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संडे व्यू : मोदी सरकार में गरीब दरकिनार, क्या अमेरिकी हित में दुनिया का हित?

Sunday Articles: पढ़ें आज पी चिदंबरम, एके भट्टाचार्य, सुनन्दा के दत्ता रे, तवलीन सिंह, अपार गुप्ता के विचारों का सार

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मोदी सरकार में गरीब दरकिनार

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 से पहले 2014-15 में भी इसका चौथा संस्करण आया था और चूंकि दोनों सर्वे मोदी सरकार में ही हुए हैं इसलिए इस सरकार की नीतियों की बानगी भी पेश करते हैं.

महिलाओं की बड़ी आबादी खून की कमी का शिकार है और बड़ी संख्या में बच्चे कम वजन वाले हैं, बौने हैं या टीबी से ग्रस्त हैं. ऐसा पर्याप्त पोषण की कमी की वजह से है. खाद्य की कमी गरीबी का निर्णायक संकेतक होता है. ऐसे में यह साफ है कि गरीब और कम भाग्यशाली लोगों को मौजूदा सरकार ने भुला दिया है.

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चिदंबरम लिखते हैं कि अच्छी खबर यह है कि प्रजनन दर 2 बच्चों पर आ चुकी है. यह प्रतिस्थापन दर 2.1 से कम है. यह बात भी अच्छी है कि 88.6 फीसदी बच्चे किसी न किसी चिकित्सीय देखरेख में जन्मे. पहले यह आंकड़ा 79.9 फीसदी था.

अब बेटियों के जन्म पर खुशियां मनायी जाने लगी है. लिंग अनुपात 991 से बढ़कर 1020 तक पहुंच गया है. बिजली पा रहे परिवार भी 2015-16 के मुकाबले 8.8 फीसदी बढ़कर 96.8 फीसदी हो चुके हैं. 23.3 फीसदी महिलाओं की शादियां अब भी 18 साल की उम्र से पहले हो रही हैं. यह खबर चिंताजनक है कि आधी आबादी स्कूली शिक्षा के दस साल भी पूरे नहीं कर पा रही है. इनमें महिलाएं 59 फीसदी और पुरुष 49.8 फीसदी हैं.

भारतीय आबादी में पंद्रह साल से कम के बच्चे 26 फीसदी हैं और नौजवान आबादी होने के बावजूद बुजुर्ग आबादी बढ़ रही है. खून की कमी से ग्रस्त आबादी में महिलाएं आगे हैं. 15 से 29 साल की 59.1 फीसदी महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं. 6 से 23 माह के 11.3 फीसदी बच्चों को ही पर्याप्त खुराक मिल पा रहा है. यह और भी ख़तरनाक बात है.

रेलवे का सालाना आकलन हो

एके भट्टाचार्य ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि 2017 में जब सालाना रेल बजट पेश नहीं करने का निर्णय हुआ था तब इसे क्रांतिकारी कदम के रूप में पेश किया गया था. 92 साल पुरानी व्यवस्था खत्म हुई थी.

पांच साल बाद इसकी समीक्षा की जरूरत है कि हमने क्या खोया, क्या पाया. अब केंद्रीय वित्त मंत्री के पास रेलवे परियोजनाओं का विस्तृत ब्योरा देने का समय नहीं है. 2022-23 के आम बजट में रेलवे से संबंधित सिर्फ पांच पैराग्राफ थे जबकि बजट में कुल 157 पैराग्राफ थे. रेलवे आज देश में कुल माल का एक तिहाई ढोती है. कुल केंद्रीय कर्मचारियों का एक तिहाई भी रेलवे वहन करती है. बीते पांच साल में भारतीय रेल की स्थिति पर सार्वजनिक चर्चा और इस पर ध्यान दिया जाना लगभग बंद हो गया है.

एके भट्टाचार्य ने लिखा है कि 2016-17 में भारतीय रेल का परिचालन अनुपात 96.5 था. इसका अर्थ हुआ कि 100 रुपये कमाने के लिए 96.5 रुपये खर्च करना. जब मोदी सरकार बनी थी तब परिचालन अनुपात 91 था. कोविड महामारी से पहले परिचालन अनुपात 114 हो गया था. 2020-21 में तो यह 131 हो गया. बीते साल सुधार के बावजूद यह 99 तक पहुंचा. 2022-23 में इसके 97 प्रतिशत तक रहने के आसार हैं.
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इसी तरह भारतीय रेल की पेंशन लागत बीते पांच वर्ष में एक तिहाई बढ़ी है. बढ़ता पेंशन बिल परिचालन अनुपात पर बड़ा बोझ है. मालवहन से आने वाले राजस्व में सुधार हुआ है. 2021-22 में इससे आने वाला राजस्व कोविड काल से पहले के वर्ष 2018-19 की तुलना में 14 फीसदी से अधिक था. वहीं इस दौरान यात्री राजस्व में 13 फीसदी की कमी रही.

यात्री राजस्व क्यों कम हुआ? ऐसे कई एक सवाल हैं जिन पर चर्चा होनी चाहिए. अच्छा यह होगा कि वित्तीय प्रदर्शन पर रेलवे सालाना आकलन संसद के समक्ष पेश करे जिसमें मध्यम अवधि के पूर्वानुमान शामिल हों.

जो अमेरिका के लिए ठीक वही दुनिया के लिए!

सुनन्दा के दत्ता रे ने टेलीग्राफ में लिखा है कि अमेरिका हमेशा से ही अपनी नजरों से दुनिया को देखने की कोशिश करता रहा है. यूक्रेन पर रूसी आक्रमण इस बात की याद दिलाता है कि कभी अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर के पूर्व सचिव रहे चार्ल्स विल्सन जो जनरल मोटर्स के प्रेजिडेंट भी थे, ने कहा था, “जो जीएम के लिए अच्छा है, वही अमेरिका के लिए.”

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इसी तर्ज पर वाशिंगटन ने यही संदेश देने की कोशिश की है कि जो अमेरिका के लिए अच्छा है वही दुनिया के लिए. यही सही है कि रूस ने यूक्रेन पर ऐसा युद्ध थोपा है जिसमें बड़ी तादाद में लोग मारे गये हैं और 1.2 करोड़ यूक्रेनियों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा है, लेकिन दूसरे युद्ध भी हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है.

सुनन्दा के दत्ता रे सवाल पूछते हुए दुनिया का ध्यान खींचते हैं कि म्यांमार में क्या निर्दोष जिन्दगियां तबाह नहीं हो रही हैं? कब्जाए गये फिलीस्तीन और युद्धरत यमन में क्या हालात हैं?

रूस और तुर्की समर्थिक सीरिया और लीबिया युद्ध का मैदान बने हुए हैं. अफगानिस्तान बारूद के ढेर पर है. इथियोपिया में अकाल पीड़ित करोड़ों लोग गृहयुद्ध में फंसे हैं. इस्लामवादियों को लगता है कि पश्चिम अफ्रीका में भी अत्याचार हो रहे हैं. यह सूची काफी लंबी है लेकिन इस पर चर्चा नहीं होती क्योंकि इनमें अमेरिका की दिलचस्पी नहीं है.
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भारतीय गरीब मीडिया के पास इतना धन नहीं है कि वह इन देशों में घट रही घटनाओं को दिखा सके. रूस-यूक्रेन युद्ध में रूस का पक्ष सामने नहीं रखा जा सका है. कई रणनीतिकार सोचते हैं कि रूस ने क्रीमिया या मोल्दोवा मामलों में ऐसा ही रुख क्यों नहीं दिखलाया? नाटो के सदस्य 1949 में 12 थे जो बढ़कर आज 30 हो चुके हैं. दो देश कतार में हैं.

शीतयुद्ध के बाद 14 देश नाटो के सदस्य बने हैं. नाटो के विस्तार की मंशा पर सवाल उठाते हुए लेखक याद दिलाते हैं कि वार्साय संधि से जुड़ने के पहले सोवियत संघ ने 1954 में नाटो की सदस्यता मांगी थी मगर अमेरिका ने यह कहते हुए मना कर दिया था कि सुधरने को तैयार चोर पुलिस में भर्ती होने की सोच रहा है.

राजद्रोह स्थगित हुआ है खत्म नहीं

अपार गुप्ता ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि राजद्रोह कानून को स्थगित किए जाने पर बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है. इसे पूरी तरह से खत्म किया जाना चाहिए. फिलहाल यह राहत मात्र है उन लोगों के लिए जो राजद्रोह कानून के तहत जेलों में बंद हैं या फिर जिन पर ऐसा खतरा मंडरा रहा है.

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आर्टिकिल 14 की रिपोर्ट के हवाले से वे लिखते हैं कि 2014 के बाद से 816 मामलों में 11 हजार के करीब लोग राजद्रोह कानून की जद में हैं. 78 करोड़ से ज्यादा लोग इंटरनेट से जुड़े हैं और उनकी आजादी पर भी पहरा लगा रहता है. इस पर विधायिका खामोश रहती है. लॉ कमीशन ऑफ इंडिया ने अगस्त 2018 में ध्यान दिलाया था कि वैश्विक रुख राजद्रोह के खिलाफ और अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में है.

अपार गुप्ता लिखते हैं कि यूएपीए समूह ही नहीं व्यक्तिगत तौर पर भी आतंकवादी घोषित करने की इजाजत देता है. क्रमिनल प्रोसिजर आइडेंटिफिकेशन एक्ट 2022 ने पुलिस की ताकत का विस्तार किया है और वह किसी की भी निगरानी कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मद्देनजर यह अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है. हमारे प्रधानमंत्री को लगता है कि जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो ऐसे में इस औपनिवेशिक कानून को खत्म कर दिया जाना चाहिए. इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को भी देखने की जरूरत है.

क्रिमिनल प्रोसिजर आइडेंटिफिकेशन एक्ट 2022 के रूप में आम नागरिकों के लिए और मुश्किल कानून सामने है. ऐसे में राजद्रोह के अमल पर स्थगन के ताजा आदेश का स्वागत करने से पहले निश्चित रूप से हमें सतर्क रहना होगा. हरेक भारतीय नागरिक के लोकतांत्रिक अधिकार की सुरक्षा के बारे में चिंता करना अधिक जरूरी हो गया लगता है.

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बच्चे कुपोषित रहें तो इमारतें किस काम की?

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मई महीने की 26 तारीख को नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के 8 साल पूरे हो जाएंगे. इस दौरान उन्होंने साबित किया है कि उन्हें बड़ी-बड़ी इमारतों का शौक है. पुरानी संसद की जगह नयी संसद खड़ी हो रही है. विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा, विश्व का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान जैसी उपलब्धियों के बीच छोटी बातों पर भी चर्चा जरूरी है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट आयी है. नवासी फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. 2015-16 में 90.4 फीसदी बच्चे कुपोषित थे. मोदी के दौर में इतना-सा परिवर्तन ही आया है. स्वच्छ भारत अभियान की विश्वव्यापी चर्चा के बावजूद जब राजधानी दिल्ली में कूड़े के ढेर पर आग लग जाती है तो वह इसलिए बुझायी नहीं जा पाती क्योंकि इसकी ऊंचाई 17 मंजिल इमारत की ऊंचाई से भी ज्यादा है. प्रदूषित दिल्ली और भी बदबूदार हो जाती है.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि भारतीय गांव सड़ते कूड़े के ढेर बने हुए हैं. भारत माता के चेहरे पर जितनी गंदगी है उतनी किसी दूसरे देश में देखने को नहीं मिलती. यह जानते हुए भी कि 90 फीसदी बीमारियों की जड़ ये गंदगी ही है हम क्यों नहीं दूसरे देशों से कचरे का प्रबंधन सीखते हैं.

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ईज ऑफ डुइंग बिजनेस बेहतर होने के दावों के बीच जीएसटी के कागजात ठीक कराने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ रही है. कुछ बड़े उद्योगपति जो मोदी राज में कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं वे अपनी पहुंच के बल पर ऐसा कर पा रहे हैं न कि बिजनेस करना आसान हो गया है.

पूजा सिंघल का उदाहरण सामने है जिसके चार्टर्ड अकाउंट के घर से सत्रह करोड़ रुपये से ज्यादा नकद मिले हैं. न्यू इंडिया में हर दूसरे-तीसरे दिन हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों को लेकर उलझना पड़ता है. ऐसे में हमें फुर्सत नहीं है कि देश के बेहाल कुपोषित बच्चों की तरफ ध्यान दे सकें. रुपया कमजोर हो, महंगाई बढ़ती जाए- किसे फिक्र है. मंदिर चाहे जितने बन जाएं, यह साबित हो जाए कि कुतुब मीनार और ताजमहल हिन्दू इमारते हैं मुस्लिम नहीं- हासिल क्या होगा अगर हमारे बच्चे कुपोषण से मरते रहें?

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