गलत फैसला है किसानों की कर्जा माफी
टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया ने यूपी में बीजेपी सरकार की ओर से किसानों का कर्जा माफी करने के फैसले पर सवाल उठाया है. स्वामी लिखते हैं- मोदी की छवि आर्थिक विकास को तवज्जो देने वाले शख्स की है लेकिन वे लोक-लुभावन कदम उठा रहे हैं. सरकार के पास वित्तीय संसाधनों की कमी है और इस तरह के कदम उठा कर वह विकास की स्कीमों का ही रास्ता बंद कर रहे हैं, जिसकी यूपी को बेहद जरूरत है. आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस की इसी तरह की लोक-लुभावन नीतियों के लिए आलोचना के बाद मोदी उसकी नकल में लग गए हैं.
स्वामीनाथन लिखते हैं- किसानों का कर्जा माफी यूपी पर कर्जे का बड़ा बोझ लाद देगा. इसे चुकाने में उसके वित्तीय संसाधन खत्म हो जाएंगे और इसका उसकी इकोनॉमी पर बेहद बुरा असर पड़ेगा. स्लॉटर हाउस बंद करने और राजमार्ग के 500 मीटर के दायरे में शराब की बिक्री के अदालत के आदेश से पहले ही राजस्व के स्त्रोतों पर बेहद बुरा असर हुआ है.
ग्रामीण इलाके की समस्या को खत्म करना जरूरी है लेकिन किसानों का कर्जा माफी इसका सबसे खराब तरीका है. गांवों की अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए हरेक परिवार को एकमुश्त रकम देनी चाहिए. सिर्फ उन्हें ही फायदा क्यों मिले, जिन्होंने कर्जा लिया है. सिर्फ उन्हें ही लाभ क्यों जिन्होंने पैसे नहीं चुकाए हैं. जिनके पास जमीन है उन्हें ही फायदा क्यों. भूमिहीनों को क्यों नहीं. इस तरह की कर्जा माफी किसानों को जानबूझ कर कर्जा न चुकाने को प्रेरित करती है.
गांधी को चंपारण ले जाने वाला शख्स
दैनिक अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने गांधी की चंपारण यात्रा के 100 साल पूरे होने पर लिखा है. गुहा लिखते हैं- इसी महीने मोहनदास करमचंद गांधी की बिहार की चंपारण यात्रा के सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं, जहां उन्होंने गर्मी के मौसम में नील की खेती करने वाले किसानों की लंबी लड़ाई लड़ी थी. भारतीय जमीन पर गांधी का यह पहला बड़ा आंदोलन था. लेकिन उन्हें वहां ले जाने वाला शख्स कौन था.
यह शख्स थे- रामचंद्र शुक्ल. आखिर राजकुमार क्यों चाहते थे गांधी ही वहां आएं. शुक्ल कभी-कभार कानपुर से निकलने वाले हिंदी अखबार प्रताप में आलेख लिखते थे. इसके संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने उन्हें दक्षिण अफ्रीका में गांधी द्वारा बंधुआ मजदूरों के अधिकारों के लिए किए गए काम के बारे में बताया था. और जैसा कि पता है कि शुक्ल को उस वक्त कांग्रेस के निर्विवाद नेता बाल गंगाधर तिलक से कोई तवज्जो नहीं मिली. तिलक भारत की स्वतंत्रता की मांग को लेकर पूरी तरह व्यस्त थे और नहीं चाहते थे कि किसी स्थानीय मुद्दे के कारण उनका ध्यान भटके.
दूसरी ओर इस बात की कहीं अधिक संभावना थी कांग्रेस की दूसरी पंक्ति के नेता गांधी इस दूरस्थ ग्रामीण जिले के प्रवास के लिए समय निकालें. आखिरकार गांधी 1917 के अप्रैल के दूसरे हफ्ते में चंपारण पहुंचे. सही मायने में शुक्ल अपनी मातृभूमि में गांधी के पहले सफल संघर्ष के सूत्रधार थे.
शराबबंदी – यह कोर्ट का अधिकार नहीं
करण थापर ने नेशनल और स्टेट हाईवे के 500 मीटर के दायरे में शराब बिक्री पर प्रतिबंध के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाए हैं . हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने कॉलम में उन्होंने लिखा है- सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कई स्तरों पर गलत है. कई मायनों में तो यह बेहद खराब फैसला है.
पहली बात तो क्या अल्कोहल का उपयोग और बिक्री पर जजों को फैसला लेने का अधिकार है ? या फिर यह काम कार्यपालिका का है. सुप्रीम कोर्ट के वकील सी आर्यम सुंदरम बिल्कुल सही सवाल उठा रहे हैं. वह कहते हैं- इस देश में कैसे 30 विद्वान लेकिन गैर निर्वाचित लोग कानून बनाने के अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं.
क्या शराबबंदी के मामले में कोर्ट अपने दायरे से बाहर नहीं गया है. हालांकि संविधान का अनुच्छेद 142 यह कहता है कि कोर्ट के सामने रखे जाने वाले हर मामले का उसे फैसला करना है. लेकिन क्या आपको कहां शराब पीनी है, उसका फैसला भी कोर्ट के दायरे में आता है.
एमनेस्टी इंडिया के हेड आकार पटेल बिल्कुल सही कहते हैं. वह कहते हैं कि राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके नागरिक जिम्मेदार तरीके से शराब पियें. गैर जिम्मेदाराना तरीके से व्यवहार करने पर उसे सजा देने का अधिकार है. क्या सुप्रीम कोर्ट ने मान लिया है देश के नागरिक गैर जिम्मेदार हैं. क्या जजों को इस आधार पर फैसला देने का अधिकार है. जजों का कहना है कि सुरक्षा सबसे ज्यादा जरूरी है. ऐसे में उन्होंने पूर्वोत्तर के राज्यों को छूट क्यों दे रखी है. क्या सेफ्टी का मामला वहां लागू नहीं होता.
यह सच है कि सुप्रीम कोर्ट में शराब पीकर गाड़ी चलाने का मामला रखा गया था. लेकिन नेशनल हाईवे के 500 मीटर के दायरे में शराब बिक्री पर प्रतिबंध इसका हल नहीं है. लोग इससे 10 फीट दूर जाकर भी शराब पी सकते हैं और खराब तरीके से गाड़ी चला सकते हैं. इस समस्या का सही हल सही तरीके से कार्रवाई करने में है. शराब पीकर लापरवाही से गाड़ी चलाने के खिलाफ कठोर कार्रवाई है. अचानक एकतरफा फैसला लेना नहीं.
साफ कहिये, ये हत्यारे हैं
हिन्दुस्तान टाइम्स में बरखा दत्त ने कथित गोरक्षकों की खासी खिंचाई की है. उन्होंने लिखा है कि अब साफ-साफ बात करिये. गोरक्षा के नाम पर जो शब्दाडंबर चल रहा है उसे खत्म कीजिये. यह सीधे-सीधे हत्या है न कि मारपीट और धक्का-मुक्की और न ही गोरक्षा. और प्लीज, उन्हें गोरक्षक तो मत ही कहिये. वे सीधे-सीधे हत्यारे हैं. जिन लोगों ने अलवर हाईवे पर पहलू खां की गाड़ी से निकालकर पीट-पीट कर हत्या कर दी. उन्हें किस हिसाब से रक्षक कहलाने का हक है.
ये ठग हैं जो धार्मिकता में अंधे हो चुके हैं. वे एक ऐसे माहौल में दुस्साहसी हो चुके हैं, जहां इस तरह की हत्या करने वालों को सही ठहराया जा रहा है. इस तरह के बेरहमी से मार दिए गए लोगों के उलट उन लोगों साथ खड़े होने की प्रवृति बढ़ रही है, जो ऐसे खुलेआम अत्याचार कर रहे हैं. पहलू खां ने कथित गोरक्षकों को रसीद भी दिखाई थी कि वह गायों को मेले से खरीद कर ला रहे हैं. लेकिन क्या अगर वह पशु तस्कर भी होते तो क्या लोगों को उन्हें इस तरह सड़क पर मार डाला जाना चाहिए था. क्या इस देश में न्याय अब सड़कों पर होगा.
बरखा लिखती हैं – जल्द ही यह बहस खत्म हो जाएगी. अखबारों की सुर्खियों से हट जाएगी. हम सब अपने कामों में व्यस्त हो जाएंगे. जब तक कि इस तरह की कोई दूसरा हत्या का मामला हमारे सामने न आ जाए. लेकिन तब तक इस देश में काउ विजिलेंट कावर्ड (कायर) हंगामा करते रहेंगे. यह अब न्यू नॉर्मल हो चुका है.
भटकाने वाले मुद्दों से दूर रहे मोदी सरकार
दैनिक जनसत्ता में पी चिदंबरम ने मोदी सरकार की प्राथमिकताओं और गिरते आर्थिक हालातों पर चर्चा की है. वह लिखते हैं- अब जबकि राजग सरकार तीन साल पूरे करने वाली है, हमारे पास महत्त्वपूर्ण रिपोर्टें/आधिकारिक आंकड़े हैं. वे हैं: रिजर्व बैंक के आंकड़े; औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) के आंकड़े; राष्ट्रीय आय और व्यय की बाबत दूसरा पूर्वानुमान; तीन तिमाही रोजगार-रिपोर्टें. कहीं भी उम्मीद नहीं जगती.
अर्थव्यवस्था की दशा बाहरी कारकों, पिछली सरकारों से मिली विरासत, ढांचागत समस्याओं, नीतिगत निर्णयों, नियामक क्षमता, संस्थागत शक्तियों और कमजोरियों तथा प्रशासनिक क्षमता आदि कई बातों पर निर्भर करती है. हालांकि मौजूदा सरकार ही मुख्यत: जवाबदेह होती है, पर इस स्तंभ का मकसद दोष मढ़ना नहीं, बल्कि यह सवाल उठाना है कि मौजूदा सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं?
जवाब हमें घूर रहा है. कोई भी अखबार खोलिए या कोई भी समाचार चैनल देखिए. जो सुर्खियां हमारे सामने चिल्लाती हुई होंगी वे हैं- अवैध बूचड़खाने, कथित गऊरक्षकों के उत्पात, शराब की दुकानों की बंदी, एंटी रोमियो दस्ते, अफ्रीकी अश्वेतों पर नस्ली हमले, विश्वविद्यालयी परिसरों में टकराव, आधार कार्ड की अनिवार्यता, तीन तलाक, अयोध्या में राम मंदिर बनाने की बातें, दो हजार के जाली नोट, आदि. शायद ही किसी को निवेश, ऋण-वृद्धि या रोजगार का जिक्र सुनने को मिले.हमें अपनी प्राथमिकताएं दुरुस्त करने की जरूरत है. हमें बातें कम करने तथा निवेश, ऋण और रोजगार पर ज्यादा काम करने की जरूरत है. यह भी जरूरी है कि हम उन मुद्दों पर शोर मचाना कम करें जिनका अर्थव्यवस्था की सेहत से कोई वास्ता नहीं है.
गोरक्षा के नाम पर
दैनिक जनसत्ता में तवलीन सिंह ने राजस्थान में कथित गोरक्षकों की ओर से एक दूधिये किसान पहलू खां की हत्या पर टिप्पणी की है. वह लिखती हैं- हत्यारे मामूली कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी नहीं थे देखने में. जींस पहने थे और ऐसी टी-शर्ट, जिनको देख कर लगा कि फैशन में रुचि है उन नौजवानों की. उनके लिबास से ऐसा भी लगा मुझे कि शिक्षित, मध्यवर्गीय घरों के लड़के थे. सो, कहां से उनमें एक बुजुर्ग आदमी की हत्या करने की नीयत पैदा हुई?
गर्व से उन्होंने अपनी बर्बरता को वीडिओ में कैद किया और सोशल मीडिया पर डाल दिया. सो, प्रधानमंत्री ने इस वीडिओ को देखा होगा और राजस्थान की मुख्यमंत्री ने भी, लेकिन एक शब्द इन राजनेताओं के मुंह से नहीं निकला, जिससे साबित हो कि इस हत्या से उनको तकलीफ हुई है.
उनके प्रवक्ता जब बोले तो उन्होंने ऐसे बयान दिए, जिन्हें सुन कर मैं हैरान रह गई. राज्यसभा में मुख्तार अब्बास नकवी ने पहले तो कहा कि ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं है जैसा कि मीडिया में प्रचार किया जा रहा है. राजस्थान के गृहमंत्री ने इससे भी ज्यादा स्पष्ट शब्दों में कहा कि गलती दोनों तरफ से हुई है. कानून-व्यवस्था जिन देशों में कायम होती है उनमें उन लोगों को अपराधी माना जाता है, जो कानून को अपने हाथों में लेते हैं.
गोरक्षा के नाम पर ऐसा पहली बार गोरक्षकों ने मोहम्मद अखलाक की हत्या करके किया. उस बर्बर हत्या के बाद प्रधानमंत्री की तरफ से इशारा आता कि उनको तकलीफ हुई इस हत्या से, तो शायद गोरक्षक नियंत्रण में रहते. अब उनके हौसले इतने बुलंद हैं कि सरेआम कर रहे हैं ऐसी हत्याएं. न उनको कानून का डर है और न राजनेताओं का, वरना हत्या करते समय वीडियो न बनाते.
योगी को परफॉर्म करना होगा
इंडियन एक्सप्रेस में मेघनाद देसाई ने यूपी में योगी आदित्यनाथ को सीएम बनाए जाने पर खड़े हो रहे सवालों पर टिप्पणी है. वह लिखते हैं कि योगी के कपड़ों पर मत जाइए. उन्हें उनके प्रदर्शन से परखना होगा. हालांकि मीडिया उनके एक-एक कदम पर नजर रख रहा है. योगी को काम करना होगा. उन्हें न तो प्रशंसा से और न ही कामकाज पर पैनी निगाहों से भटकना होगा.
दरअसल योगी को सीएम बनाने में मोदी की दूरदृष्टि काम करती रही है. चुनाव से पहले उन्होंने हिंदुत्व का कार्ड खेलने की कोशिश की. लेकिन उन्हें भी पता है कि सिर्फ उग्र हिंदुत्व के नारे से काम नहीं चलने वाला है. उन्होंने सबका विकास का नारा दिया है और उन्हें यह कर दिखाना होगा. लेकिन यह तभी होगा जब आर्थिक विकास के कार्यक्रम शुरू किए जाएंगे.
देसाई लिखते हैं- हिंदू कभी एक नहीं रहे. उनमें तमाम तरह की विविधताएं हैं. सात हजार जातियां हैं और 33 करोड़ देवी-देवता हैं. इसलिए सब एक तरह से सोचेंगे ऐसा जरूरी नहीं है. कुछ मीट खाते हैं और कुछ नहीं. लेकिन बिजली, सड़क, पानी रोटी-कपड़ा और मकान सबको चाहिए. इसलिए योगी सरकार को परफॉर्म करना होगा. योगी के चुनाव में मोदी के फैसले पर तभी मुहर लग सकेगी.
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