह सब बहुत उत्साह के साथ शुरू हुआ. ऐसा लगा मानो सरकार का दिमाग बिल्कुल साफ है और वह अपने तय किए हुए रास्ते पर आगे बढ़ेगी. लेकिन जब निर्णय लेने का समय आया, तो सरकार अनिर्णय में फंस गई. स्थिति यह हो गई है कि एक्ट करने की बात तो दूर, सरकार इन पर बात करने से भी परहेज कर रही है.

पहला मामला प्रमोशन में आरक्षण का है. 2006 में नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से ही एससी-एसटी का प्रमोशन में रिजर्वेशन मामला फंसा हुआ था. 2006 के फैसले में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट ने प्रमोशन में रिजर्वेशन पर रोक नहीं लगाई, लेकिन तीन ऐसी शर्तें लगा दीं, जिनका व्यावहारिक असर यह हुआ कि रिजर्वेशन के आधार पर प्रमोशन होना बंद हो गया.

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ये शर्तें थीं- एक, एससी-एसटी का पिछड़ापन तथ्यों के आधार पर साबित किया जाए. दो, किसी सेवा में उनकी कम मौजूदगी के आंकड़े दिए जाएं. तीन, यह सुनिश्चित किया जाए कि ऐसे प्रमोशन का प्रशासन पर बुरा असर न पड़े. जैसा कि कांग्रेस को खूब आता है, इसके बाद के आठ साल वह बिना कोई फैसला लिए काट ले गई. संसद में उसने इस फैसले को पलटने का दिखावा करने के लिए एक बिल पेश किया और समाजवादी पार्टी के विरोध के बहाने से उसे टाल दिया. 2014 में केंद्र में नई सरकार आ गई.

बहरहाल, नागराज जजमेंट को चैलेंज करते हुए दर्जनों याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में आईं. एनडीए सरकार ने इस मामले में आरक्षण के पक्ष में दलीलें दीं और एटॉर्नी जनरल ने कोर्ट में जोरदार तर्क रखे. इससे ऐसा लगा कि सरकार प्रमोशन में आरक्षण का लागू करके ही मानेगी.

लेकिन अब जबकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है और सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों से कह दिया है कि वे प्रमोशन में आरक्षण दे सकती हैं, तो बीजेपी और एनडीए में एक अजीब सी खामोशी है. सरकार ने इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं की है. बीजेपी भी कुछ बोल नहीं रही है. सरकार में जो बोल रहे हैं, वे रामविलास पासवान और रामदास अठावले हैं, जो इस मामले में सरकार का पक्ष रख रहे हैं या अपनी पार्टी का इसे समझ पाना मुश्किल है. लगता है कि वे अपनी पार्टी की बात कर रहे हैं.

रामविलास पासवान ने कहा है कि एससी-एसटी में क्रीमी लेयर नहीं लग सकता, वहीं आठवले ने कहा है कि इस मामले को राज्य सरकारों के हवाले छोड़ देना सही नहीं है.

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बहरहाल, अगर किसी को लग सकता था कि अगर कोर्ट ने कोई पाबंदी नहीं लगाई तो एनडीए और बीजेपी की सरकारें रिजर्वेशन के आधार पर प्रमोशन देना शुरू कर देंगी. ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है. इसके अलावा इस जजमेंट ने एससी-एसटी में क्रीमी लेयर को लेकर एक नई बहस छेड़ दी गई है. इस वजह से मामला सरकार के लिए और पेचीदा हो गया है.

क्रीमी लेयर अब तक सिर्फ ओबीसी के लिए लागू है. सुप्रीम कोर्ट उसी आधार पर इसे एससी-एसटी के लिए लागू किए जाने के पक्ष में है. लेकिन उसने इसके लिए आदेश देने की जगह, राय देने का रास्ता चुना.

यहां BJP का पहला पेच फंसा है!

बीजेपी और एनडीए में एक अजीब सी खामोशी है.

बीजेपी यह जरूर चाहती है कि एससी-एसटी पूरी तरह नहीं भी तो उसका एक बड़ा हिस्सा उसके खेमे में आ जाए. एससी-एसटी एक्ट को सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमजोर किए जाने के बाद जिस तरह एनडीए सरकार ने संसद में कानून पारित करके एक्ट के पुराने स्वरूप को बनाए रखा, वह इसी सोच के तहत था. लेकिन इसके बाद देश के कई राज्यों में सवर्णों की नाराजगी नजर आने लगी और जब सवर्ण संगठनों ने भारत बंद का आह्वान किया, तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में इसका असर भी नजर आया.

इससे सरकार के सामने दुविधा खड़ी हो गई है. सरकार एससी-एसटी को अपने पाले में लाना चाहती है, लेकिन इसके लिए वह अपने कोर सवर्ण वोटर को नाराज करना कतई नहीं चाहेगी.

एससी-एसटी एक्ट के मामले में ठीक यही हो गया है. ये नाराज वोटर क्या इतने नाराज हैं कि बीजेपी का साथ छोड़ दें? शायद ऐसा न हो. लेकिन कोर वोटर अगर पूरी तरह उत्साह में न हो तो बीजेपी के लिए ये भी कोई सुखद स्थिति नहीं होगी.

एससी-एसटी वोट बीजेपी के लिए आसमान में उड़ती चिड़िया है, जो हाथ आएगी या नहीं, किसी को नहीं पता, जबकि सवर्ण वोटर बीजेपी के लिए हाथ की चिड़िया है. बीजेपी किसी अनिश्चित की उम्मीद में निश्चित को गंवाना नहीं चाहेगी.

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शायद यही वजह है कि बीजेपी अब एससी-एसटी को लेकर मध्य मार्ग पर चल रही है. इसका मतलब यह हो सकता है कि अपने बाकी बचे कार्यकाल में एनडीए सरकार एससी-एसटी के एक भी कर्मचारी या अफसर का प्रमोशन आरक्षण के आधार पर न करे.

हालांकि सरकार ने ये दायित्व सरकारों पर छोड़ दिया है, लेकिन प्रशासनिक या कोई और कारण बताकर मामले को कुछेक महीने के लिए टाला ही जा सकता है. अगर इस फैसले को अदालत में किसी ने चुनौती दे दी, तो सरकार का काम और आसान हो जाएगा. क्रीमी लेयर पर भी सरकार शायद ही एक्ट करे. यहां भी वह कुछ न करने की रणनीति अपनाएगी.

OBC के बंटवारे का क्या होगा?

पिछले साल गांधी जयंती के दिन यानी 2 अक्टूबर, 2017 को केंद्र सरकार ने ओबीसी के विभाजन के लिए बहुत धूमधाम से एक आयोग बनाने की घोषणा की. इस कमेटी की चेयरमैन बनाई गई रिटायर्ड जज जी. रोहिणी. इस कमीशन को तीन काम सौंपे गए:

बीजेपी और एनडीए में एक अजीब सी खामोशी है.
  1. ओबीसी के अंदर विभिन्न जातियों और समुदायों को आरक्षण का लाभ कितने असमान तरीके से मिला, इसकी जांच करना.
  2. ओबीसी के बंटवारे के लिए तरीका, आधार और मानदंड तय करना
  3. ओबीसी को उपवर्गों में बांटने के लिए उनकी पहचान करना.

यह आयोग संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत गठित किया गया. यह बात महत्वपूर्ण है, क्योंकि मंडल कमीशन का गठन भी इसी अनुच्छेद के तहत हुआ था. इससे पता चलता है कि सरकार ओबीसी के बंटवारे को लेकर कितनी गंभीर थी.

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रिपोर्ट या बीरबल की खिचड़ी: एक्सटेंशन पर एक्सटेंशन

इस कमीशन को अपनी रिपोर्ट देने के लिए 12 हफ्ते का समय दिया गया. लेकिन 2 अक्टूबर, 2017 के बाद लगभग 12 महीने बीत रहे हैं और रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट कहीं नजर नहीं आ रही है. अब चर्चा है कि कमीशन ने अभी तक अपनी अंतरिम रिपोर्ट लिखी है और सरकार ने उसे कह दिया है कि ये अंतरिम रिपोर्ट भी अभी पेश न की जाए.

जुलाई में इस आयोग का कार्यकाल तीसरी बार बढ़ाकर 20 नवंबर, 2018 तक कर दिया गया है. लेकिन किसी को भी इस रिपोर्ट को लेकर जल्दबाजी नहीं है. यहां तक की इसे लेकर कोई बयानबाजी भी करता नहीं दिखता.

सरकार की दूसरी उलझन

यहां भी सरकार उलझन में फंस गई है. बीजेपी के लिए ओबीसी का वोट बहुत महत्वपूर्ण है. मंडल कमीशन के अनुसार देश में उनकी आबादी 52 फीसदी है. उनकी आबादी इससे कम या ज्यादा हो सकती है, क्योंकि यह 1931 की जनगणना के आधार पर लगाया गया अनुमान है. उसके बाद से हुई किसी जनगणना में एससी-एसटी के अलावा बाकी सामाजिक समूहों के आंकड़े जुटाए ही नहीं गए हैं.

2011 में जो सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना शुरू हुई, उसका काम 2016 में पूरा हो चुका है और इस पर 4,893 करोड़ रुपए खर्च भी हो चुके हैं, लेकिन इसके आंकड़े नहीं आए हैं और न ऐसी कोई उम्मीद है. बहरहाल ओबीसी की संख्या इतनी तो है कि उनकी वोटिंग से राजनीति पर फर्क पड़ जाए.

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ओबीसी के बंटवारे को लेकर सरकार के अंदर दो तरह की सोच है. एक पक्ष का मानना है कि ओबीसी के अंदर से प्रभावशाली जातियों को अलग करके उनका आरक्षण सीमित कर देने से अति पिछड़ी जातियां बीजेपी के खेमे में आ जाएंगे. ऐसा हो भी सकता है. लेकिन यह फिर से आसमान में उड़ती चिड़िया है. ऐसा होगा कि नहीं कोई नहीं जानता. लेकिन अगर यह बंटवारा किया गया तो इस बात की गारंटी है कि प्रभावशाली ओबीसी जातियां बीजेपी के खिलाफ हो जाएंगी. इन जातियों का तर्क है कि जब जनगणना में जातियों के आंकड़े जुटाए ही नहीं गए हैं तो किसी जाति को आगे बढ़ा हुआ और किसी को पीछे छूट गया कैसे बताया जाएगा.

साथ ही जिन जातियों को प्रभावशाली ओबीसी बताया जाएगा, उन्हें कितना कोटा दिया जाएगा? ऐसा लगता नहीं है कि ओबीसी के बंटवारे को आंकड़ों का आधार प्रदान करने के लिए एनडीए सरकार सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना, 2011 के आंकड़े जारी करेगी, क्योंकि इससे देश की राजनीति में बड़ा तूफान आ सकता है और जाति का सवाल बाकी सवालों पर हावी हो जा सकता है. ये बीजेपी की कमजोर नब्ज है. बिहार के विधानसभा चुनाव में बीजेपी इसका झटका झेल की है.

इसलिए बीजेपी के लिए इन दो मुद्दों को न उगलते बन रहा है, न निगलते.

(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं.)

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