देश की राजनीति में पिछले कुछ समय से जारी असंतोष ने बड़े पैमाने पर शारीरिक और शाब्दिक हिंसा को बढ़ावा दिया है. लुटियन की दिल्ली, जहां देश के नीति-निर्माता रहते हैं, वहां से 100 किलोमीटर से भी कम की दूरी पर जाट हरियाणा में हिंसक उपद्रव कर रहे हैं.
जाट अपेक्षात्मक रूप से समृद्ध हैं. पर सरकारी नौकरी और शिक्षा में आंदोलन की मांग के चलते उन्होंने रोहतक और झज्जर में आग लगा दी है. सेना को तैनात कर दिया गया है.
निचले स्तर पर राजनीति
इसी महीने हमने कोर्ट परिसर में वकीलों को जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर हाथ उठाते हुए देखा. कन्हैया को कथित राष्ट्रदोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. कन्हैया के अलावा जेएनयू के शिक्षकों, अन्य विद्यार्थियों पर भी हाथ उठाया गया, वरिष्ठ अधिवक्ताओं को डराया-धमकाया गया.
दिल्ली के एक बीजेपी विधायक ने भी कोर्ट के अंदर कुछ ऐसा ही किया.
तमिलनाडु के एक नेता ने मांग की कि सीपीआई नेता डी राजा की बेटी को सिर्फ इसलिए उसके सिर में गोली मार दी जाए, क्योंकि उसने जेएनयू में विद्यार्थियों के साथ प्रदर्शन में हिस्सा लिया है. एक अन्य नेता ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को फांसी पर लटकाने की मांग सिर्फ इसीलिए की, वे उनके हिसाब से राष्ट्रवादी नहीं हैं.
अपशब्द और गालियों का इस्तेमाल तो यूं भी असहनीय है, उस पर हिंसा भी? क्या भारत की राजनीति पतन की ओर बढ़ रही है? या फिर अब भी हमारे राजनीतिक परिदृश्य में अब भी सुधार की गुंजाइश बची है?
राजनीति को फिर से जीवित करने का एक तरीका है, और उसे सत्याग्रह कहते हैं. इस शब्द और लोगों को एकजुट करने के इस तरीके को 1906 के करीब, मोहनदास गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में इजाद किया था. सत्याग्रह का अर्थ है, सत्य पर चलने का आग्रह.
गांधी के मुताबिक, सविनय अवज्ञा से भले ही अराजकता और हिंसा के रास्ते पर भटक जाए, पर सत्याग्रह में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है, चाहे आपके ऊपर ताकत का इस्तेमाल हो, तब भी नहीं. गांधी ने सत्याग्रह को ‘मजबूतों का हथियार’ कहा था — वे जिनके इरादे और लक्ष्य मजबूत हो. आज हमारी राजनीति को नया जीवन सत्याग्रह दे सकता, मूर्खतापूर्ण नारेबाजी नहीं.
सत्याग्रह की सफलता के लिए, सबसे पहले सत्याग्रह का नजर आना, और दूसरा इसका एक ऐसे लक्ष्य पर आधारित होना जरूरी है, जिसमें सभी सत्याग्रहियों का विश्वास हो. अगर विपक्षी पार्टियां देश में बढ़ती असहिष्णुता से दुखी हैं, तो शाब्दिक या शारीरिक हिंसा की बजाय उन्हें एकजुट होकर सत्याग्रह का सहारा लेना चाहिए.
सत्य के प्रयोग जेएनयू पर बढ़ते विवाद के दौरान हमें इस्तेमाल किए जा रहे दुर्भाग्यपूर्ण अपशब्दों और हिंसा पर हमें आत्मनिरीक्षण की जरूरत है. आज के परिदृश्य में महात्मा गांधी का अहिंसात्मक विरोध का हथियार सत्याग्रह काफी प्रासंगिक हो गया है. हिंसा की बजाय, सभी विपक्षी पार्टियां सत्याग्रह के लिए एकजुट होकर असहिष्णुता के खिलाफ विरोध जता सकती हैं.
आज के समय के लिए एक नया सत्याग्रह हमारे चारों ओर फैली निराशा से निजात दिला सकता है.
बातचीत के लिए एक स्तर
कन्हैया के लिए इंसाफ की मांग को लेकर हजारों लोग सड़कों पर उतर आए. सैंकड़ों सेवानिवृत्त सैनिक इसके विरोध में सड़कों पर इस दावे के साथ उतरे कि देशभक्ति पर पहला अधिकार उनका है. इस बीच यह तय करना मुश्किल हो गया कि एक तरफ के लोग, दूसरी तरफ के लोगों को क्या बताने की कोशिश कर रहे हैं. क्या उनके बीच एक स्तर पर उतर कर बातचीत करने की गुंजाइश बची है.
जिन लोगों के पास अब भी अंतरात्मा, धैर्य, और कल्पना बाकी है उन्हें इस गतिरोध को खत्म करने के लिए गांधी का रास्ता अपनाना चाहिए. मीडिया के इस युग में कुछ दर्जन लोग अगर शांतिपूर्णँ धंग से सार्वजनिक बयानों में तर्क और नम्रता की बात करने की मांग करेंगे तो लोगों का ध्यान खुद ब खुद उनकी ओर जाएगा.
अन्या हजारे जो खुद को सत्याग्रही कहने से इनकार करते हैं, उन्होंने 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर का ध्यान खींचा था. पर इस आंदोलन में एकजुटता और शायद आस्था की भी कमी थी, इसीलिए यह सफल नहीं हो सका. इस आंदोलन ने केजरीवाल के रूप में एक नेता जरूर दिया. साथ ही जन्म दिया एक प्रयोग को, जिसे आम आदमी पार्टी के नाम से जाना जाता है.
कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल, और वे सब नागरिक जो आज की इस हिंसा से दुखी हैं, उन्हें सत्याग्रह की किताब की धूल झाड़नी चाहिए. नैतिक और शारीरिक अंकुश को नजर में रखते हुए नए सत्याग्रह की नींव रखनी चाहिए पर लक्ष्य के लिए निश्चय जरूरी है.
इतिहास गवाह है कि मुश्किल हालातों में भी सत्याग्रह की जीत हुई है. बड़ी ताकतों ने भी सत्याग्रह के सामने घुटने टेके हैं. गांधी ने सत्याग्रह के दम पर अंग्रेजों को झुकाया, नेल्सन मंडेला ने इसी के दम पर दक्षिण अफ्रीका को रंगभेद से आजाद कराया.
गांधी इस हथियार को वक्त के साथ और तराशकर इसे शोषण के खिलाफ एक आम हथियार बना देते. पर आज भी गांधी के नक्शे कदम पर चलने वालों को पूरी तरह उनका अनुसरण करने की जरूरत नहीं. उन्हें सत्य के वे सब प्रयोग करने की जरूरत नहीं जो गांधी ने किए, उनके पास गांधी का फाइनल प्रोडक्ट है. यह उन्हें रास्ता दिखाएगा.
अगर भीड़ की हिंसा से कोई ताकत आजादी दिला सकती है तो वह सत्याग्रह ही है. ब्रितानियों के जाने के बाद अगर कभी भारत को सत्याग्रह की जरूरत पड़ी हो तो वो आज का ही समय है. देखना यह है कि आज के सत्याग्रही कौन होंगे.
(लेखक दिल्ली में एक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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